वित्त वर्ष 2018-19 के लिए बिहार का बजट विधानमंडल के दोनों सदनों में पेश कर दिया गया है. एक अप्रैल से आरंभ हो रहे वित्त वर्ष में सूबे की बेहतरी के लिए नीतीश कुमार की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की सरकार एक लाख 76 हजार 990 करोड़ रुपए खर्च करेगी. नए बजट का आकार वित्त वर्ष 2017-18 के बजट से करीब दस प्रतिशत बड़ा है. पिछला (अर्थात चालू वित्त वर्ष का) बजट एक लाख 60 हजार 85 करोड़ रुपए का था. हालांकि इसमें संदेह है कि बजट के आकार में इस बढ़ोतरी का सूबे के विकासमूलक कामकाज पर कोई असर दिखेगा. इसका सबसे बड़ा कारण राज्य की अपनी मुद्रा-स्फीति की दर है, जो 2.1 फीसदी है.
इससे बजट प्रभावित होगा. राज्य में सातवें वेतनमान को लागू करना और सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के आलोक में संविदाकर्मियों के वेतन में उपयुक्त सुधार करना भी सरकार के लिए बड़ी चुनौती है. ऐसे में समझा जा सकता है कि बजट के आकार में यह बढ़ोतरी अंततः किस स्तर पर जाकर टिकेगी. इनके अलावा कई अन्य व्यावहारिक कारण भी हैं, जिससे यह कहना कठिन है कि बजट का यह आकार वित्तीय वर्ष के अंत तक बना रहेगा. बजट प्रावधानों में धन के प्रवाह के अनुरूप तो बदलाव होता ही है, बजट आवंटनों के मार्च में जारी होने के कारण भी रकम पड़ी रह जाती है, या भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती है.
महागठबंधन की सरकार की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए राजग सरकार के इस बजट में नीतीश कुमार के सात निश्चय को मानव संसाधन के साथ-साथ आधारभूत संरचना के विकास की बुनियाद के तौर पर स्वीकार किया गया है. नीतीश सरकार ने आने वाले संसदीय चुनावों के कारण शिक्षा, स्वास्थ्य, गांव और किसान पर फोकस किया है. बजट में शिक्षा के लिए सबसे अधिक 32125.63 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है. इसमें 18 हजार करोड़ केवल योजना मद में है. सड़क के मद में बिहार सरकार अगले वित्त वर्ष में 17397.97 करोड़ व ऊर्जा के मद में 10257.66 करोड़ रुपए खर्च करेगी.
इस वर्ष दिसम्बर तक विद्युत से वंचित सभी घरों में बिजली पहुंचाने का लक्ष्य तय किया गया है. सूबे के किसी भी जिला मुख्यालय से राजधानी पटना तक पहुंचने में सात घंटे से अधिक का समय नहीं लगता, लेकिन देहाती क्षेत्रों से जिला मुख्यालयों तक पहुंचने में पांच-छह घंटे तक का समय लग जाता है. राज्य सरकार ने इस हालात में सुधार के लिए ग्रामीण सड़क संरचना पर फोकस किया है. ऐसा विश्वास दिलाया जा रहा है कि बजट प्रावधानों का बड़ा हिस्सा इस काम के लिए खर्च किया जाएगा. इसके साथ-साथ गांवों के लिए 15471.04 करोड़, स्वास्थ्य के मद में 7793.81 करोड़ और कृषि के लिए 2749.77 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है.
बीमारी कुछ और इलाज कुछ और
राज्य सरकार के बजट दस्तावेज में सूबे में सब कुछ हरा-हरा ही दिखता है या ऐसा दिखाने की स्वाभाविक चेष्टा की गई है, लेकिन वास्तविकता यह नहीं है. शिक्षा सेक्टर की योजना मद में बड़ी रकम का प्रावधान किया गया है, लेकिन बजट दस्तावेज ही बताते हैं कि अधिकांश रकम का व्यय भवनों के निर्माण पर ही होना है. स्कूली या उच्च शिक्षा के गुणात्मक विकास या शिक्षा को स्तरीय (क्वालिटी एजुकेशन) बनाने के लिए कोई योजना राज्य सरकार के पास नहीं है. कम से कम बजट या सूबे के आर्थिक सर्वेक्षण से तो ऐसा ही लगता है. उच्च शिक्षा केंद्रों (कॉलेज-यूनिवर्सिटी) में विज्ञान के छात्रों के लिए प्रयोगशालाएं गत कई दशकों से बंद जैसी स्थिति में हैं.
