अक्सर खयाल आता है कि आज अगर एनडीटीवी और वायर जैसे वेबसाइट्स नहीं होते या कुछ चुनिंदा लोगों के ब्लॉग नहीं होते तो समां कैसा होता। देश की रचना कैसी बन पड़ी होती। प्रचार प्रसार का जमाना है। मीडिया का जमाना है। ‘मन की बात’ का जमाना है। मन की बात कई लोग करते हैं। हालात और मुद्दों के विश्लेषण भी।
असल यह है कि किसकी सम्प्रेषणीयता प्रभावी है।गांधी का अंतिम आदमी या अंतिम समाज तो आज भी अपने ही हाल पर जिंदा है। कौन उसकी परवाह कर रहा है। यह प्रश्न है। लेकिन भूलना नहीं चाहिए कि वह अंतिम आदमी और अंतिम समाज भी इस देश का वोटर है। वह देश बनाता है। हम उसे नहीं बना पाते। इस बात की अंतर्कथा को कभी किसी ने समझने का प्रयास किया होता तो सत्ता से समाज के अग्रिम पायदान तक का चेहरा मोहरा कुछ और होता और देश कंगाली बदहाली से कहीं ऊपर उठा होता। आज भी बुध्दि जीवियों और पत्रकारों के विश्लेषणों में उस तबके की चिंताएं नजर नहीं आतीं।
वरिष्ठ पत्रकार संतोष भारतीय ने अपने शो के साथ किसानों की वाजिब चिंताओं को उठाना शुरू किया है। मैं किसानों के या उनके आंदोलन के मुद्दों की बात नहीं कर रहा। किसानों के जीवन और उनकी सामाजिक – आर्थिक दशा जनित चिंताओं की बात कर रहा हूं। विश्लेषण कई तरह से प्रस्तुत किया जाता है। लेकिन महत्वपूर्ण ‘सम्प्रेषण’ होता है। संतोष भारतीय को आप सुनेंगे तो एक नये तरह का उद्बोधन आपको मिलेगा। एकदम स्पष्ट। सटीक या कहिए दो टूक। मैं सोच रहा था कि ये वीडियो अंतिम आदमी या अंतिम समाज तक क्यों नहीं पहुंचाया जा सकता।
आज ऐसे ही सरल भाषा में सम्प्रेषणीयता की जरूरत है। उलझाव दिमाग को टकराता है। पुण्य प्रसून वाजपेयी अपने तईं काफी मेहनत करते हैं। चाहते भी हैं कि उनके द्वारा दिए आंकड़ों को लोग समझें। लेकिन प्रस्तुतिकरण में इतना उलझाव है कि मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि जितने लोग उनको सुनने बैठते हैं उनमें कोई एकाध ही जांबाज होगा जो आखिर तक उसे सुनता रहे। यहां मैं संतोष भारतीय और वाजपेयी की तुलना नहीं कर रहा या करना चाहता पर यह कहना चाहता हूं कि समय को देख कर यदि आप अपनी बात नहीं कर सकते तो फिर क्या मायने हैं उसके। सबसे महत्वपूर्ण है आज स्पाट रिपोर्टिंग और उसके आधार पर किये जाने वाले विश्लेषण। भाषा सिंह स्पाट रिपोर्टिंग के मामले में शायद सबसे अव्वल हैं पर उनका प्रस्तुतिकरण थोड़ा लचर है। बावजूद इसके उनके प्रयासों की सराहना करनी होगी।
किसानों का इतना बड़ा और आजादी के बाद का हर मायने में सबसे सुलझा हुआ आंदोलन आज देश में हो रहा है। फिर भी अभी तक यह पूरे देश को आंदोलित नहीं कर पाया है। देश के सीमित वर्ग तक ही इसकी हलचल देखी जा सकती है। इसका कारण है गोदी मीडिया। आज हमारे पास गोदी मीडिया का कोई तोड़ नहीं है। ‘सत्य हिंदी’ की तारीफ कई लोग करते हैं। उनमें मार्कण्डेय काटजू जैसे हिलते दिमाग के लोग सबसे आगे हैं। सही है ‘सत्य हिंदी’ की चर्चाएं आप कहिए कि स्वांत सुखाय भी होती हैं और सर्दियों में मूंगफली का स्वाद चखते जैसे आनंद की भी। आप सुनिए आनंद लीजिए चाहे तो कहिए ज्ञानवर्धन हो रहा है।
लेकिन अंतिम आदमी से, और अंतिम आदमी, का कोई सरोकार उसमें कहीं नहीं है। मध्य वर्ग का वह तबका जो मोदी प्रशंसक नहीं है उसी में इसका प्रचार प्रसार है। इससे ऊपर जरा और बौद्धिक उसमें ‘वायर’ और ‘न्यूज क्लिक’ आदि की पहुंच है। तो क्या मान लिया जाए कि किसी को इस बात की चिंता नहीं है कि मोदी के वोटर को कैसे प्रभावित करके, उसे उसके जर्जर और प्रताड़ित होते जीवन के प्रति कैसे आगाह करके इस लायक बनाया जाए कि वह स्वत: अपने विवेक का उपयोग करना सीख ले। क्या हमारी चिंता में, यह चिंता भी समाहित है या हो सकती है।
क्या किसी ने अपने विश्लेषणों में इस बात को उजागर किया है कि सेना और पुलिस के जवान भी किसानी से निकले हैं और यदि उनमें यह भाव जगा उठा कि सरकार तो किसान विरोधी है तो उसके परिणाम क्या होंगे। संतोष भारतीय ने अपने ब्लॉग में इस ओर प्रमुखता से इशारा किया है। इसीलिए मैंने कहा कि उनके वीडियो गांव देहात तक सुनाए जाने चाहिए। वे सरल और स्पष्ट हैं। पर एक विनती के साथ यदि संतोष भारतीय अन्यथा न लें तो। वह यह कि किसानों की बात टाई सूट और फ्रैंचकट दाढ़ी में कुछ किसी तिनके की भांति अखरती है।
रवीश कुमार अब कभी टाई में दिखाई नहीं देते। सीधा सरल व्यक्ति अपने पहनावे से पहचाना जाता है। आरफा अपने शो में कभी वो कपड़े नहीं पहनतीं जो शो के बाहर या ट्विटर या इंस्टाग्राम में पोज़ देते हुए पहनती होंगी या पहनती हैं । परिधान का क्या महत्व है दिग्गज लोग जानते हैं। नीलू व्यास भी समझती होंगी ही शायद !
बहरहाल, आज सबसे बड़ा सवाल है समाज का सत्य जो इस सत्ता से प्रभावित हो रहा है उसे गांव देहात तक कैसे पहुंचाया जाए। मुझे अंतिम आदमी की नजर समझा जाए तो बेहतर है क्योंकि मैं दिल्ली से हजार किमी दूर लगभग ग्रामीण मानसिकता से ओतप्रोत बसे स्थान पर हूं जिसे गांधी जिला कहा जाता है। अपनी चिंता मैंने इसीलिए व्यक्त की। ध्यान रखिए कि गांधी के द. अफ्रीका से आने से पहले कांग्रेस अयाश कांग्रेस ही ज्यादा समझी जाती थी। गांधी के दखल ने सारा समां ही बदल दिया। बाकी आप सब विद्वान हैं।
बसंत पांडे