कश्मीर को लेकर देश में हंगामा मचा है. हमें यह याद रखना चाहिए कि कश्मीर के तत्कालीन निर्विवादित नेता शेख़ अब्दुल्ला की वजह से कश्मीर का झुकाव भारत के प्रति हुआ. महाराजा हरि सिंह पाकिस्तान जाना सहर्ष स्वीकार कर सकते थे. लेकिन शेख़ अब्दुल्ला ने कहा कि नहीं, हम सभ्य राज्य हैं और हमें धर्मनिरपेक्ष भारत के साथ रहना चाहिए. इसके बाद नेहरू पाकिस्तान की शिकायत लेकर संयुक्तराष्ट्र संघ पहुंच गए. संयुक्त राष्ट्र ने कहा कि तीन महीने के भीतर जनमत संग्रह होना चाहिए. हालांकि, यह हमारे ख़िलाफ़ नहीं गया, क्योंकि यूएन के प्रस्ताव में पाकिस्तान को सीमा से अपने सैनिकों को हटाना था, उसने ऐसा नहीं किया. इसलिए जनमत संग्रह वाली बात हमारे ख़िलाफ़ नहीं गई. बेशक, तब से आज तक गंगा में बहुत पानी बह चुका है, भारत और पाकिस्तान के बीच कई युद्ध हो चुके हैं, शिमला समझौता हो चुका है. लेकिन अब कश्मीर में गंभीर परिस्थितियां उत्पन्न हुई हैं. 1983 तक समस्या इतनी गंभीर नहीं थी, क्योंकि तब शेख़ अब्दुल्ला को वहां नेतृत्व देने के लिए पुनर्स्थापित किया जा चुका था. 1982 में उनकी मौत हुई. कश्मीर में चुनाव हुए. उनके बेटे फ़ारूक़ अब्दुल्ला के नेतृत्व में नेशनल कांफ्रेंस ने चुनाव लड़ा. कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस में सहमति नहीं बनी और पहली बार कश्मीर में एक सत्तारूढ़ पार्टी, दिल्ली के विरोध के बाद भी फिर से सत्ता में आ गई. मैं समझता हूं कि कश्मीर में शांति स्थापित करने का यह सुनहरा मौका था, लेकिन दुर्भाग्य से फ़ारूक़ सरकार दल-बदल की वजह से अस्थिर कर दी गई और उनके बहनोई जीएम शाह को मुख्यमंत्री बना दिया गया. जीएम शाह न तो धर्मनिरपेक्ष थे और न ही वे शांति चाहते थे. कश्मीर में पहला सांप्रदायिक दंगा शाह के मुख्यमंत्रित्व काल में हुआ था.
मुद्दा यह है कि कश्मीर के लोगों को कैसे यह विश्वास दिलाया जाए कि हम आपकी स्वायत्तता का सम्मान करेंगे, आपकी पसंद का सम्मान करेंगे. एक बार जब कश्मीरियों ने 1983 में फ़ारूक़ अब्दुल्ला को अपना नेता चुना, तो केंद्र ने पिछले दरवाज़े से उस सरकार को अस्थिर कर दिया. आपने संदेश दिया कि जब तक दिल्ली की पसंद की सरकार नहीं होगी, तब तक आपको शासन करने की अनुमति नहीं दी जाएगी. ऐसा संदेश देश के किसी भी भाग के लिए ग़लत होगा, कश्मीर के लिए तो और अधिक ग़लत होगा. अब हालात ये हैं कि कश्मीर में जब एक छात्र नेता, जिसके पास बहुत ज्यादा समर्थन नहीं था, मारा गया तो उसके जनाज़े में तक़रीबन 5 लाख लोग शरीक हुए. मैं नहीं जानता कि महबूबा मुफ्ती क्या सोच रही हैं, लेकिन मुझे नहीं लगता कि भाजपा-पीडीपी सरकार अब वास्तव में इस मुद्दे को संभाल सकती है. आपको कश्मीरियों को ख़ुद की सरकार चुनने का मौका देना होगा. अब समय आ गया है कि आपको कश्मीर में 1953 से पहले की स्थिति बहाल करनी होगी, अगर आप कश्मीर की जनता को अपने साथ रखना चाहते हैं. धारा 370 के तहत हमने उन्हें जो भी गारंटी दी है, उसका हमें पूरा-पूरा पालन करना होगा, उसे तब तक मानना होगा, जब तक वे ख़ुद इसे ख़त्म करने की बात नहीं कहते.
