aadiwasiआजादी के 67 साल बाद भी आदिवासियों को देश की मुख्य धारा के साथ जोड़ने में किसी भी राजनीतिक दल ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. संविधान रचयिताओं ने दलितों और आदिवासियों को भी लोकतांत्रिक प्रणाली में समुचित प्रतिनिधित्व मिले, उसके लिए सारे प्रावधान किए, लेकिन राजनीतिक दलों ने उन प्रावधानों को लागू करने में रुचि नहीं दिखाई. अनुसूचित जाति के लोगों को विधानसभा और लोकसभा चुनावों में आरक्षण के जरिए संसद  और विधानसभाओं तक पहुंचने का मौका मिला, लेकिन आदिवासियों को उस तरह नहीं मिल पाया. उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव नजदीक हैं. चुनाव के पहले ही आदिवासियों के प्रतिनिधित्व का मसला हल हो जाना चाहिए था, लेकिन वह यथावत है. केंद्र सरकार ने आदिवासियों के प्रतिनिधित्व की गारंटी करने वाले विधेयक को पारित कराने के बजाय राज्यसभा से वापस ले लिया है. यह मुद्दा उत्तर प्रदेश में गरमा रहा है.

प्रदेश में विधानसभा चुनाव का समय जैसे-जैसे नजदीक आ रहा है, इस मसले पर तगड़ा जन-विरोध सामने आ रहा है. कई ऐसे मसले भी सामने आ रहे हैं, जिन पर आम तौर पर लोगों का ध्यान नहीं जाता. ऐसा ही एक मसला है संसदीय और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति प्रतिनिधित्व पुनः समायोजन विधेयक (तीसरा)-2013 के वापस लिए जाने का. इसके खिलाफ उत्तर प्रदेश के वनक्षेत्रों और आदिवासी बहुल इलाकों में घोर विरोध हो रहा है और सामाजिक व राजनीतिक संगठन इस मसले को लेकर सड़क पर उतर रहे हैं. इस मसले पर ऑल इंडिया पीपुल्स फ्रंट (आईपीएफ) ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिख कर विधेयक लागू करने की मांग की है. विधेयक लागू नहीं होने पर आइपीएफ ने सर्वोच्च न्यायालय में अवमानना याचिका दाखिल करने की घोषणा की है और कहा है कि लाखों आदिवासियों के हस्ताक्षर के साथ गुहार-पत्र उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को भेजा जाएगा.

आईपीएफ के प्रदेश संगठन महासचिव दिनकर कपूर ने प्रधानमंत्री को लिखे पत्र के बारे में बताया कि केंद्र सरकार ने उत्तर प्रदेश के आदिवासी समाज का राजनीतिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए उच्चतम न्यायालय के आदेश के अनुपालन में बने संसदीय और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति प्रतिनिधित्व का पुनः समायोजन विधेयक (तीसरा)-2013 4 जुलाई 2014 को राज्यसभा से वापस लेकर आदिवासी समाज के साथ अन्याय किया है. यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में आदिवासी समाज को राजनीतिक प्रतिनिधित्व से वंचित कर उनके लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमला है. केंद्र सरकार की इस कार्रवाई के कारण उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनावों में आदिवासी जातियों के लिए विधानसभा में एक भी सीट आरक्षित नहीं हो पाएगी. प्रधानमंत्री को पत्र भेजकर मांग की गई है कि केंद्र सरकार इस मसले पर पुनरविचार करे और सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का सम्मान करते हुए उत्तर प्रदेश के आदिवासी समाज के लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा व उनका राजनीतिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए 18 जुलाई 2016 से शुरू हो रहे मानसून सत्र में इस विधेयक को संसद में प्रस्तुत करके उसे पारित कराए. इससे भारत निर्वाचन आयोग व परिसीमन आयोग की संस्तुतियों के अनुरूप उत्तर प्रदेश विधानसभा की दुद्धी व ओबरा विधानसभा सीटें आदिवासी समाज के लिए आरक्षित हो सकेंगी. प्रधानमंत्री से यह भी मांग की गई है कि कोल समेत सभी आदिवासी जातियों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया जाए ताकि लोकसभा में भी उत्तर प्रदेश के आदिवासी समाज का राजनीतिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो सके.

उल्लेखनीय है कि राबर्ट्सगंज संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व भारतीय जनता पार्टी के आदिवासी मूल के सांसद करते हैं. इसके बावजूद भाजपा ने सत्ता में आते ही संसदीय और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति प्रतिनिधित्व का पुनः समायोजन विधेयक (तीसरा)-2013 वापस ले लिया. उत्तर प्रदेश में बड़ी संख्या में गोंड, खरवार, पनिका, भुइंया, चेरो, बैगा, अगरिया, कोरंवा, थारू, बोक्सा, राजी, जौनसारी, भोटिया, परहिया, सहरिया, पठारी जैसी अनुसूचित जनजातियां बसती हैं. 2003 में इनमें से कई जातियों को केंद्र सरकार ने अनुसूचित जनजाति में सम्मिलित किया था, जो 2001 की जनगणना में अनुसूचित जाति की श्रेणी में थीं. यही वजह थी कि लोकसभा व विधानसभा की सीटों के सम्बन्ध में 2008 में सम्पन्न हुए राष्ट्रीय परिसीमन में इन जातियों के लिए लोकसभा व विधानसभा में सीटें आरक्षित नहीं की गईं और लाखों की आबादी वाला आदिवासी समाज राजनीतिक प्रतिनिधित्व से वंचित रह गया. इनका राजनीतिक प्रतिनिधित्व हासिल करने के लिए आइपीएफ से जुड़ी आदिवासी-वनवासी महासभा समेत तमाम संगठनों ने सर्वोच्च न्यायालय व इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिकाएं दायर की थीं. ऐसी ही एक याचिका पर उच्चतम न्यायालय ने इन जातियों के संसद व विधानसभा में राजनीतिक प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए केंद्र सरकार और राष्ट्रीय चुनाव आयोग को जरूरी कार्रवाई करने का आदेश दिया था. इस आदेश के अनुक्रम में केंद्र सरकार ने तीन बार अध्यादेश पेश किया. बाद में इसे 14 फरवरी 2013 को राज्यसभा में प्रस्तुत किया गया और बहस के बाद संसद की स्थायी समिति को भेज दिया गया. स्थायी समिति ने इस बिल को संसद से पास कराने की संस्तुति की थी. इस अध्यादेश एवं बिल के आलोक में निर्वाचन आयोग और राष्ट्रीय परिसीमन आयोग ने आदिवासी बहुल सोनभद्र के दुद्धी, ओबरा और रॉबर्ट्सगंज में जनसुनवाई आयोजित की. इसके बाद चुनाव आयोग और परिसीमन आयोग ने दुद्धी विधानसभा सीट को अनुसूचित जाति और ओबरा विधानसभा सीट को अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित करने की सिफारिश की थी.

सोनभद्र, मिर्जापुर, चंदौली जनपद में लाखों की संख्या में निवास करने वाली कोल जाति समेत धांगर (उरांव), धरिकार और गोंड, खरवार, चेरों आदि आदिवासी जातियों को आज तक आदिवासी का दर्जा नहीं मिला है. नतीजतन रॉबर्ट्सगंज (अनुसूचित जाति) संसदीय सीट पर आदिवासी जातियों की बहुलता के बावजूद यह सीट अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित नहीं है. यदि सरकार इन जातियों को अनुसूचित जनजाति की श्रेणी दे देती है तो प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में भी यूपी के आदिवासी समाज का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो जाएगा.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here