tilaiyaदक्षिण बिहार के गया-नवादा जिले के साथ-साथ झारखंड के करीब एक लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई के लिए शुरू की गई तिलैया ढाढर सिंचाई परियोजना पांच दशक बाद भी अधूरी है. पिछले पचास साल में इस परियोजना पर अरबों रुपए पानी की तरह बहाए गए, लेकिन इससे एक एकड़ जमीन की सिंचाई के लिए भी पानी का बहाव नहीं हुआ है. बिहार-झारखंड के अलग होने के बाद से तो एक तरह से इस महत्वपूर्ण सिंचाई परियोजना पर ग्रहण ही लग गया. डैम निर्माण का कार्य तो बिहार-झारखंड के बंटवारे के बाद से ही बाधित चल रहा है.

संयुक्त बिहार में तब मध्य बिहार के गया-नवादा जिले के साथ-साथ हजारीबाग जिले के करीब तीन सौ गांवों के एक लाख से अधिक एकड़ भूमि सिंचाई के अभाव में बंजर पड़ी रहती थी. इन क्षेत्रों के किसानों की खेती वर्षा पर निर्भर रहती थी. 1964 में तत्कालीन क्षेत्रीय सांसद सत्यभामा देवी ने इस समस्या को संसद में उठाया था.

सांसद की पहल पर तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री केएन राव ने तिलैया ढाढर सिंचाई परियोजना की रूपरेखा तैयार की थी. उस दौरान केन्द्रीय सिंचाई मंत्री संयुक्त गया जिले में उत्पन्न सुखाड़ की स्थिति का जायजा लेने आए थे. तभी उन्होंने केन्द्र सरकार को रिपोर्ट सौंपी थी कि इस क्षेत्र में तिलैया जलाशय के जल क्षेत्र का इस्तेमाल कर सुखाड़ की स्थिति से निबटा जा सकता है.

योजना का प्रारूप 1974 में तैयार किया गया. योजना को पूर्ण कराने के लिए सिंचाई विभाग ने 13 करोड़ 43 लाख रुपए की प्रशासनिक स्वीकृति दी थी. इस परियोजना की महत्ता को देखते हुए 20 अक्टूबर 1984 को बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री चन्द्रशेखर सिंह ने गया जिला के फतेहपुर प्रखंड के सोहजना गांव के पास ढाढर नदी के पास तिलैया ढाढर सिंचाई परियोजना का शिलान्यास किया था.

शुरुआत में इस परियोजना का काम तेजी से आगे बढ़ा. इसे पूरा करने के लिए विभाग को 1990 तक का समय दिया गया, लेकिन सरकार बदलते ही इस परियोजना पर संकट के बादल मंडराने लगे. हालांकि केन्द्रीय जल आयोग ने भी इस परियोजना के डिजाइन को तकनीकी आधार पर अनुमोदित करते हुए चार करोड़ 74 लाख रुपए के प्राक्कलन की स्वीकृति दे दी और तत्कालीन अभियंता प्रमुख सिंचाई विभाग, बिहार सरकार को 2807 करोड़ रुपए किश्तों में खर्च किए जाने के आदेश भी दे दिए. तब बिहार सरकार ने इस परियोजना को पूरा करने के लिए 1997 में तीन सिंचाई प्रमंडलों का सृजन किया.

इसका मुख्यालय गया जिले के फतेहपुर, वजीरगंज तथा हजारीबाग के बरही में रखा गया. इसका प्रधान कार्यालय नवादा और पटना में बनाया गया. इस परियोजना में पानी स्टॉक करने के लिए हजारीबाग के चौपारण के लोहरा के निकट ‘बैलेंसिंग रिजर्वायर’ का निर्माण कर 45 मेगावाट बिजली का उत्पादन भी करना था. परियोजना के प्रथम चरण का कार्य पूरा होने पर गया जिले के 35,223 हेक्टेयर जमीन सिंचित करना तथा दूसरे चरण में करीब 60 मेगावाट बिजली उत्पादन करने का लक्ष्य था. छोटानागपुर की पहाड़ियों के निकट तिलैया जलाशय के अतिरिक्त पानी को ढाढर नदी में 15.6 किलोमीटर का टनेल बनाकर डायवर्ट करना था.

इसमें 6.16 किलोमीटर टनेल पहाड़ के अंदर बनाने की भी योजना थी. इसके लिए गया के फतेहपुर प्रखंड के सोहजना के पास ढाढर नदी पर 22,599 करोड़ की लागत से बराज का निर्माण होना था. बराज स्थल पर दो लाख एकड़ फीट उपलब्ध जल की उपयोगिता को देखते हुए ‘बैलेंसिंग रिजर्वायर’ के निर्माण का प्रस्ताव था. तिलैया ढाढर सिंचाई परियोजना में फिलहाल बराज बाएं और कुछ दूर तक नहर की खुदाई, कैनाल, क्वार्टर, गाइड बांध, दो हाईमास्ट लाइट, पार्किंग आदि का निर्माण हुआ, जिसमें दस करोड़ से अधिक राशि खर्च हुई.

1998 में सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र व राज्य सरकार को नोटिस दिया, जिसपर केन्द्र सरकार ने पैसे की कमी बताते हुए तिलैया ढाढर सिंचाई परियोजना को नौवीं पंचवर्षीय योजना में शामिल करने का वादा किया. नौवीं पंचवर्षीय परियोजना में इस परियोजना के लिए 30 करोड़ की राशि मुक्त की गई. तब ढाढर नदी पर सात सौ एकड़ भूमि अधिगृहित की गई थी. उस समय रामपुर में नहर की खुदाई शुरू हुई. मुख्य नहर का करीब तीन किलोमीटर तक पक्कीकरण किया गया. इसी बीच बिहार से अलग होकर झारखंड राज्य बन गया.

तब बिहार ने झारखंड को इस परियोजना पर दो प्रतिशत राशि खर्च करने का प्रस्ताव दिया, लेकिन झारखंड ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया. इसी के बाद से तिलैया ढाढर परियोजना पर ग्रहण लगने शुरू हो गए. हालांकि इस योजना पर केन्द्र व राज्य सरकार की ओर से किश्तों में अरबों रुपए खर्च हो चुके हैं, लेकिन परिणाम शून्य है. शुरू से ही यह परियोजना राजनीति की शिकार रही है. इसके लिए 1990 में क्षेत्र के चर्चित समाजिक कार्यकर्ता और अधिवक्ता स्व. महेन्द्र सिंह ने तिलैया ढाढर सिंचाई परियोजना संघर्ष समिति का गठन कर गया से लेकर दिल्ली तक संघर्ष किए. धरना-प्रदर्शन, भूख-हड़ताल भी किए. आंदोलन तेज होने पर इस परियोजना का काम कुछ बढ़ता, लेकिन कुछ समय के बाद फिर रुक जाता. वर्तमान में इस परियोजना का काम बाधित है. महेन्द्र सिंह के निधन के बाद संघर्ष समिति भी मजबूती से आवाज बुलन्द नहीं कर पा रही है. नतीजा यह हुआ कि क्षेत्र की लाखों एकड़ भूमि आज भी इस परियोजना से सिंचित होने की बाट जोह रही है.

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