कोरोना वैक्सीन लगवाने और सोशल मीडिया में उसकी तस्वीर पोस्ट करने के बीच क्या मनोवैज्ञानिक और चिकित्सकीय सम्बन्ध है? इससे वैक्सीन की कारगरता बढ़ती है या फिर टीकाकृत व्यक्ति द्वारा अपनी ‘महान उपलब्धि’ की यह सार्वजनिक घोषणा है? कुछ लोग इसे वैक्सीन टीकाकरण के प्रति सामाजिक जागरूकता से जोड़कर देखते हैं तो कुछ की नजर में यह महज ‘वैक्सीनी अहंकार’ है। भारत सहित दुनिया भर में जिस तरह सोशल मीडिया साइट्स पर प्रति पल सेल्फियां पोस्ट हो रही हैं, उससे लगता है मानो बिना सेल्फी डाले वैक्सीन लगवाना बेकार है। हमे जल्द ही यह अध्ययन भी करना पड़ सकता है कि सेल्फी कोरोना वैक्सीन की सखी-सहेली है या सौतन?

अपने राम ने भी वैक्सीन लगवा तो ली, लेकिन सेल्फी पोस्ट करने का नैतिक कर्तव्य अदा नहीं किया। उधर सोशल मीडिया पर टीकाकृत सेल्फियों की मय नसीहत बाढ़ देखकर क्षणभर को आत्महीनता का अहसास भी हुआ। बचपन में लगे उन जरूरी टीकों की सार्थकता पर भी सवाल तैरने लगे कि बिना सेल्फी भी वो टीके इतने कारगर साबित कैसे साबित हो हुए? जबसे कोविड 19 टीकाकरण शुरू हुआ है, तब से भारत ही नहीं पूरी दुनिया में एक अजीब सा उन्माद छाया हुआ है। हर वो इंसान जो, कोरोना पाॅजिटिव हो या न भी हो, बांह खोल टीका लगवाकर खुद को तुर्रम खां समझने लगा है।

ऊपर से यह से यह तंजिया सवाल कि मैंने लगवा लिया है, आप कब लगवा रहे हो? कई बार तो यूं लगता है कि बंदे की बांह नीचे खिसका के बता दें कि भाया टीका लगवाने वाले आप ही पहले नहीं हो। कई लगवा रहे हैं। वैसे टीका-सेल्फी सम्प्रदाय के लोगों का दावा है कि ऐसा करके वो उन लोगों की हौसला अफजाई में जुटे हैं, रजिस्ट्रेशन करवाने के बाद भी टीका लगवाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं।

वैसे कोरोना वैक्सीन को लेकर कई तरह के मिथक भी चल रहे हैं। पहला तो यह पति-पत्नी को साथ टीका नहीं लगवाना चाहिए। एक को आफ्टार इफेक्ट हुआ तो कौन देख-भाल करेगा। दूसरा, पहले सब को लग जाने तो बाद में लगवा लेंगे। अपना नंबर आते-आते तो कोरोना वैसे भी पानी मांगने लगेगा। तीसरा, दस जगह पूछताछ लें कि भई टीके का कोई दुष्प्रभाव तो नहीं है। होगा तो नहीं ही लगवाएंगे। बाद में पाॅजिटिव निकले तो देखा जाएगा। कुछ आध्यात्मिकों की मान्यता है कि मरना तो एक दिन है ही।

टीका लगवाने से किस्मत का लेखा थोड़े बदल जाएगा। बावजूद इन सबके इस कोरोना टीकाकरण ने सरकारी अस्पतालों की छबि को बदला है। इन अस्पतालों ने, वहां के डाॅक्टरों और स्टाफ ने लोगों का विश्वास नए सिरे से अर्जित किया है। कोरोना टीकाकरण की व्यवस्थाएं एकदम बढि़या हैं। कुछेक भीरू प्राणि टीकाकृत बंदों से टीकोत्तर प्रभावों के बारे में इतनी बारीकी से पूछताछ कर रहे हैं,जितनी की एनआईए आंतकवादियों से भी नहीं करती होगी। इसके बाद भी उनका मन ‘ टीका लगवाएं कि न लगवाएं’ के द्वंद्व में फंसा हुआ है। आलम यह है ‍कि एक तरफ सरकार पर ज्यादा से ज्यादा लोगों को जल्द से जल्द टीका लगवाने का दबाव है, वहीं जिन्हें टीका लगवाने के संदेश भेजे जा रहे हैं, उनमें एक तिहाई ही लगवाने पहुंच रहे हैं। मानो कोरोना वायरस ने उन्हे पाॅजिटिव न होने की अलिखित गारंटी दे रखी हो।

बहरहाल मामला वैक्सीन और सेल्फी के अटूट‍ रिश्ते का है। इसमे भी दो तरह की प्रवृत्तियां दिखीं। सरकार ने जिन्हें फ्रंट लाइन वर्कर्स या कोरोना योद्धा का नाम दिया, उनमे से ज्यादातर ने सबसे पहले टीके लगवाए, लेकिन बहुत कम को सेल्फी पोस्ट कर डालने का भान रहा। शायद इसलिए कि उन लोगों को सेल्फी जैसे सोशल मीडियाई चोचलों में डूबने की फुर्सत नहीं है। इनके बाद सेलेब्रिटी रहे, जिनमें राजनेता से लेकर समाज के विशिष्ट लोग शामिल हैं। इन लोगों के वैक्सीन लगवाने का ‘पराक्रम’ तो सेल्फी पोस्ट करना मंगता ही है। वरना दुनिया को कैसे पता चलता कि आपने भी टीका लगवा लिया है और वो भी कोविड का। इस दृष्टि पुराने पारंपरिक टीकों को ईर्ष्या हो सकता है कि एक नए वायरस का टीका दो माह पहले क्या आन टपका और अपनी सेल्फियों का रिकाॅर्ड बना गया।

