जैसे-जैसे आजाद हुए समय बीतता जा रहा है, वैसे-वैसे ऐसा लगता है कि पुराने लोग देवताओं के समान थे और आज के ज़माने के लोग कैसे देववृत्ति का अपमान करें, इसी होड़ में लगे हुए हैं. पिछले राजनेता चुनाव प्रचार में शालीनता, विरोधी का सम्मान, आमने-सामने मिलें तो कम से कम नमस्ते करें, ये सारी चीजें अब लगता है इतिहास की वस्तु हो जाएगी. अगर कभी कोई घटनाओं को लिखेगा, तब पता चलेगा कि जिन्हें हम कभी विलेन मानते थे, वो आज के लोगों के सामने हीरो की श्रेणी में खड़े हुए हैं. उत्तर प्रदेश, पंजाब, गोवा में चुनाव प्रचार चल रहा है, लेकिन उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार की जो शैली सामने आ रही है, वो सचमुच चिंतित करने वाली है.
एक घटना मुझे याद आती है. पंडित जवाहरलाल नेहरू चुनाव लड़ रहे थे और उनके मुक़ाबले प्रभुदत्त ब्रह्मचारी उम्मीदवार थे. प्रभुदत्त ब्रह्मचारी और जवाहरलाल नेहरू जहां आमने-सामने होते थे, एक दूसरे को नमस्ते करते थे और कुछ ही क्षणों के बाद अपनी-अपनी सभाओं में जाकर एक-दूसरे पर घनघोर राजनीतिक प्रहार करते थे. उन प्रहारों में कहीं पर भी व्यक्तिगत द्वेष नहीं होता था. प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ने लिखा है कि मैं जा रहा था और वहां पर पंडित जी का क़ाफिला रुका था. मैं भी वहां देखने के लिए रुकगया कि यहां पंडित जी क्या कर रहे हैं? पंडित जी को जैसे ही पता चला, उन्होंनेे मुझे बुलवाया. उस समय पंडित नेहरू खाना खा रहे थे. प्रभुदत्त ब्रह्मचारी को उन्होंने जबरन अपने पास बिठा लिया और अपने साथ खाना खाने का निमंत्रण दिया.
प्रभुदत्त जी ने लिखा है, मैंने देखा पंडित जी पहले रोटी खा लेते थे और उसके बाद दाल पीते थे. प्रभुदत्त ब्रह्मचारी को आश्चर्य हुआ कि पंडित जी ऐसा क्यों कर रहे हैं? क्या इन्हें खाना खाना भी नहीं आता? यह आज़ादी के बाद की घटना है. प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ने लिखा है, पंडित जी ने उन्हें कहा कि हां, मैं तो इसी तरह खाना खाता हूं. तब प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ने उन्हें बताया कि इस तरह रोटी को दाल में डुबोकर खाने से स्वाद बढ़ता है और पाचनशक्ति भी बढ़ती है.
पंडित जी ने उसेे खाया और इसके बाद पंडित जी रोटी दाल में डुबोकर ही खाने लगे. यह घटना बताती है कि पहले के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों में कितनी शालीनता होती थी. प्रभुदत्त ब्रह्मचारी की प्रतिक्रिया ये भी बताती है कि ऐसी चीज़ों का कभी राजनीतिक इस्तेमाल नहीं होता. ये घटना उन्होंने अपने संस्मरणों में लिखी है.
अगर आज ये घटना हुई होती तो प्रतिद्वंद्वी या अगर जवाहरलाल नेहरू और प्रभुदत्त ब्रह्मचारी आज चुनाव लड़ रहे होते तो वे इस घटना को जवाहरलाल नेहरू की अज्ञानता के रूप में पेश करते. वे सब जगह यह बताते कि ये कैसा उम्मीदवार है, जिसे दाल और रोटी भी खाने नहीं आती है? ये आपका प्रतिनिधित्व कैसे करेगा? क्योंकि आजकल ऐसा ही हो रहा है.
