परिचय
अखरोट के कई प्रकार होते हैं. 1. जंगली अखरोट तथा 2. कागजी अखरोट (कृषिजन्य).
- जंगली अखरोट 30-40 मिटर तक उचें, अपने आप उगने वाले तथा इसके फल का छिलका मोटा होता हैं.
- कृषिजन्य अखरोट 15-25 मिटर तक उंचा होता हैं और इसके फला का छिलका पतला होता हैं. इसे कागजी अखरोट कहते हैं. इसके मींगी श्वेत तथा स्वादिष्ट होती है. श्वेत इसकी लकड़ी से बन्दूकों के कुन्दे बनाए जाते हैं.
यह प्राय पर्वतीय प्रदेशों में हिमालय में कश्मीर से मणिपुर तक अफगानिस्तान, तिब्बत , चीन , पाकिस्तान , नेपाल , भूटान, तुर्की तथा उत्तराखण्ड से आसाम तक 1000-3000 मी की उंचाई तक प्राप्त होता है. अखरोट मूलत: मध्य एशिया में इरान तथा अफगानिस्तान का निवासी पौधा है.
बाह्यस्वरूप
इसका वृक्ष उंचा होता है तथा छाल धूसर एंव लम्बाई में फटी होती है. इसकी लकड़ी बहुत मजबूत, सुन्दर तथा धारीदार होती है. इसके पत्ते 15 सेमी लम्बे नुकीले, कंगूरेदार, छूने में कड़े तथा मोटे मालूम होते हैं. इसके पत्र शीतकाल में झड़ जाते हैं और मेघ से चैत्र माह तक नवीन पत्र निकल आते हैं. इसके पुष्प चैत्र या बैसाख माह में लगते हैं. ये श्वेत रंग के छोटे. शाखाओं के अग्र-भाग पर गुच्छों में लगे होते हैं. एक ही गुच्छों में पुंकेसर और स्त्रीकेसरयुक्त दोनों प्रकार के पुष्प होते हैं.
लगभग 30-40 वर्ष बाद अखरोट के पेड़ों पर फल लगते हैं. ये फल दो कोश युक्त बहेड़े या मदनफल के समान गोल आकार के होते हैं. इसके फल की गिरी द्विकोष्ठीय रूपरेखा में मस्तिष्क जैसी पृष्ठ तल पर दो खण्डों में विभक्त होती है तथा गिरी में काफी तैल पाया जाटा है. फलो के अन्दर सिकुड़नदार, टेढ़ा-मेढ़ा, धूसर-श्वेत रंग का बीज होता है. इसका पुष्पकाल एवं फसकाल फरवरी से अगस्त तक होता है.
स्थानभेद से अखरोट के कई प्रकार होते हैं. जिसमें सबसे अच्छा कागजी अखरोट होता है, जो बड़ा होता है तथा इसकी मींगी श्वेत व स्वादिष्ट होती है. जब फल कच्चे तथा कोमल अवस्था में होते है तब स्थानीय लोग इसका आचार बनाते है, पकने पर फलो की गिरी को मेवा के रूप में प्रयोग किया जाता है. इस वृक्ष की छाल रंगने और औषधि के रूप में प्रयुक्त की जाती है. बाल रंगने के लिए हरे छिलको का प्रयोग किया जाता है.
आयुर्वेदीय गुण-कर्म एवं प्रभाव
– अखरोट वात-शामक, कफ-पित्तवर्धक, मेध्य, दीपन, स्नेहन, अनुलोमक, कफ-निसारक, बलकारक, वृष्य एवं बृंहण होता है. इसका लेप वर्ण्य, कुष्ठघ्न, शोथहर एवं वेदना स्थापक होता है. गिरी और इससे प्राप्त तैल को छोड़कर अखरोट के शेष सब अंग संग्राही होते हैं.
– अखरोट तैल मधुर, शीत, गुरु, वातपित्तशामक, कफकारक, केशों के लिए हितकर ,अभिष्यंदी तथा रक्तदोष-शामक होता है.
– अखरोट जीवाणुनाशक, रक्तस्रावरोधक, तंत्रिका-अवसादक,विषाणुरौोधी , शोथघ्न, अल्परक्तशर्काराकारक, कवकनाशी, थायराइड हार्मोन सक्रियताकारक, जरारोधी तथा अवसादक होता है.
– अखरोट की काण्ड त्वक् शीताद्रोधी एवं वातानुलोेमक होती हैं.
– अखरोट के पत्र स्तम्भक, बलकारक और कृमिघ्न होते हैं.
– इसके फल को मेथानॉलिक सार (100 मिग्रा/ किग्रा) स्ट्रेप्टोजोटासिन प्रेरित मधिमेह ग्रस्त चूहों में मधुमेहरोधी क्रियाशीलता प्रदर्शित करता है.
