kishan gunjबिहार की नई विधानसभा के लिए अब तक दो चरणों में 81 सीटों के लिए वोट डाले जा चुके हैं. हालांकि, तीन चरणों के मतदान के बाद सूबे की अगली सत्ता-राजनीति के बारे में कोई ठोस अनुमान लगाया जा सकेगा, पर अब तक के मतदान भी हवा के रुख का कुछ संकेत तो देते ही हैं. इस चुनाव में इतना तो तय है कि जो गंवाना है, महा-गठबंधन को ही गंवाना है.

पहले चरण की 49 सीटों में से 36 सीटें महा-गठबंधन के घटक दलों (राजद-जदयू-कांग्रेस) की हैं और शेष 13 सीटों पर एनडीए (भाजपा कह लें) काबिज है. सो, एनडीए अपनी मौजूदा ताकत से जो भी अधिक हासिल करेगा, वह महा-गठबंधन के हिस्से का होगा. मतदान के बाद की खबरों से ऐसा लगता है कि महा-गठबंधन की राजनीतिक हैसियत घटेगी और एनडीए कई क्षेत्रों में उसे बड़ी शिकस्त दे सकता है.

पहले चरण के मतदान से सूबे की चुनावी फिज़ां में एनडीए की बढ़त की संभावना ज्यादा हो गई है. लेकिन, यह बढ़त बनाए रखकर सत्ता-शीर्ष तक पहुंचने की एनडीए की राह बहुत आसान नहीं है.

निर्वाचन आयोग ने प्रथम चरण के मतदान में 6.15 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी को उपलब्धि के तौर पर लिया है, लेकिन यह उपलब्धि जैसा कुछ है, ऐसा नहीं लगता. पिछले डेढ़ वर्षों (संसदीय चुनाव के बाद) के दौरान राज्य के प्राय: सभी विधानसभा क्षेत्रों में मतदाताओं की संख्या में दस प्रतिशत से अधिक बढ़ोत्तरी हुई है. इस वास्तविकता के मद्देनज़र मतदान में 6.15 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी बहुत मायने नहीं रखती.

इसके बरअक्स, महिला मतदाताओं की भागीदारी बढ़ने को बड़ी राजनीतिक परिघटना के तौर पर लिया जा रहा है. चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार, प्रथम चरण के मतदान में कोई 60 प्रतिशत महिला मतदाताओं की भागीदारी रही, जबकि पुरुष मतदाता लगभग 54 प्रतिशत पर ही सिमट गए. मतदान के प्रति आधी आबादी का बढ़ता रुझान जनतांत्रिक प्रक्रिया और सूबे की सत्ता-राजनीति के लिए शुभ संकेत है.

प्रथम चरण का मतदान यह भी संकेत देता है कि आने वाले चरणों में युवा मतदाताओं की भागीदारी बढ़ेगी. प्रत्येक मतदान केंद्र पर युवा मतदाताओं की बड़ी उत्साही जमात दिखी. अगले चरणों में यह जमात ज़्यादा बड़ी और आक्रामक हो सकती है. अगले चरणों के मतदान अवकाश के साथ होने वाले हैं. पूजा अवकाश के तुरंत बाद तीसरे चरण का मतदान होगा और नवंबर के पहले सप्ताह में अंतिम दो चरणों के.

युवा मतदाताओं की भागीदारी सूबे की भावी राजनीति के लिए कई संकेत भी देती है. करियर को लेकर अत्यधिक संवेदनशील युवा मतदाताओं के बड़े-बड़े सपने कौन पूरे करेगा? यह यक्ष प्रश्न है, जिसका उत्तर बिहार की राजनीति को देना है. खुली आंखों के युवा सपने पूरे करने की ताकत या उन्हें ज़िंदा रखने की जादूगरी जिसके पास जितनी अधिक होगी, वही इस समुदाय के समर्थन की उम्मीद कर सकता है.

इसके साथ ही अल्पसंख्यक समाज के मतदाताओं, विशेषकर समुदाय की महिला मतदाताओं की मतदान में भागीदारी काफी उल्लेखनीय रही. बड़ी तादाद में मुस्लिम महिलाएं मतदान के लिए कतारों में लगी दिखीं. यह नजारा उन सभी इलाकों में था, जहां अल्पसंख्यक मतदाताओं की मौजूदगी है. इस समुदाय में चुनाव को लेकर अतिरिक्त सक्रियता दिखी है.

अतिरिक्त सक्रियता तो दलित एवं अति पिछड़ों में भी दिखी. मतदान की इस खासियत के राजनीतिक निहितार्थ हैं. इसे महा-गठबंधन के नेता अपने पक्ष में मानते हैं और एनडीए अपने पक्ष में.

युवाओं एवं अल्पसंख्यकों सहित कुछ सामाजिक समूहों की इस सक्रियता के क्या कारण हो सकते हैं अथवा वे किसके पक्ष में हैं, इसका खुलासा तो नवंबर की आठ तारीख (मतगणना के दिन) को होगा, लेकिन दावेदारी अभी से तेज हो गई है. एनडीए एवं महा-गठबंधन के नेता अपनी-अपनी राजनीति और सरकार की उपलब्धियों की चर्चा करते नहीं थकते.

आने वाले चरणों में लालू प्रसाद की राजनीतिक पूंजी माय की एकता ही दांव पर है. नवंबर के दोनों चरणों में माय (मुस्लिम-यादव) का भविष्य तय होना है. इन चरणों में माय पर पप्पू यादव और एआईएमआईएम के असदुद्दीन ओवैसी का हमला तय है.