अगर प्रियंका गांधी चुनाव प्रचार के लिए निकलने की इच्छा रखती हैं या चुनाव प्रचार करने के लिए प्रियंका गांधी का नाम सामने आता है, तो भारतीय जनता पार्टी के कद्दावर नेताओं को मिर्च क्यों लग जाती है? विनय कटियार को क्यों ये लगता है कि अगर प्रियंका गांधी निकलेंगी तो उनके वोटों पर असर पड़ेगा. इसलिए उन्होंने एक बेहद निम्नस्तर की टिप्पणी की कि प्रियंका गांधी से ज्यादा सुन्दर महिलाएं हैं और हम उन्हें चुनाव प्रचार में उतार सकते हैं. इसके बाद फिर शायद भारतीय जनता पार्टी की ही नेता स्मृति ईरानी की सुन्दरता पर टिप्पणी कर दी.
उत्तर प्रदेश में सभाओं में बाहुबली नेताओं का प्रवेश अपने आप में चिंता जताता है और उनका राजनीतिक महिमामंडन भी बहुत परेशान करता है. हाल में मायावती जी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि अंसारी बंधुओं का राजनीति में प्रवेश करना कितना सही और जायज है? उन्होंने ये भी कहा कि अंसारी बंधुओं का कहना है कि उनके खिलाफ जितने मुकदमे हैं, वो रंजिशन लगाए गए हैं. ये भाषा उन्होंने इस तरह बोली, जैसे वे भी इसका समर्थन करती हों. इसके साथ ही मायावती जी ने कई नाम और लिए, जिनमें डीपी यादव, बृजेश पाठक, राजा भैया का नाम शामिल है. उन्होंने कहा कि ये सारे लोग अपराधी हैं और इन्हें तब तक बहुजन समाज पार्टी में नहीं लिया जाएगा, जब तक ये सार्वजनिक रूप से माफी नहीं मांग लेते हैं.
मायावती का ये इशारा कि अगर बाहुबली सार्वजनिक रूप से प्रेस कॉन्फ्रेंस कर अपने ऊपर लगाए गए आरोपों पर सफाई दे दें कि उनके खिलाफ सारे आरोप द्वेषवश लगाए गए हैं, उन्होंने कभी ऐसे काम नहीं किए हैं और न आगे वो करेंगे, तो मायावती उन्हें बहुजन समाज पार्टी के टिकट पर विधानसभा चुनाव लड़ाने में कोई संकोच नहीं करेंगी.
अखिलेश यादव ने पिछले विधानसभा चुनावों के दौरान एक महत्वपूर्ण बात कही. उन्होंने डीपी यादव के खिलाफ सार्वजनिक बयान दिया. अपने पिताजी के फैसले के खिलाफ डीपी यादव को पार्टी में प्रवेश करने से रोक दिया, तब अखिलेश यादव की इमेज बनी कि यह ऐसा नौजवान नेता है, जो राजनीति के अपराधीकरण के खिलाफ है या राजनीति में बाहुबलियों को प्रवेश नहीं करने देगा.
इस बार उन्होंने मुख्तार, अफज़ाल अंसारी और अतीक अहमद का विरोध किया. इसके बावजूद अपराधियों की एक लंबी सूची है, जिसे अखिलेश यादव ने चुनाव में उतार दिया और ये साबित किया कि वे भी दूसरे राजनीतिक दलों से अलग नहीं हैं. हालांकि अखिलेश यादव की चुनाव प्रचार शैली फिलहाल बाक़ी नेताओं से अलग और सभ्यता के दायरे में है. लेकिन क्या सिर्फ इतना काफी है. हमारी चिंता किसी एक उम्मीदवार की भाषा को लेकर नहीं है. हमारी चिंता पूरे राजनीतिक चुनाव प्रचार में शैली, स्वरूप और भाषा को लेकर है क्योंकि इसका नीचे खासकर कार्यकर्ताओं के स्तर पर बहुत गलत प्रभाव पड़ता है.
इन राजनीतिक चुनाव में एक चीज़ और सा़फ दिखाई दी. वो यह कि अब राजनीतिक कार्यकर्ताओं की उम्मीदवारी के क्षेत्र में दावेदारी लगभग समाप्त हो गई है. अगर आप किसी नेता की पत्नी, उनके बेटे, भतीजे हैं, उनका इस हक़ से टिकट मांगने की प्रक्रिया प्रारंभ हुई है, मानो ये उनका जन्मसिद्ध अधिकार है. अगर मैं नहीं रहूंगा, तो मेरा उत्तराधिकारी मेरा बेटा, पत्नी, भाई, बहू या मेरी बेटी को क्यों नहीं जाएगा. ये एक दावे के साथ ऐसे सत्य के रूप में सामने आ रहा है कि परिवारवाद वाला सवाल अपनी महत्ता खोता जा रहा है. मुलायम सिंह जी के परिवार के लोग चुनाव मैदान में हैं. कुछ लोकसभा के लिए हैं, जो बचे हैं, वो विधानसभा में आ रहे हैं. मायावती जी के यहां परिवारवाद नहीं है क्योंकि उनकी पारिवारिक दावेदारी का ज़िम्मा उनके भाई आनन्द पर है. वे इस बार चुनाव नहीं लड़ रहे हैं, शायद वे इस बार राज्यसभा में जाएंगे. कांग्रेस इसका उदाहरण है और सबसे बड़ा उदाहरण अब भारतीय जनता पार्टी हो रही है.
