मथुरा -वृन्दावन नामक शहर मन में हमेशा एक रोमांचक जगह के रूप में रहा है। बचपन से ही वहां के दृश्यों को मैंने
गाँव के कुछ दीवाने टायप युवा भक्तों की आँखों से देखा है। और एक काल्पनिक ब्रज भूमि में यदा कदा रमण करता रहा हूंँ। बचपन में देखीं रासलीलाएं भी पर्याप्त जिज्ञासु और दर्शनाभिलाषी बनाती रहीं हैं।
सूरदास ,मीरा, रसखान के पदों के बहाने सहस्त्र बार ब्रज में बिहार किया है। और हां,पहली बार मैं यहां पहुंचा था १९९६ में। माता पिता ने शादी के बाद जिस नगरी में हम दोनों को भेजा था,वह शेरशाह सूरी की और फिर शाहजहां की प्रसिद्ध नगरी आगरा है,।उसी के नज़दीक मथुरा वृन्दावन है।
मौसी जी ने हम दोनों को खूब नेह दुलार दिया था और रेलवे में बड़े अफसर मौसाजी साहब ने नई बहू के आत्मीय स्वागतम में यह भी तय किया था कि हम लोग ताजमहल, लालकिला, फतेहपुर सीकरी के बाद मथुरा भी जाएं।
हमें कोई परेशानी न हो इसके लिए मौसेरे अनुज धर्मेंद्र साथ में भेजे गए। और मुक्ता (नतबहू ) के साथ धार्मिक स्थल की यात्रा का सौजन्य सुख लेने के लिए हमारी वरिष्ठ नागरिक नानीजी भी संग हो गईं थीं।हाय वह बिना मोबाइल का ज़माना, कहां गया।हम इतने दूर आ गए हैं और मम्मी पापा से बात न कर पाने की अनजान सी कसक का एहसास मीठा तो होता होगा। रास्ते भर सावन के महीने और फागुन के महीने के
मथुरा वृन्दावन की कल्पना संग संग चलती रही। एक और रिश्तेदार वृंदावन में बिना पलक लपके हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। अब उनके बारे में सोच कर ही मन अनमना हो जाता है। उन जैसे अनेक दिवालिये वृंदावन आकर अपना पेट पालते थे। कोई तस्वीरों की दुकान पर काम करने लगता, कोई किसी आश्रम में चौकीदार हो जाता, कोई मंदिर के बाहर मनहारी बेचता तो कोई कंठी माला लेकर राधे राधे बोलने के लिए यात्रियों से कहता। मेरी बुआ और फूफा को बनिस्बत अच्छा व्यवसाय मिल गया था।वह एक आश्रम में हेड रसोइया हो गये थे, उन्हें सब भंडारी जी पुकारते थे।यह बात हमारे गांव वालों और रिश्तेदारी को मालूम थी तो अधिकांश लोग सर्वानंद आश्रम में जाकर ठहरते थे।बुआ जी ने बताया था कि वहां अच्छा भोजन पकता है। पकोड़े,हलवा, कचोड़ी और पूड़ियां।तो मुझे भी पहला आकर्षण तो चकाचक भोजन का था। लिहाजा हम लोग भी वहीं रूके थे।
तब तक मैंने विष्णु खरे की वृंदावन की विधवाएं कविता नहीं पढ़ी थी। लेकिन वृंदावन की गलियां सुहागन नहीं दिखाई दे रही थी।माथे पर टीका लगा कर सिक्के की जबरदस्त मनुहार करते बाल गोपालों की हालते खस्ता पर एक अवसाद आता जाता था और कत्थई खोवों के पेड़ों की छोटी छोटी दुकानों पर बैठे गोल मटोल मालिकों को देखकर यह अवसाद गायब हो जाता था। वहां के बाजार में खूब रौनक थी।हम दोनों एक मंदिर से दूसरे मंदिर तक नंगे पैर ही जाते रहे।बाँके बिहारी में इतनी भीड़,हे भगवान। बिहारी जी, बिहारी जी का नाम लेते भक्त लोग ऊंचे हाथ कर करके लगभग बेसुधी में थे। महिला पुरुष का विभाजन वहां नाकाम था।अति दिव्यता और भव्यता का वह माहौल मुक्ता और संगियों के लिए भी कदाचित वही था।पर मुझे यह एक दृश्य था। एक अचरज था, सुहाना सा। और यह कोई बुरी बात नहीं मानी जाना चाहिए।