स्कूलों तक में शिक्षक नहीं हैं, जो हैं वे कतई सक्षम नहीं हैं. स्कूली छात्रों को शैक्षिक वर्ष के अंत में किताबें उपलब्ध करवाई जाती हैं. हालात की वास्तविकता को स्वीकार करने के लिए सूबे के भाग्यविधाता कतई तैयार नहीं हैं. यह समझा जा सकता है कि विकसित बिहार में कैसी भावी पीढ़ी तैयार की जा रही है. इस शैक्षणिक माहौल में हाईस्कूल और इंटर के बाद बेहतर शिक्षा की उम्मीद में लाखों छात्र बिहार से बाहर चले जाते हैं. स्वास्थ्य सेक्टर को बजट में तरज़ीह देने की बात खूब जोर-शोर से कही जा रही है. लेकिन इस दावे को गंभीरता से देखने की जरूरत नहीं है. नए बजट में सरकार ने इस सेक्टर के लिए 7793.81 करोड़ की व्यवस्था की है.
यह रकम पिछले बजट की तुलना में कोई सात सौ करोड़ रुपए अधिक है. लेकिन चालू बजट में स्वास्थ्य सेक्टर के लिए बजट का कोई करीब पांच प्रतिशत हिस्सा दिया गया था. यह भी बताया गया है कि शिक्षा की तरह स्वास्थ्य क्षेत्र की योजना मद में काफी खर्च होगा. लेकिन हकीकत यही है कि बिहार के अस्पतालों को सुधारे बगैर यहां किसी योजना का लाभ सूबे के उन लाखों गरीबों को नहीं मिल सकता है, जो जीवन रक्षा (स्वास्थ्य सुविधा) के लिए प्रतिमाह लखनऊ, दिल्ली, मुम्बई और दक्षिण भारत के बड़े शहरों की ओर भागने को विवश हैं.
यह कटु यथार्थ है कि बिहार में वे लोग ही इलाज करवाते हैं, जो बड़े नगरों का खर्च वहन करने में अक्षम हैं. शिक्षा और स्वास्थ्य के इस दुश्चक्र को तोड़ने में बिहार की सरकारों की विफलता निरन्तर बढ़ती जा रही है, पर उन्हें इसका मलाल नहीं है. सरकार अपने दस्तावेज में यह तो बताती है कि कितने लोग इलाज के लिए सरकारी अस्पतालों तक पहुंचे, पर यह नहीं बताती कि कितनों का इलाज हुआ या कितने बीच में इलाज छोड़कर चले गए या सरकारी स्वास्थ्य सेवा में मरीज़ों की रिकवरी दर क्या है.
किसानों को कुछ नहीं मिला
इस बजट दस्तावेज में कृषि रोड-मैप की खूब चर्चा की गई है. विधानसभा में वित्तीय वर्ष 2017-18 के लिए पेश आर्थिक सर्वे में भी उसकी पर्याप्त चर्चा हुई. राज्यपाल के अभिभाषण और मुख्यमंत्री के भाषण में भी कृषि और किसानों का मुद्दा प्रमुखता से शामिल था. बजट में कृषि सेक्टर के लिए 2749.78 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है, जो कुल बजट का 1.55 फीसदी है.
बिहार में कृषि रोड-मैप की व्यवस्था कई वर्षों से लागू है. तीसरे कृषि रोड मैप का आगाज़ राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने पिछले नवम्बर में ही किया है, जो 2022 तक चलेगा. लेकिन विडम्बना यह है कि कृषि रोड-मैप के दौर में ही कृषि की विकास दर ऋणात्मक रही है. विधान मंडल के सदनों में पेश वित्तीय वर्ष 2017-18 के आर्थिक सर्वे में कहा गया है कि वित्तीय वर्ष 2011-12 से 2015-16 के बीच खेती, वानिकी व मत्स्याखेट (फिशरीज) की विकास दर ऋणात्मक रही है. इस दौरान इन क्षेत्रों की समेकित विकास दर -1.7 रही. यहां ध्यान देने की बात है कि ये समय कृषि रोड-मैप के थे और इस दौरान बिहार को देश की दूसरी हरित क्रांति की भूमि कहा जाने लगा था.