अब यह काम कैसे किया जाए? कश्मीर में भाजपा-पीडीपी की बहुमत की सरकार है. यदि वाक़ई वे इस मसले को हल कर लेते हैं तो यह बहुत अच्छा है. अब समय आ गया है जब आप कश्मीर विधानसभा का चुनाव कांग्रेस और भाजपा की भागीदारी के बिना होने दें. इन दोनों पार्टियों को कश्मीर से बाहर रखना चाहिए. स्थानीय पार्टी चाहे, वह नेशनल कांफ्रेंस हो या पीडीपी या अन्य पार्टी या कोई कश्मीरी व्यक्ति, चुनाव लड़े और निर्वाचित हो. यहां तक कि अगर एक अलगाववादी पार्टी भी चुनाव जीतती है तो इसमें कोई समस्या नहीं है. डीएमके एक अलगाववादी पार्टी थी, जो अलग झंडा, अलग मद्रास, तमिलनाडु चाहती थी. एक बार जब वे चुन लिए गए तो भारतीय संविधान के अनुसार कार्य करने लगे. अब दशकों से वहां द्रमुक या अन्नाद्रमुक की सरकार बन रही है. कश्मीर में भी दो स्थानीय पार्टी की व्यवस्था चल सकती है. वे स्थानीय लोगों की आकांक्षाओं को पूरा करेंगे. मुझे लगता है कि समय आ गया है कि एक सर्वदलीय बैठक कर कश्मीर मुद्दे का हल तलाशा जाए. एक दो मंत्री पद के लिए आपको अपने क्षुद्र स्वार्थ दूर रखने होंगे. आदर्श रूप से भाजपा को मुफ्ती सरकार का बाहर से समर्थन करना चाहिए था. सरकार में भागीदारी कर उसने अच्छा नहीं किया है. उनका कहना है कि जम्मू के लोगों की भावनाओं को भी देखना है. लेकिन ये सब सत्ता के लिए बहानेबाज़ी है. सरकार या मंत्री पद का कोई मतलब नहीं है, देश महत्वपूर्ण है. क्या हम कश्मीर की ज़मीन चाहते हैं? ज़मीन सुरक्षित है क्योंकि वहां उसकी रक्षा के लिए सेना है. पाकिस्तान चाहे जितना भी शोर मचा ले, वो हमसे कश्मीर नहीं छीन सकता.
कश्मीरी लोगों का दिल जीतने के लिए हमें उनके मन में विश्वास पैदा करना होगा. संयोग से, कश्मीर का इस्लाम दुनिया के बाक़ी हिस्सों के इस्लाम से अलग सूफ़ी इस्लाम है. आतंकी ऐसा नहीं चाहते हैं, इसलिए चरार-ए-शरीफ़ को विस्फोट से उड़ा दिया. मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री को दलीय राजनीति से ऊपर उठकर एक कुशल राजनेता (स्टेट्समैन) की तरह सोचना चाहिए. ऐसी स्थिति पैदा करें कि कश्मीरी स्वेच्छा से भारत के साथ एकीकृत होने की चाहत दिखाएं.
मैं सरकार को चेतावनी देना चाहूंगा. विकास पैकेज, रोज़गार सृजन और उद्योग लगाने की बात हो रही है, ये सब जनता की बुद्धिमता का अपमान है. आज का युवा बेशक यह सब चाहता है, लेकिन अपने आत्मसम्मान की क़ीमत पर नहीं. उन्हें यहां महसूस होना चाहिए कि कश्मीर, श्रीनगर और जम्मू से शासित हो रहा है न कि दिल्ली से. जब तक हम ऐसी परिस्थितियों का निर्माण नहीं करते हैं, तब तक मुझे डर है कि कश्मीर में समस्या और बढ़ेगी, जैसा 1983 के बाद वहां आतंकवाद ने अपना सर उठाया था. सामान्य स्थिति बहाल होने से पहले तक आतंकवाद वहां एक बड़ी समस्या थी. अब, कश्मीर में नई पीढ़ी आ गई है. हमें एक बार फिर वही पुरानी कहानी नहीं दोहरानी चाहिए.
कश्मीर की सरकार दिल्ली से नहीं चलनी चाहिए
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