तब हम लोग ऐसे ही यथासंभव अधिक तम मंदिरों के दर्शन करके बाया आगरा वापस आ गए थे।इस बीच ऐसा नहीं है कि यह शहर हमारे लिए दुबई अमेरिका की तरह दूर हो गया हो। किसी न किसी बहाने यह स्मृति में , और बातों में आता रहता था। पर वहां जाने का ऐसा मन कभी नहीं रहा जैसा कुछ लोगों का होता है। हां, अगर जाने की कोई उचित वजह है तो मुझे रवीन्द्र जैन की ब्रज भूमि फिल्म याद आ जाती है और चल देता हूं उसी ओर। चारों धामों से निराला ब्रज धाम,कि दर्शन कर लो जी।
दूसरी यात्रा
मैं दूसरी बार दिल्ली से लौटने के क्रम में इन दोनों जगहों पर गया।बहन नेहा के विवाह के संबंध में दिल्ली जो गए थे।तब नेहा के पिता और हमारे चाचाजी और चाचीजी साथ में थे। मुक्ता जी तो थीं ही। यह एक बहती गंगा में हाथ धोने की बात की तरह यात्रा थी।इस बार जाने के दौरान यह बात ध्यान में रही कि अब मथुरा को हेमा मालिनी ने संवार दिया होगा,तो नयनाभिराम मिलेगा।२०१६ और १९९६ के बीच २० सालों का बड़ा अंतराल था।इस बार भी हम लोग सर्वानंद आश्रम में जाकर ठहरे। अनुपस्थित बुआ की बहुत याद आई। मनुहार करके भोजन कराने के लिए वह अब कहीं नहीं थी। और मोबाइल का ज़माना होते हुए भी यहां की खबर सुनाने के लिए पापाजी भी नहीं रहे थे।
थे, जो अक्सर कन्हैया के भजन गाते थे और जन्माष्टमी पर स्वरचित स्तुति गाते थे। उन्होंने तो एक व्यंग्य नुमा कविता भी लिखी थी।
ओ
द्वापर के कृष्ण ज़रा कलयुग की आकर होली देखो।
पापाजी का नाम घनश्याम था। और मेरा नाम भी कृष्ण का पर्याय है।इस तरह हमारा घर ही ब्रज भूमि हुई। लेकिन पिता रामावलंबी ज्यादा थे। फिर भी वह भी मथुरा वृन्दावन कई बार आए गए।हो सकता है वह भी साहित्यिक यात्राएं करते हों।गोया उनकी डायरियों में कभी ऐसी भक्ति भाव वाली बातें नहीं मिलीं। जीवन चर्या में वह भक्त ही थे।मुझे लगता है यह भाव दुर्लभ ही होता है। यह तो सबसे ज्यादा इस्कोन मंदिर में दिखाई देता है,या फिर गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा करते हुए लोगों में।इस बार हम चारों ने आटो रिक्शा से यह परिक्रमा की। और बारिश में भीगते हुए रास्ते के मंदिरों में धोक लगाई। फिर गोकुल भी गए। और कृष्ण जन्मभूमि के बाद विदिशा के लिए आधी रात को ट्रेन में बैठ गए। हां इस बीच मैंने वृंदावन की विधवाएं कविता पढ़ ली थी और एक दृष्टि पा ली थी कि कैसे धार्मिक स्थल पर असहाय लोगों को खुश रखने का जतन कर वो लोग दूसरे सार्थक जतन नहीं करते। हालांकि इस बार तो हम हरि आश्रम गए ही नहीं थे।
तीसरी यात्रा
आज लौट रहा हूं वृंदावन की तीसरी यात्रा करके।साथ में दोनों बेटियां हैं। इस बार हम नितांत पर्यटन भाव से गए थे। इससे ज्यादा नजदीक कोई स्थल नहीं था तो प्रतिष्ठा बेटी की नौकरी मिलने का जश्न मनाने के लिए तय हुआ कि चलो वृंदावन।संग में माँ भी थीं। और बहन कल्पनाऔर जीजाजी अशोक वर्मा भी थे।
पारिवारिक यात्रा का रोमांच भी था।
पहली सुबह बाँके बिहारी के मंदिर के लिए मुकर्रर की गई। जाते मार्ग में एक सलाह मिल रही थी, चश्मा मोबाइल जेब के अंदर करने की। चश्मा की जरूरत मुक्ता को ज्यादा रहती है तो उन्हें दिक्कत हो रही थी। फिर भी उन्होंने हटा लिया। मंदिर में वही अति दिव्यता और भव्यता। भीड़। राधे राधे। ठाकुर जी। ऊपर हाथ। दोनों बेटियों ने भी हाथ ऊपर किए और मुस्कराते हुए बोली राधे राधे।बहन कल्पना का ध्यान प्रसाद का डिब्बा सही जगह पहुंचाने पर था। मुक्ता का ध्यान सही जगह पर पहुंच कर ठाकुर जी की प्रतिमा से आंख मिलाने पर था और मम्मी तो बस अभिभूत थीं। और मेरा ध्यान कहां था।