– इसका सत्त सूक्ष्मजीवाणुरोधी क्रियाशीलता प्रदर्शित करता है.
औषधीय प्रयोग मात्रा एवं विधि
नेत्र रोग
- नेत्र-ज्योतिवर्धनाथ – दोे अखरोट और तीन हरड़ की गुठली को जलाकर उनकी भस्म के साथ 4 नग काली मिर्च को पीसकर अंजन करने से नेत्रो की ज्योति बढ़ती है.
मुख रोग
- दन्त- विकार- अखरोट के छिलकों को जलाकर प्राप्त भस्म में थोड़ा सेंधानमक मिलाकर मंजन करने से दांत मजबूत होते हैं.
- दंतरोग- अखरोट छाल को मुंह में रखकर चबाने से दांत के रोग तथा मुख की बामारियों में लाभ होता है.
- तालुदाह- पेड़ की छाल का कल्क बनाकर लेप करने से तालुदाह में लाभ होता है.
- दंतमूलगत रक्तस्राव- अखरोट छाल , तुम्बरू छाल, बकुल छाल तथा लता कस्तुरी बीज चूर्ण को सामान मात्रा में लेकर चूर्ण कर लें. उस चूर्ण को दंतमूल में लेप कर. 10-15 मिनट रखकर, गुनगुने जल का कुल्ला करने से दांत वाले रक्तस्राव का स्तम्भन होता है.
कण्ठ रोग
- गण्डमाला- 5ग्राम अखरोट छाल तथा पत्र को 200 मिली पानी में उबालकर काढ़ा बनाकर.10-20 मिली की मात्रा में सेवन करने से तथा उसकी क्वाथ से ग्रथिंयों का प्रक्षालन करने से गले की गांठो तथा घेंघा का श्मन होता है.
- कण्ठप्रदाह- अखरोट की गिरी (5-10 ग्राम) का सेवन कण्ठप्रदाह में लाभकारी होती है.
वक्ष रोग
- क्षतक्षीण- जीवक, काकोली, क्षीरकाकोली तथा अखरोेट आदि द्रव्यों से बनाए अमृतप्राश घृत को 5 ग्राम की मात्रा में अग्निबल का विचार कर, प्रात सायं सेवन करने से क्षतक्षीय में लाभ होता है
- अखरोट गिरी को आग में हल्का भूनकर चबाने से कास में लाभ होता है.
- छिलके सहित अखरोट की भस्म बनाकर 500 मिग्रा की मात्रा में लेकर उसमें थोड़ा सा अकरकरा रस व मधु मिलाकर प्रात सायं सेवन करने सा कास में लाभ होता है.
उदर रोग
- अतिसार-5-10 ग्राम अखरोट पत्र एवं त्वक् का काढ़ा बनाकर, 1 /4 भाग शेष रहने पर, छानकर सेवन करने से अतिसार में लाभ होता है.
- 20-40 मिली अखरोट तेल को 250 मिली या अवाशयकतानुसार दूध के साथ प्रात काल पीने से कोष्ठ का स्नेहगन तथा मल का निर्हरण होता है.
- विसूचिका- हैजा में जब कंपकपी तथा शरीर मेें एठन हो तो अखरोट तेल की मालिश करने से लाभ होता है.
- विबन्ध- अखरोट फल के 10 से 20 ग्राम छिलकों को 400 मिली जल में पकाकर , काढ़ा बनाकर , सुबह-शाम पिलाने से कब्ज में लाभ होता है.
- प्रवाहिका-10-20 ग्राम अखरोट गिरी के सेवन से उद्रशूल तथा प्रवाहिका में लाभ होता है.
- कृमि- अखरोट फल तैल की वस्ति देने से उदरकृमियों का नि सरण होता है.
- 20-40 ग्राम मिली अखरोट त्वक् क्वाथ अथवा पत्र क्वाथ को पीने से आंत्रकृमियोें का निर्हरण होता है.
- फल के 10 से 20 ग्राम छिलकों को 1 लीटर पानी में पकाकर अष्टमांश शेष काढ़ा बनाकर सुबह-शाम से भी अतिसार में लाभ हो जाता हैं.
गुदा रोग
- अर्श- अखरोट तैल पिचु को गुदा में धारण करने से बवासीर के कारण उत्पन्न वेदना (दर्द) का शमन होता है.
- रक्ततार्श-2-3 ग्राम अखरोट फल छाल की भस्म को प्रात मट्ठे के साथ तथा सायंकाल जल के साथ सेवन करने से रक्त का बहना रुक जाता है.