यह भी गौरतलब है कि ये सभी सेक्टर कृषि रोड-मैप के अंग हैं. यदि फसलों के उत्पादन की बात करें तो इन पांच वर्षों में इसकी स्थिति और भी दयनीय रही. इस दौरान फसलों की विकास दर सामान्य से भी कम रही. हालांकि सरकार ने अपने दस्तावेज में कहा है कि 2016-17 में फसल के उत्पादन की विकास दर 8.2 थी, लेकिन गत पांच साल की समेकित उपलब्धि चिंता ही पैदा करती है. गांव व गरीबों से जुड़े कुछ अन्य क्षेत्र हैं, जो सरकार की गंभीरता का पैमाना बन सकते हैं. किसानों के पैदावार का उपयुक्त मूल्य दिलाना किसी भी सरकार की जिम्मेदारी होती है, लेकिन इस फ्रंट पर भी बिहार में स्थिति संतोषजनक नहीं है.
इस साल धान की खरीदारी घोषित लक्ष्य से काफी कम रही है. खेतिहर व अकुशल दिहाड़ी मजदूरों के पलायन पर अंकुश लगा कर उन्हें रोजगार उपलब्ध कराने के ख्याल से ही महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) लागू किया गया. लेकिन बिहार में यह योजना अन्य कार्यक्रमों की तरह ही भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई. हाल यह है कि जिन सोलह लाख मजदूरों को जॉब कार्ड जारी किए गए हैं, उनमें से मात्र 0-6 लोगों को ही सौ दिन काम दिया गया. इंदिरा आवास योजना का नाम बदल कर इसे प्रधानमंत्री आवास योजना कर दिया गया, लेकिन नाम बदलने के बाद भी बिहार में इसकी दशा दयनीय ही रही.
राज्य सरकार ने पिछले दो वित्तीय वर्षों में इस योजना के तहत पौने बारह लाख आवास आवंटन का लक्ष्य रखा था, लेकिन बाद में इसमें बड़ी कटौती कर दी गई और इसका कारण यह बताया गया कि पात्र परिवारों का अभाव है. रोचक तथ्य यह है कि सबसे कम आवंटन दलित समुदाय के लिए प्रस्तावित आवास योजना में किया गया, क्योंकि सरकार को सूबे के कई जिलो में गृह-विहिन दलित परिवार मिले ही नहीं. यह तथ्य बताने के लिए काफी है कि बिहार में सरकार के दावे जमीनी स्तर की हकीकत से कितने दूर हैं.
सिर्फ नारा ही रहा औद्यौगिक विकास
राज्य में इन दिनों औद्योगिक विकास का खूब शोर मचा है. लेकिन इस सेक्टर में सरकार की चिंता बजट दस्तावेज ही जाहिर कर देते हैं. वित्तीय वर्ष 2018-19 में उद्योग क्षेत्र के लिए 622.04 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है, जो कुल बजट का 0.35 फीसदी है. इस गंभीरता से सूबे में उद्योग का कितना और कैसा विकास हो सकता है यह सहज ही समझा जा सकता है. हालांकि सरकार का दावा है कि चालू कैलेंडर वर्ष के पहले महीने तक सूबे में निवेश के 716 प्रस्ताव मिले हैं, जो 8848.86 करोड़ रुपए के हैं. सरकार का यह भी दावा है कि इनमें 35 इकाइयां कार्यरत हैं. सरकार ने यह स्वीकार किया है कि बियाडा की कुल 2451 इकाइयों में से 1589 ही कार्यरत हैं.
लेकिन सरकार का जो भी दावा हो, वास्तविकता यही है कि उद्योग सहित द्वितीयक क्षेत्र की विकास दर कतई संतोषजनक नहीं है. औद्योगिक विकास को लेकर सूबे की राजग सरकार की घोषित प्राथमिकता के बावजूद उद्योग की यह दुर्गति राजनीतिक नेतृत्व की इच्छा-शक्ति के अभाव को व्यक्त करते हैं. कुल मिलाकर बिहार का यह बजट रस्म अदायगी से अधिक कुछ नहीं है. आर्थिक सर्वेक्षण व योजना और वित्त विभागों के व्यय सम्बन्धी दस्तावेज को सामने रख कर जब आप बजट के प्रावधानों पर विचार करेंगे तो निराशा और बढ़ जाएगी. यह बजट आंकड़ों का भ्रमजाल है, जिसे गांव व गरीबों के नाम पर तैयार किया गया है.