चारों तरफ था। मेरा ध्यान तो ऊपर इतने सारे सुंदर फूलों की सजावट के साथ उस पुजारी की तरफ भी था जो प्रसाद के डिब्बे लेकर उसमें से एक दो पेड़ों को लेकर वापस भक्तों को देता जा रहा था। बाहर निकल कर एक रोमांचक घटना हुई । मुक्ता की आँखों से कोई काजल नहीं चुरा ले गया था।बल्कि कोई चश्मा ही ले गया था।यह एक नटखट कपि था। मजेदार दृश्य था औरों के लिए, लेकिन हम लोग घबरा गए थे। बंदर ने इतना भी नहीं सोचा कि हमारी चश्मेबद्दूर का क्या होगा। आख़िर एक दुकान दार ने बीस रुपए में हमारी बेगम का चश्मा वापस ला दिया।
दरअसल उसने एक फ्रूटी का पैकिट छत पर बैठे मंदिर की तरफ फेका, बंदर चाचू ने कैच किया और चश्मा छोड़ दिया था।
फिर हम लोगों ने एक दो मंदिरों के दर्शन और किए।राधा बल्लभ मंदिर,रंग जी का मंदिर फिर निधिवन। निधिवन में प्रवेश के समय अनेक किंवदंतियां आईं।कि रात में यहां जो भी रुकता है, सुबह तक जीवित नहीं रहता,।रात में कृष्ण जी,राधा जी का श्रृंगार करने के लिए आते हैं और पान खिलाते हैं। सुबह उनके बिस्तर में सलवटें मिलतीं हैं। और यह भी कि जो छोटे छोटे हरे भरे जो तुलसा या वृंदा के वृक्ष हैं वे सब रात को गोपियां बन जाते हैं। सभी आगंतुकों को इन बातों पर भरोसा होता है या नहीं, मगर यह पक्का है कि लोग इन पर आगे बहस नहीं करते। इसे मानने में कोई नुक्सान भी नहीं है।मगर प्रतिष्ठा ने जब यह बात सुनी तो वह जोर से हंसी,कि पापा ऐसी बात पर तो एक छोटा सा बच्चा भी यकीन नहीं करेगा। मैं क्या कहता सिवाय इसके कि यही मायथालाजी है इसकी बाल की खाल नहीं निकाली जाती,बस उसका संदेश और दर्शन देखा जाता है।मिथक अधूरे सत्य होते हैं। जितना उचित लगे, उतना सत्य उचित न लगे तो असत्य।
थोड़े आगे बड़े ही थे कि मम्मी हैरान थीं। उनके कंधे पर चढ़ कर एक बंदरिया चश्मा छीन ले गयी। फिर बहुत प्रयास किए, चश्मा वापस नहीं मिला। बेचारी मम्मी बिना चश्मे के ही दर्शन करने के लिए विवश थीं। एक भी दुकान नहीं दिखाई दी कि दूसरा चश्मा बनवा लेते।दिन रात व्यवसाय के आइडिया खोजती
छोटी बेटी ने कहा कि यहां चलित चश्मा शाप खुलना चाहिए।
इसके बाद हम लोग प्रसिद्ध प्रेम मंदिर पहुंचे।इस युग के हिसाब से ऐसा ही भव्य मंदिर ध्यानाकर्षण कर सकता है।भई क्या कहने। अशोक जीजाजी ने कहा कि हर चीज में परफेक्शन। सचमुच ही यहां प्रेम का उत्कर्ष का वातावरण है। मैं सोचता रहा कि इसी देश में राधा कृष्ण हैं जो प्रेम के प्रतिमान हैं और इसी देश में प्रेम इतना कुत्सित रूप लेकर भटक रहा है।पता नहीं कहां कमी रह गई।
।इस बार हम लोग सर्वानंद आश्रम में नहीं रूके। फूफाजी वहां थे ही नहीं। इंदौर में अपनी बेटी के घर गए थे। वैसे भी हम लोग एसी रूम में रूकना चाहते थे तो मनोरथ पूर्ण हुआ। अगले दिन हम लोग एक टैक्सी से जन्म भूमि मथुरा और अन्य जगहों के लिए निकल पड़े।
जन्म भूमि मथुरा का मंदिर और प्रासाद भव्य था, बेटियों को हम दोनों ने हर बात बताई।