राजनाथ सिंह के बेटे पंकज सिंह को टिकट देने में जितनी देरी भारतीय जनता पार्टी ने लगाई, उससे ये लगा कि उन्हें जान-बूझकर अपमानित किया जा रहा है. शायद राजनाथ जी के गुस्से को भांपते हुए भारतीय जनता पार्टी ने न केवल उनके बेटे को टिकट दिया, बल्कि बेटे के ससुर यानी राजनाथ सिंह के समधी को भी टिकट दे दिया. ऐसे लोगों की सूची बहुत लंबी है, जो खुद सांसद हैं और उनके बेटे, उनकी बहू या उनकी बेटी चुनाव में खड़े हैं. इस आशा से खड़े हैं कि ये जीतेंगे और राजनीति की वंश परंपरा को आगे बढ़ाएंगे.
अब डॉ. राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, दीनदयाल उपाध्याय या फिर अटल बिहारी वाजपेयी को बहुत ज्यादा याद करने की आवश्यकता नहीं है. उनसे जुड़े सभी परंपराओं के सवाल को भूल जाना चाहिए और ये मान लेना चाहिए कि भारत भी एक ऐसे लोकतांत्रिक स्वरूप की तरफ बढ़ रहा है, जहां अगले पांच या दस सालों में 100 या 200 परिवार बचेंगे, जिनके बेटे या बेटी या उनका कोई रिश्तेदार इस देश की सत्ता को चलाएगा, चाहे वो विधानसभा या फिर लोकसभा के जरिये हो.
ये स्थिति पाकिस्तान में है. पाकिस्तान में लगभग 150 परिवार ऐसे हैं, जो वहां की सत्ता पर क़ाबिज़ हैं. इधर इस बार किसी भी चुनाव में या दूसरे चुनाव में, वो हर हालत में उन्हीं परिवारों से जुड़े लोगों को वहां की नेशनल या स्टेट असेंबली में भेजता है. हम भी शायद उसी रास्ते पर आगे बढ़ रहे हैं. हम धीरे-धीरे एक दूसरी लोकतांत्रिक व्यवस्था का हिस्सा बनने जा रहे हैं, जो पाकिस्तानी लोकतंत्र से मिलता-जुलता है. देश के लोगों को ये सोचना है कि क्या संविधान निर्माताओं ने लोकतंत्र का यही स्वरूप सोचा था, गांधी जी ने सोचा था, आज़ादी के आन्दोलन में अपनी जान देने वाले या जेल जाने वाले लोगों ने सोचा था. अगर ये नहीं सोचा था, तो हम क्यों शहीदों के सपनों का अपमान कर रहे हैं और क्यों आज़ादी के आन्दोलन में देखे गए सपने की हत्या कर रहे हैं.
इस देश के मतदाताओं को देखने की ज़रूरत है और सोचने की ज़रूरत है कि लोकतंत्र का जो स्वरूप हमारे सामने आ रहा है, क्या वो लोकतंत्र का स्वरूप जायज, नैतिक, संविधान सम्मत, संविधान निर्माताओं की आकांक्षाओं के अनुरूप है या हम इन सबको धोखा देकर एक ऐसे लोकतंत्र की तरफ बढ़ रहे हैं, जो हकीकत में लोकतंत्र विरोधी और लोकतंत्र के नाम पर एक सामंतवादी आपराधिक व्यवस्था के निर्माण की नींव बन सकता है. कहना इसलिए जरूरी है, ताकि अगर कहीं पर कोई विवाद हो, बुद्धि हो, समझ हो या लोकतंत्र के प्रति आस्था हो तो वो लोग जो इस प्रक्रिया में लगे हैं, वो अपने क़दम उठा सकें.