अपने देश में सरकार के पास वैक्सीन के कितने डोज लगे,कितने परदेश भेजे, इसका तो रिकाॅर्ड है, लेकिन कितने डोजो के साथ कितनो ने सेल्फी खींचकर पोस्ट कीं, इसका ‍कोई रिकाॅर्ड नहीं है। लेकिन यह संख्या लाखों में तो होगी ही।
वैक्सीन सेल्फी का यह जुनून पूरी दुनिया में हैं। दरअसल सोशल मीडिया और स्मार्ट फोन्स ने उन्माद, अवसाद, निंदा स्तुति और निजी भावनाअोंकी सार्वजनिक और अमर्यादित अभिव्यक्ति को एक नया और अजब स्वरूप दे दिया है। यानी जब तक आप खुद को सेल्फी में वह सब करते हुए न देखें, जो कि आप कर ही रहे होते हैं, तब आपको अपने आप पर भरोसा नहीं होता। यही नहीं यह सेल्फी भी निरर्थक है अगर उस पर पर्याप्त लाइक्स न मिलें। आप ट्रोल हों या न हों।

बहुतों की नजर में हर मानवीय कृत्य का सेल्फीकरण सामाजिक जागरण का ही हिस्सा है। कोरोना वैक्सीन की हर सेल्फी में अपनी खुली बांह के साथ साथ यह खुला ऐलान भी है कि इस टीके में ऐसा कुछ भी नहीं है कि डरा जाए। दूसरे, कोरोना टाइम में सेल्फी खींचकर पोस्ट करने का इससे बेहतर मौका और दस्तूर दूसरा नहीं है। विदेशों में इस वैक्सीन सेल्फी के समाजशास्त्र पर लोगों ने दृष्टि डाली है। कुछ डाॅक्टरों का कहना है कि इस तरह वैक्सीन सेल्फियां दनादन पोस्ट करते जाना दरअसल एक वैश्विक महामारी पर विज्ञान की विजय का उद्घोष है। लेकिन सभी डाॅक्टर ऐसा नहीं मानते। कनाडाई पत्रकार पत्रकार मार्क गोलोम ने सीबीसी न्यूज में अपनी एक रिपोर्ट में कुछ डाॅक्टरों के हवाले से बताया था कि ‘वैक्सीन लगवाने के बाद तुरंत सेल्फी पोस्ट करना वास्तव में उन लोगों की जख्मब पर नमक छिड़कने जैसा है, जो वैक्सीन नहीं लगवा पाए हैं।‘

चाहें तो इसमे एक लाइन और जोड़ी जा सकती है कि यह उन लोगों को भी चिढ़ाने जैसा है, जिन बेचारों ने वैक्सीन तो लगवा ली है, लेकिन सेल्फी पोस्ट करने के लिए जिनके पास स्मार्ट फोन नहीं है। अगर हम सेलेब्रिटी वैक्सीन सेल्फी की बात करें तो इसमें वह गरूर तो है कि पहले हमे नहीं लगेगी तो किसको लगेगी? पिछले दिनो अमेरिका के वाॅशिंगटन पोस्ट अखबार ने एक स्टोरी छापी थी। ‘टू सेल्फी ओर नाॅट टू सेल्फी?’ यानी वैक्सीन लगवा कर सेल्फी खींचना चाहिए या नहीं? इस पर अलग-अलग राय थी। लेकिन एक निष्कर्ष यह भी था कि टीकाकृत होकर सेल्फी पोस्ट करना वास्तव में सम्पन्न और विपन्नता के भेद को दिखाना भी है। कई बार ऐसी सेल्फियां देख- देख कर लोगों को संताप होने लगता है कि लोगों ने मेडिकल साइंस का भी मजाक बना डाला है।

इस मानसिकता को समझना कठिन है कि वैक्सीनेट होने के बाद सेल्फी पोस्टिंग का कर्मकांड अनिवार्य क्यों है? कोरोना भले नई महामारी हो, लेकिन दुनिया में महामारियां पहले भी फैलती रही हैं और उनके टीके भी बनकर लोगों को लगते रहे हैं, उन बीमारियों पर काबू भी पाया जाता रहा है, लेकिन किसी का सेल्फी सेलिब्रेशन नहीं हुआ। यहां तर्क दिया जा सकता है कि उस जमाने में स्मार्ट फोन ही नहीं थे इसलिए सेल्फी का सवाल ही नहीं उठता। सही है। लेकिन तब टीके या दवा को उपचार के रूप में ही ज्यादा लिया जाता था। अंधविश्वासी तब भी ऐसी बातों का विरोध करते थे, लेकिन टीका लगवा कर तत्काल वायरल होने के अंधे सुख का आग्रह भी नहीं था। एक विश्वास (?) यह भी है कि सेल्फी डाल देने से व्यक्ति का आत्मविश्वास बढ़ता है। उसके कृत्य को सामाजिक स्वीकृति मिलती है। तो क्या सामान्य को भी असामान्य तरीके से लेना ही ‘न्यू नाॅर्मल’ है?

वरिष्ठ संपादक

अजय बोकिल

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