ओवैसी पूर्णिया प्रमंडल के मुस्लिम बाहुल्य चार ज़िलों पूर्णिया, अररिया, कटिहार एवं किशनगंज से इस सूबे में अपनी राजनीति की शुरुआत कर रहे हैं. वह मुस्लिम समुदाय की बदहाली का मसला उठाकर ग़ैर भाजपाई दलों की धर्मनिरपेक्ष राजनीति को निशाने रख अपने लिए एक राजनीतिक ब्लॉक तैयार करने की कोशिश में हैं. ओवैसी की इस राजनीतिक पहल का सीधा असर लालू प्रसाद के माय पर पड़ना है.

एआईएमआईएम और ओवैसी को लालू प्रसाद के कमज़ोर होने पर ही ताकत मिल सकती है. वह महा-गठबंधन के वोट बैंक से अपनी झोली भर सकते हैं. इसी तरह पूर्णिया एवं सहरसा प्रमंडलों के क़रीब ढाई दर्जन विधानसभा क्षेत्रों में राजद के बर्खास्त सांसद एवं एनडीए के मित्र पप्पू यादव का असर माना जा रहा है.

पिछले कई महीनों से वह लालू प्रसाद और नीतीश कुमार को निशाने पर लेकर अपने प्रभाव वाले सामाजिक समूहों को गोलबंद करने में जुटे हैं तथा यादव राजनीति में लालू प्रसाद को री-प्लेस करने की तैयारी में हैं. एनडीए से उनका रिश्ता जगज़ाहिर है. माना जा रहा है कि पप्पू यादव की राजनीति माय को क्षत-विक्षत करने की है.
चुनावी पंडितों की आम धारणा है कि पप्पू यादव की जन अधिकार पार्टी जो भी वोट हासिल करेगी, वे महा-गठबंधन के ही होंगे.

समाजवादी धर्मनिरपेक्ष मोर्चा, जिसमें एक घटक पप्पू यादव की पार्टी भी है, इन प्रमंडलों से सटे इलाके में महा-गठबंधन को परेशान कर सकता है. इस मोर्चे में शामिल दलों ने राजद और जद (यू) के टिकट से वंचित नेताओं को उदारता के साथ उम्मीदवार बनाया है, जिसका लाभ भी इसे मिलता दिख रहा है. कई क्षेत्रों में ओवैसी, जअप एवं मोर्चे के अन्य दलों के प्रत्याशी संघर्ष को त्रिकोणीय बनाते दिख रहे हैं.

इसका असर कितना होता है, यह अभी देखना है. हालांकि, कुछ अपवादों को छोड़कर पहले दो चरणों में तीसरा मोर्चा या बागी प्रत्याशियों की हालत बहुत अच्छी नहीं दिखी. इस चुनाव में वामपंथी दलों ने भी अपना मोर्चा बनाया है, जिसमें भाकपा तो है ही, चुनावी इतिहास में पहली बार भाकपा (मा) एवं भाकपा (माले) भी एक मोर्चे में शामिल हैं. वाम एकता का असर पहले और दूसरे चरण में दिखा है.

समस्तीपुर, बेगूसराय, जमुई, नवादा, औरंगाबाद, गया एवं जहानाबाद आदि ज़िलों के क़रीब दो दर्जन विधानसभा क्षेत्रों में वाम मोर्चा के उम्मीदवारों ने महा-गठबंधन और एनडीए को संकट में डाला है. भोजपुर, नालंदा, सीवान, पश्चिम चंपारण, कटिहार, मधुबनी एवं दरभंगा की दर्जनों सीटों पर यह मोर्चा एनडीए और महा-गठबंधन के लिए परेशानी पैदा कर सकता है. चुनावी पंडितों के अनुसार, वाम मोर्चा की सफलता महा-गठबंधन की परेशानी का सबब बनेगी.

सूबे में सामाजिक गोलबंदी काफी तीखी हो गई है, सत्ता-राजनीति की गोलबंदी की तुलना में कुछ अधिक ही. राज्य की ऊंची जातियों के साथ-साथ अधिकांश ताकतवर (दबंग) पिछड़ी जातियां एनडीए के साथ हैं. इसके अलावा दलितों को भी एनडीए के साथ माना जाता रहा है.

महा-गठबंधन के साथ यादव, कुर्मी एवं मुसलमान हैं, लेकिन 32 प्रतिशत से अधिक अति पिछड़ी जातियां अपनी राजनीति निष्ठा ज़ाहिर नहीं कर रही थीं. अब मतदान के साथ कुछ बातें सा़फ होती जा रही हैं. महा-गठबंधन के साथ माय तो अटूट है ही, अति पिछड़ी जातियों के वोट भी उसे थोक भाव से मिलते दिख रहे हैं.

दलितों के लगभग पंद्रह प्रतिशत वोट बैंक में महा-गठबंधन बड़ा हिस्सा हासिल करता दिख रहा है. इसके अलावा कुशवाहा जैसी पिछड़ी जाति, जिसे गत संसदीय चुनाव के बाद से एनडीए का वोट बैंक माना जाता रहा है, में भी लालू-नीतीश की राजनीति फिर जा पहुंची है. अगले चरणों में मतदाताओं की मतदान शैली में कोई विशेष फर्क पड़ता दिख नहीं रहा है.

अगर कोई बदलाव न आया, तो एनडीए की परेशानी बढ़ सकती है. हालांकि, एनडीए नेतृत्व के साथ-साथ राज्य के चुनाव विशेषज्ञों के अनुसार, वास्तविकता वह नहीं है, जैसा दिख रहा है. बिहार बदलाव की दहलीज पर खड़ा है और यह अगले कुछ दिनों में सा़फ हो जाएगा.

देखना यह है कि अब तक की मतदान शैली से बारे में पटना तक आई खबरें सही हैं या फिर चुनावी पंडितों के उक्त निष्कर्ष. और, इसके लिए आठ नवंबर तक प्रतीक्षा करनी होगी.

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