biharनया साल बिहार में राजनीतिक संभावनाओं को लेकर आया है. यहां जो हालात हैं उसमें नए राजनीतिक गठबंधन बनने के पूरे आसार नजर आ रहे हैं. खरमास खत्म होते ही इसके लक्षण दिखने शुरू हो जाएंगे. दअरसल संभावना हर दल देख रही है और उन संभावनाओं को जमीन पर उतारने के लिए परदे के पीछे कवायद काफी तेज है. कुछ नेता उहापोह में हैं तो कुछ ने मोटे तौर पर अपनी राय बना ली है. इंतजार सही समय आने को लेकर है. पूरा ताना-बाना 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव को लेकर है. वैसे तो सूबे में विधानसभा चुनाव 2020 में होने हैं, लेकिन एक चर्चा यह भी है कि नीतीश कुमार लोकसभा चुनाव के साथ ही बिहार विधानसभा का चुनाव भी करवा लें. इस चर्चा को लेकर भी सियासी दलों में काफी सरगर्मी है और सभी दलों की तैयारी भी लगती है इसी को ध्यान में रखकर की जा रही है.

इन दिनों सबसे ज्यादा चहल-पहल कांग्रेस में देखी जा रही है. देखा जाय तो कांग्रेस बिहार में दोहरी चुनौती का सामना कर रही है. कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि उसे खुद को टूटने से बचाना है. जदयू और भाजपा की ललचाई नजर कांग्रेसी विधायकों पर लगी हुई है. खासकर अप्रैल में होने वाले राज्यसभा चुनाव को लेकर एनडीए ऑपरेशन कांग्रेस में लगी हुई है और इसका पूरा आभास दिल्ली से लेकर पटना में बैठे कांग्रेसियों को है. इसलिए सारे विधायकों से लगातार वन टू वन बात की जा रही है और यह भरोसा दिलाया जा रहा है कि पार्टी बिहार में एक बड़ी ताकत के तौर पर उभर कर सामने आने वाली है.

यही वजह है कि कांग्रेस ने खरमास के बाद पूरे बिहार में सम्मेलन व रैली करने का कार्यक्रम तय किया है. इन सम्मेलनों में उन नेताओं को जोड़ने का प्लान है जो किसी न किसी कारण से दूसरे दलों से परेशान हैं. इनमें उन पुराने कांग्रेसियों को जोड़ा जाएगा जो किसी वजह से पार्टी से नाराज होकर दूसरे दलों में चले गए हैं या तटस्थ होकर रह गए हैं. सूत्र बताते हैं कि इनमें कुछ बड़े नेताओं को भी जोड़ने की बात हो रही है, जिनका एनडीए में सामंजस्य नहीं हो रहा है और जो क्षेत्र की आवश्यकता को देखते हुए सीधे लालू प्रसाद से नहीं जुड़ना चाहते हैं.

ऐसे नेताओं के लिए कांग्रेस एक बेहतर विकल्प बन कर उभरना चाह रही है. कांग्रेस  में दो तरह की सोच रखने वाले लोग हैं. एक बड़ा तबका चाहता है कि अब बिहार में लालू प्रसाद का साथ छोड़कर एक नए तीसरे मोर्चे को आजमाया जाए. इसमें कांग्रेस अपने साथ उपेंद्र कुशवाहा, जीतनराम मांझी, वामदल, पप्पू यादव और वैसे बड़े चेहरों को जोड़ना चाहती है जो किसी न किसी वजह से एनडीए या फिर राजद से नहीं जुड़ना चाहते हैं. कांग्रेस चाहती है कि एक मजबूत तीसरा मोर्चा बनाकर सभी चालीस सीटों पर भाग्य आजमाया जाए.

इन नेताओं का तर्क है कि लालू प्रसाद वैसे भी कांग्रेस को ज्यादा सीटें देने से रहे. इसके अलावा लालू प्रसाद से दूरी बनाकर कांग्रेस भ्रष्टाचार के खिलाफ भी एक संदेश देना चाहती है. इस खेमे की सोच है कि लालू और नीतीश कुमार से बिहार की जनता अब उब चुकी है और नए विकल्प की तलाश में है. अगर कांग्रेस सूबे की जनता को भरोसेमंद विकल्प दे पाई तो जरूर जनता साथ देगी. लेकिन कांग्रेस का दूसरा खेमा मानता है कि नरेंद्र मोदी और नीतीश कुुमार की चुनौती से एक साथ निपटने के लिए लालू प्रसाद का साथ लेना जरूरी है. अगर लालू के वोट बैंक में कांग्रेस के प्रस्तावित तीसरे मोर्चे के वोट बैंक को जोड़ दिया जाए तो नरेंद्र मोदी के रथ को बिहार में आसानी से रोका जा सकता है.

कांग्रेस का यह खेमा भी मानता है कि राजद के साथ सीटों का बंटवारा इतना आसाना काम नहीं है और इसमें बहुत सारे अगर-मगर हैं. लेकिन अगर इस काम को किसी भी तरह अमली जामा पहना दिया जाए तो फिर 2019 की लड़ाई का रंग ही कुछ और रहेगा. दूसरी तरफ लालू प्रसाद खुद भी इस दिशा में सक्रिय हो गए हैं कि माय समीकरण का दायरा बढ़ाना अब जरूरी हो गया है. पिछले दिनों उन्होंने खुले मंच से उपेंद्र कुशवाहा को अपने साथ आने का न्योता दिया था. लालू प्रसाद ने कहा था कि कुशवाहा समाज को ज्यादा से ज्यादा टिकट देने का भी हम वादा करते हैं. लालू चाहते हैं कि उपेंद्र कुशवाहा और जीतन राम मांझी को साथ लाकर एक बड़ी मोर्चाबंदी की जाए.