यह भी कि इस मंदिर का भी मस्जिद के साथ विवाद चल रहा है।बहन कल्पना ने फिर कुछ खरीदारी की, और जीजाजी फिर रोकते रह गए। मुक्ता हंसती रहीं कि दीदी को तो हर दुकान से कुछ न कुछ खरीदना है बस। हालांकि मुक्ता भी अच्छी क्रेता हैं । इसके बाद गायत्री तपोभूमि गए ।जहां की साहित्य की दुकान बहुत अच्छी थी। यही वह स्थान है जहां पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य ने गायत्री साधना की थी। मुझे थोड़ा बहुत अगर किसी धार्मिक पंथ ने प्रभावित किया है तो वह है युग निर्माण योजना ।इनकी अखंड ज्योति के लेख मैंने बहुत पढ़े और गुने हैं। सचमुच का साहित्यिक लेखन है आचार्य श्रीराम शर्मा का। अच्छी हिन्दी, अच्छी अभिव्यक्ति और अच्छी संप्रेषणीयता। उनके मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक लेख ऐसे लगते थे जैसे कोई नजदीक बैठकर आपको प्यार से समझा रहा हो,और बीच बीच में पिता की तरह डाँट भी रहा हो। तो इस संस्थान को देखकर बहुत अच्छा लगा। इधर भी कल्पना बहन ने स्वादिष्ट लड्डू खरीद लिये,मेरे लिए यह मिठाई मिलने की गुंजाइश हुई।
हमारी गाड़ी के पहिए घूमते हुए पहुंचे गोकुल में। यहां किसी भी बात ने चकित नहीं किया। एक किशोर गाइड के रूप में साथ हुआ तो पूछने पर अच्छा लगा कि वह महाविद्यालय में पढ़ता है। एक प्रायमरी स्कूल देखा।जब साथी लोग मनिहारी खरीद रहे थे। मैंने स्कूल जाकर एक अनौपचारिक जायजा लिया। वहां के शिक्षकों से बात की। एक शिक्षक ने वाइपर से पोंछा लगाते समय बताया कि साहब यहां चपरासी नहीं है। दूसरे एक शिक्षक से बात की तो उसने बताया कि हम सहायक अध्यापक हैं। और हमारी वेतन ४५०००है। मैंने मुक्ता को बुलाया और एक सहायक अध्यापक को दूसरे सहायक अध्यापक से मिलवाया।उस स्कूल में फर्श पर जो टाइल्स लगे थे उन पर दानदाताओं के नाम लिखे थे।
शिक्षक ने बताया कि यहां वर्षों पहले रहे एक प्रधानाध्यापक ने यह काम कराया था, वह रासलीला भी कराते थे। तो एक मंच भी बना था। मैं सोचता रहा कि सरकारी स्कूल यहां भी वैसे ही हैं जैसे मध्यप्रदेश में।
यह गोकुल का शिक्षा केंद्र था, उससे क्या होता है।पूरा गोकुल ही दुर्दशा ग्रस्त लग रहा था। सरकारों की क्या क्या शिकायत करें।शिकायत थी तो बस मौसम से,इतना उमस।
इसके बाद हम लोग गोवर्धन पहुंचे और आटो रिक्शा में बैठ कर परिक्रमा की।बीच के मंदिरों में आस्था रखने के सिवाय कुछ नया कथ्य तथ्य नहीं था।आस्था ही वहां लोगों से पैदल लेट लेटकर परिक्रमा करा रही थी। फिर हम लोगों को बरषाना जाना था। पहाड़ी पर राधा जी का मंदिर। नीचे कीर्ति मंदिर जो कृपालु महाराज का प्रतिष्ठा मंदिर था। यहां भी सुंदर सुंदर सुहाना सुहाना सा लगा।
शाम को आकर रात रूके महाराना पैलेस होटल मथुरा में।रात में लाइट आती जाती रही।सुबह यमुना नदी के किनारे कदंब का वृक्ष देखने और द्वारकाधीश मंदिर के लिए निकले। मंदिर के अंदर ही वृद्ध महिलाओं ने भीख मांगी। बहुत दुख हुआ। फिर एक ब्राह्मण ने पता नहीं कब बहन कल्पना को पूजा पाठ कराने के लिए तैयार कर लिया।वह ब्राह्मण मजेदार निकला।बार बार नरेंद्र मोदी जी के कामों का जिक्र कर रहा था। आसपास के दुकानदार उसे उकसाते थे वह और ज्यादा आवेश में आकर बोलता था।उसके जाने के बाद दुकान दार ने बताया यह विपिन भैया हैं।दिन में एक यजमान को फंसाते हैं फिर भांग छानते हैं।
साहित्यिक श्रीमती मीना शर्मा जी की सलाह पर हम लोग होलीगेट पर ब्रजवासी की दुकान पर गए,दूध की मिठाई खाई। शंकर फूडस पर भोजन किया। और बारिश की फुहार में भीगते हुए आटो चालक की ब्रज भाषा में बतरस लेते हुए स्टेशन की तरफ हम लोग चलते रहे। इसीलिए सूर दास ने कहा होगा।
ऊधो,मोहि ब्रज बिसरत नाहीं।
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ब्रज श्रीवास्तव
(३१ जुलाई से २ अगस्त २०१९ तक की यात्रा)