rohit vemullaपिछले दिनों हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में एक छात्र द्वारा आत्महत्या की घटना मीडिया की सुर्खियों में रही. यह बहुत ही जटिल मामला है, लेकिन इस घटना में निहित समस्या को समझना ज़रूरी है. किसी व्यक्ति द्वारा आत्महत्या करना एक राष्ट्रीय मुद्दा नहीं बन सकता. लेेकिन, यहां मुद्दा यह है कि एक ऐसा
वातावरण तैयार किया गया, जिसमें पिछड़ों एवं दलितों को यह सोचने पर बाध्य होना पड़ा कि वे अवांछनीय हैं और छोटे हैं. पहले भी शिक्षण संस्थानों में दलित एवं पिछड़े वर्ग के छात्र सवर्ण एवं संभ्रांत वर्ग के छात्रों द्वारा खुद को प्रताड़ित महसूस करते थे.

लेकिन, इस घटना के पीछे कुछ ऐसी खतरनाक बातें हैं, जिनकी वजह से मीडिया ने यह मुद्दा उठाया और विभिन्न दलों के नेता हैदराबाद गए, ताकि वे समझ सकें कि आ़खिर मुद्दा क्या है? क्या देश में तार्किक लोगों एवं साहित्यकारों की हत्याओं, कलाकारों एवं छात्रों के उत्पीड़न, सत्तारूढ़ दल से जुड़े लोगों द्वारा दिए गए बयानों और आरएसएस से जुड़े संगठनों के बीच कोई संबंध है? अगर ऐसा कोई संबंध नहीं है, तो यह एक आम घटना है और देश इसे आम घटना की तरह ही लेगा और आगे बढ़ जाएगा.

लेकिन, परेशानी यह है कि सरकार तो नहीं, पर शासन से जुड़े लोगों ने 2014 की जीत को इस बात की गारंटी समझ लिया है कि संवैधानिक प्रावधानों को सुधारना चाहिए, देश से जुड़े मामलों में उच्च वर्ग, उच्च जातियों एवं दक्षिणपंथी विचारधारा के लोगों का ही वर्चस्व होना चाहिए. अगर वे हिंदू धर्म की छोटी जातियों के लोगों की फिक्र नहीं करते हैं, तो अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा का सवाल ही नहीं उठता.

सत्तारूढ़ दल से जुड़े कुछ लोग कहते हैं कि ग़ैर-बराबरी में ग़लत क्या है? अगर ग़ैर-बराबरी स्वीकार है, तो फिर सरकार की ज़रूरत क्या है? फिर तो कोई काम करने की ज़रूरत नहीं है. जो ग़रीब पैदा हुआ है, वह ग़रीब ही मरेगा. यही उसका भाग्य है. और, इस खेल में जो मजबूत होगा, वह कमज़ोर को हरा देगा. बिल्कुल ऐसी ही स्थिति से बचने के लिए हमें संविधान की ज़रूरत पड़ती है. एक सभ्य राज्य वह होता है, जो अपने सबसे कमज़ोर लोगों को संवैधानिक सुरक्षा मुहैय्या कराता है. ऐसे लोगों के लिए, जिनके पास न पैसा है और न ताकत, हमें सरकार की ज़रूरत है और सरकार से जुड़े सारे ताकतवर संस्थानों की भी.

जैसे पुलिस. पुलिस से अपेक्षा की जाती है कि वह कमज़ोर तबकों के हितों की रक्षा करेगी. व्यवहार में क्या होता है, यह एक अलग सवाल है. लेकिन, आप समाज की आधारभूत संरचना को चुनौती नहीं दे सकते. अगर सरकार अपने सांसदों को यह लाइसेंस दे देगी, तो आज़ादी के बाद से अब तक हमने जो कुछ भी हासिल किया है, वह बर्बाद हो जाएगा. जो लोग अभी सत्ता में हैं, उनमें बहुत क्षमता है. आज़ादी के बाद ऐसी बहुत-सी चीजें थीं, जो ठीक नहीं थीं.

राजनीतिक तौर पर इस सबके लिए कांग्रेस को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है, क्योंकि वह लंबे समय तक सत्ता में थी. लेकिन, यह मुद्दा नहीं है. पिछले दो वर्षों से भाजपा सत्ता में है. आप अलग कैसे हैं? आप अलग हो ही नहीं सकते, क्योंकि भारत एक बड़ा देश है, बहुत ही प्राचीन देश है. इधर-उधर भागने से किसी समस्या का समाधान नहीं होगा. मेरे ख्याल से प्रधानमंत्री इस बात को समझते हैं.

जैसे ही आप सत्ता में आते हैं, सत्ता की सीमा समझ जाते हैं. हालांकि, जिस पार्टी या संस्था यानी आरएसएस से वह आते हैं, वहां इस समझ का स्पष्ट अभाव है. आरएसएस प्रमुख ने हाल में एक बयान जारी किया कि देश के सभी वर्गों के लोग एक साथ आगे बढ़ेंगे. मैं स़िर्फआशा कर सकता हूं कि देर से सही, इस समझ पर आगे बढ़ा जाएगा. अगर आप देश को स्थिर बनाना चाहते हैं, विकास करना चाहते हैं, तो सबको साथ में लेकर चलना पड़ेगा. कोई दूसरा मॉडल काम नहीं करेगा. यहां तक कि अमेरिका में भी दक्षिणपंथी राजनीति कारगर नहीं हो पाती. आ़िखरकार, एक अश्वेत व्यक्ति वहां का राष्ट्रपति बना.