लालू का आकलन है कि इसके बाद कांग्रेस को अपनी शर्तों के आधार पर अपने खेमे में लाना काफी आसान हो जाएगा. इसलिए लालू प्रसाद अभी अपना पूरा जोर उपेंद्र कुशवाहा और जीतनराम मांझी पर लगा रहे हैं. लालू से तालमेल को लेकर उपेंद्र कुशवाहा अभी उहापोेह में हैं. हालांकि सार्वजनिक तौर पर श्री कुशवाहा कह रहे हैं कि कुशवाहा समाज को टिकट का लालच नहीं है और हमलोग मजबूती से एनडीए के साथ हैं. लेकिन जब लोकसभा का टिकट बंटेगा तब क्या होगा इसे लेकर पार्टी में बेचैनी है. उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी रालोसपा में भी इन चीजों पर दो तरह से सोचने वाले लोग हैं.

रालोसपा का एक खेमा मानता है कि लोकसभा चुनाव 2019 में मोदी को शिकस्त देना संभव नहीं दिख रहा है इसलिए जितनी सीटें मिले उसी में संतोष कर चुनाव लड़ने में भलाई है. लालू के साथ तालमेल कर अगर छह से सात सीटें भी मिलती है और एक भी सीट में जीत न मिले तो फिर वैसी सीटों का क्या फायदा? इसलिए होशयारी एनडीए के साथ रहने में ही है. अगर सब ठीक रहा तो पार्टी सुप्रीमो उपेंद्र कुशवाहा नई सरकार में कैबिनेट मंत्री भी हो सकते हैं. लेकिन रालोसपा का दूसरा खेमा मानता है कि सवाल केवल लोकसभा का नहीं है सवाल विधानसभा चुनावों का भी है. यह आंकलन कर लेेना अभी संभव नहीं है कि एनडीए बिहार की सभी सीटें जीत जाएगी.

लालू प्रसाद और उपेंद्र कुुशवाहा अगर एक साथ आते हैं तो एक बड़ी ताकत बनकर उभर सकते हैं. यादव, मुसलमान और कुशवाहा की गोलबंदी पूरे बिहार के चुनावी गणित को बदलकर रख देगी. रालोसपा का यह खेमा चाहता है कि लोकसभा के साथ ही साथ विधानसभा चुनावों में भी पार्टी को ज्यादा से ज्यादा सीटों पर भाग्य आजमाने का मौका मिले, ताकि पार्टी का विस्तार हो सके और नीतीश कुमार के एनडीए में आ जाने के बाद तो यह कदापि संभव नहीं है. रालोसपा के भरोसेमंद सूत्र बताते हैं कि इसी वजह से उपेंद्र कुशवाहा उहापोह की स्थिति में हैं.

एक रास्ता सुविधा का है तो एक संघर्ष का है. एक में भरोसा है तो दूसरे में आशंका, लेकिन अगर पार्टी का विस्तार करना है और खुद को नेतृत्वकर्ता बनाना है तो फिर जोखिम तो उठाना ही पड़ेगा. बताया जा रहा है कि उपेंद्र कुशवाहा अभी जल्दी में नहीं हैं और लोकसभा चुनाव के समय या फिर उसके बाद  कोई निर्णय लेंगे. लेकिन अगर विधानसभा के चुनाव साथ साथ हो गए तो फिर सारे गणित गड़बड़ा जाएंगे. बिहार की राजनीति को समझने वाले मानते हैं कि उपेंद्र कुशवाहा का कद तभी बड़ा होगा जब लोकसभा चुनाव से पहले वे कोई फैसला लें. लोकसभा चुनाव एनडीए के साथ और विधानसभा चुनाव लालू के साथ यह चलने वाला नहीं है.

जनता के बीच इस हाल में स्कोर करना बेहद ही मुश्किल होगा. इसलिए उपेंद्र कुशवाहा को यह तय करना होगा कि वह सुविधा की राजनीति करना चाहते हैं या फिर संघर्ष की. सुविधा की राजनीति में दो सीट लोकसभा में मिलना है और ज्यादा से ज्यादा 15 सीट विधानसभा के चुनावों में मिलने की संभावना है. अगर इतने में ही पार्टी चलानी है तो फिर एनडीए का दामन मजबूती से थामे रखने में ही भलाई है.

लेकिन अगर दिल में पार्टी को बड़ा करने का सपना है तो रास्ता संघर्ष का ही बचता है. इसी तरह की उहापोह से जीतनराम मांझी भी गुजर रहे हैं. उन्हें पूरी उम्मीद है कि नरेंद्र मोदी सरकार किसी न किसी राजभवन में उन्हें जरूर भेजेगी. इसके अलावा उनके पुत्र संतोष मांझी को गया से टिकट भी देगी. लेकिन अगर श्री मांझी का यह सपना टूट गया तो फिर कांग्रेस या फिर लालू प्रसाद किसी का भी साथ दे सकते हैं.

सूत्र बताते हैं कि भाजपा चाहती है कि श्री मांझी की इन शर्तों को तभी माना जाएगा जब उनकी पार्टी हम का विधिवत विलय भाजपा में कर दिया जाएगा. श्री मांझी अभी इस प्रस्ताव को लेकर असमंजस में हैं. लेकिन लगता है जल्द ही वह इस मसले पर अमित शाह से बात करने वाले हैं. कहा जाए तो बिहार में जनवरी के अंतिम सप्ताह से राजनीतिक पटाखे फूटने के पूरे आसार हैं और उम्मीद है इसकी गूंज दिल्ली तक सुनाई देगी.

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