वृक्कवस्ति रोग
- प्रेमह- 50 ग्राम अखरोट गिरी, 40 ग्राम छुहारे और 10 ग्राम बिनौले की मींगी को एक साथ कूटकर थोड़े से घी में भनकर, इसकी आधी मात्रा में मिश्री मिलाकर रखें, इसमें से 5 ग्राम नित्य प्रात सेवन करने से प्रमेह में लाभ होता है. (चिकित्सकीय परामर्शानुसार सेवन करें)
प्रजननसंस्थान रोग
- स्तन्यजननार्थ-100 ग्राम गेहूं की सूजी तथा 10 ग्राम अखरोट के पत्ते को पीसकर, दोनो को मिलाकर गाय के घी में पूुरी बनाकर सात दिन तक खाने से स्तन्य (स्त्री दुग्ध) की वृद्धी होती है.
- मासिकविकार-20-30 ग्राम अखरोट को त्वाक् ( छिलका) सहित कूटकर काढ़ा बनाएं, काढ़े में दो चम्मच शहद मिलाकर 3-4 बार पिलाने से मासिक धर्म की रुकावट में लाभ होता है. इससे मासिक के समय होने वाले दर्द में लाभ होता है.
त्वचा रोग
- दाद- प्रात काल बिना मंजन किए हुए अखरोट की 5 से 10 ग्राम गिरी को मुंह में चबाकर दाद पर लगाने से कुछ ही दिनों में दाद में लाभ होता है.
- व्रण- अखरोट की छाल के काढ़े से घावो को धोने से लाभ होता है व इससे घाव जल्दी भर जाता है.
- नारू- अखरोट की चाल को जल के साथ महीन पीसकर आग पर गर्म कर नहरूवा की सूजन पर लेप करने से तथा उस पर पट्टी बांध कर खूब सेंक देने से 10-15 दिन में नारू में लाभ होता है.
- अखरोट की छाल को पानी में पीसकर और गर्म कर नारू के घाव पर लगांए.
- दद्रु-5 से 10 ग्राम अखरोट बीज कल्क का लेप करने से दद्रु का शमन होता है.
- दुष्टव्रण- 10 ग्राम अखरोट बीज के सूक्ष्म कल्क को पिघले मोम य तैल के साथ मिलाकर लेप करने से शीध्र घाव, विसर्प, खुजली आदि में लाभ होता है.
- क्षुद्र कुष्ठ- अखरोट त्वक् एवं पत्र को पीसकर लगाने से घाव, विसर्प, खुजली आदि में लाभ होता है.
मानस रोग
- मस्तिष्क दुर्बलता- अखरोट की गिरी को 25 से 50 ग्राम तक की मात्रा में नित्य खाने से दिमाग शीध्र ही सबल हो जाता है.
- अर्दित- अखरोट के तेल की मालिश कर, वात हर औषधियों के काढ़े से बफरा (स्वेदन करने) देने से अर्दित में लाभ होता है.
- अपस्मार- अखरोट गिरी को निर्गुण्डी के रस में पीसकर अंजन करने से और 4-6 बूंद प्रतिदिन प्रात काल खाली पेट नाक ें डालने से मिर्गी में लाभ होता है.
सर्वशरीर रोग
- वात रोग- अखरोट की 10 से 20 ग्राम ताजी गिरी को पीसकर वेदना-स्थान पर लेप करें, कपड़ा लपेट कर उस स्थान पर सेंक देने से शीध्र पीड़ा मिट जाती है. गठिया पर इसकी गिरी को नियमपूर्वक सेवन करने से लाभ होता है.
- शोथ- 250 मिली गोमूत्र में 10 मिली अखरोट तैल मिलाकर पिलाने से सर्वांङशोथ (सारे शरीर पर आने वाली सूजन) में लाभ होता है.
- वात-जन्य सूजन- अखरोट की 10 से 20 ग्राम गिरी को कांजी में पीसकर लेप करने से वातज शोथ में लाभ होता है.
- बलवर्धनार्थ- 10 ग्राम अखरोट गिरी को 10 ग्राम मुन्नक्का के साथ नित्य प्रात खिलाना चाहिए. इससे शारीरिक व मानसिक बल की प्राप्ति होती है व पेट भी ठीक रहता है, यदि न पचे तो इसकी मात्रा कम कर दें.
विष चिकित्सा
- अहिफेन विष-20 से 30 ग्राम तक अखरोट की गिरी खाने से अफीम का विष और भिलावे के उपद्रव शांत हो जाते हैं.
प्रयोज्याङ्ग- फल तैल, बीज , छाल, पत्र, फल गिरी, फल के छिलके तथा भस्म.
मात्रा- गिरी 10-20ग्राम त्वक् क्वाथ 20-40 ग्राम , चिकित्सक के परामर्शानुसार