अगर आपके पास व्यस्क मताधिकार है, तो बहुमत जिसे चाहेगा, उसे अपना नेता चुन लेगा. पिछले चुनाव में 69 फीसद लोगों ने भाजपा के खिला़फ वोट किया था. फर्स्ट पास द पोस्ट सिस्टम (जो पहले आगे निकल गया, वह जीत गया) में यह एक वैध सरकार है. हम इस पर सवाल नहीं खड़े करते. उन्हें अपनी सीमा समझनी चाहिए. यह बिल्कुल सही है कि उन्हें अपने 31 फीसद जनाधार को 40-50 फीसद तक बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए.

लेेकिन, मुझे यह कहते हुए अ़फसोस है कि पिछले दिनों में उनका जनाधार 31 फीसद से भी नीचे चला गया है. ज़ाहिर है, जब तक चुनाव नहीं होंगे, यह तथ्य स्थापित नहीं होगा. लेकिन, समाज के विभिन्न वर्गों की ओर से जो इशारे आ रहे हैं, वे बताते हैं कि प्रधानमंत्री से जो उम्मीदें थीं, वे नीचे आनी शुरू हो गई हैं. हर पांच वर्ष में चुनाव आते हैं और इतना वक्त किसी देश के लिए कोई बहुत लंबा समय नहीं होता. देश में अनेक चुनाव होंगे.

अभी जिस बात की सबसे अधिक ज़रूरत है, वह यह कि जख्मों पर मरहम लगाया जाए और नए जख्मों को पैदा होने से रोका जाए. लेकिन अ़फसोस कि कैबिनेट स्तर के मंत्रियों द्वारा भी ऐसे बयान दिए जा रहे हैं, जो अनुचित हैं और हालात को बेहतर बनाने में मददगार नहीं हैं. सांसदों की बात करें, जो कि बहुत महत्वपूर्ण लोग हैं, उनके बयान भड़काऊ हैं. मैं समझ सकता हूं कि उत्तर प्रदेश में चुनाव आने वाले हैं और शायद यह उनकी रणनीति है कि चुनाव जीतने के लिए समाज को बांटा जाए.

चुनाव जीतना सफलता का एक हिस्सा हो सकता है, लेकिन नीतियां बनाना, लोगों की ज़िंदगी बेहतर बनाना, क़ानून-व्यवस्था दुरुस्त करना एक अलग बात है. जो लोग अल्पसंख्यक हैं (मैं धार्मिक अल्पसंख्यकों की बात नहीं कर रहा हूं, बल्कि वैचारिक अल्पसंख्यक) और वे लोग, जो हिंदू मां-बाप के यहां पैदा तो हुए, लेकिन हिंदू धर्म में विश्वास नहीं करते, उनके अंदर असुरक्षा की भावना नहीं आनी चाहिए, उनमें यह भावना नहीं आनी चाहिए कि उनकी ज़िंदगी खतरे में है.

दूसरा मुद्दा सुप्रीम कोर्ट से जुड़ा हुआ है. मैं हैरान हूं कि सुप्रीम कोर्ट केरल के सबरीमाला मंदिर में चली आ रही प्रथा में हस्तक्षेप करना चाहता है. इस प्रथा के मुताबिक, दस से 60 वर्ष की महिलाओं को मंदिर में जाने की अनुमति नहीं है. ऐसा मासिक धर्म की वजह से है. मैं इस तर्क से सहमत नहीं हूं, मुझे यह तर्क समझ में नहीं आता. आप इस प्रथा से सहमत या असहमत हो सकते हैं, लेकिन यह एक मंदिर की प्रथा है.

सुप्रीम कोर्ट किसी मंदिर से अपनी परंपरा बदलने के लिए कैसे कह सकता है? मंदिर आस्था का विषय है, संविधान का हिस्सा नहीं है. हिंदू धर्म के विभिन्न पंथों के अलग-अलग मंदिर हैं, जिनकी अपनी परंपराएं एवं प्रथाएं हैं. अगर हमारा किसी परंपरा या प्रथा में यकीन नहीं है, तो हम वहां नहीं जाएंगे.

अब समय आ गया है कि सुप्रीम कोर्ट को भी अपनी प्राथमिकताएं तय करनी चाहिए. क्रिकेट, मंदिर एवं सड़क व्यवस्था जैसे मुद्दों पर अपना समय व्यर्थ करने के बजाय, मैं समझता हूं कि सुप्रीम कोर्ट इस स्थिति में है कि वह देश में चल रही उत्पीड़न की घटनाओं, जिनका मैंने ऊपर जिक्र किया है, पर रोक लगाने में अपनी भूमिका निभाए. सुप्रीम कोर्ट के किसी जज द्वारा इन मुद्दों पर मैंने कोई टिप्पणी नहीं सुनी. कृपया व्यक्तिगत आज़ादी के सिद्धांत को मजबूत बनाएं. दरअसल, मुझे सुरक्षा की ज़रूरत तब पड़ेगी, जब मैं अथॉरिटी या बहुमत के खिला़फ जाऊंगा.

अगर मैं बहुमत के हक़ में बात करूंगा, तो मुझे सुरक्षा की कोई ज़रूरत नहीं है. सुप्रीम कोर्ट के नए चीफ जस्टिस ने ऑड-ईवेन मसले पर एक बयान दिया है. मुझे लगता है कि यह बहुत छोटा मसला है, जिसे स्थानीय सरकार पर छोड़ देना चाहिए. मुझे लगता है कि अब समय आ गया है कि आम नागरिक की सुरक्षा को प्राथमिकता दी जाए. आज आम नागरिक भले ही असुरक्षित न हो, लेकिन वह असुरक्षा का वातावरण महसूस करता है. यह सब हमें राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक रूप से विकसित होने में मदद नहीं करेगा. 

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