कृषि आधारित अर्थव्यवस्था कहे जाने वाले भारत में आर्थिक फैसले और विकास के पैमानों का आधार अब ग्रामीण भारत से शहरी भारत की तरफ खिसक रहा है. अगर ऐसा नहीं होता, तो नोटबंदी की सफलता की कहानी में कृषि और किसानों पर इसके कुप्रभावों का भी सरकारी या सियासी उल्लेख मिलता. मेट्रो शहरों के मॉल में लोगों की बढ़ती भीड़, एटीएम के सामने कम होती कतारों और बाजारों की रौनक से नोटबंदी के प्रभावों का विश्लेषण हुआ.
नोटबंदी को देशहित और देशभक्ति से जोड़ने वाले सियासी शोर के बीच वे दृश्य कहीं दब गए, जहां अपने पसीने से सींचकर उपजाए गए आलू को कौड़ियों के भाव बेचने की जगह एक किसान ने उसे आप-पड़ोस के लोगों में मुफ्त में बांट देना अच्छा समझा.
एक किसान ने अपने खेत के पूरे टमाटर को मवेशियों को खिला दिया, क्योंकि फायदा और लागत तो दूर, उसे बेचने पर मिलने वाले पैसों से बाजार तक माल पहुंचाने का खर्च भी नहीं निकल सकता था. कर्नाटक के कोल्लार के किसानों को तो पहले ही फसलों पर कम बारिश की मार से दो-चार होना पड़ा था. रही-सही कसर नोटबंदी ने पूरी कर दी.
अलबत्ता किसानों ने खेतों से निकले टमाटर को मवेशियोें को खिलाना ही बेहतर समझा. नोटबंदी के बाद यह भी खबर सुनने को मिली कि जमीन की कीमत गिर जाने के बाद किसान ने खुदकुशी कर ली. तेलंगाना के सिद्धिपेट जिले के धर्माराम गांव में एक किसान वी. बलैया ने अपने परिवार के तीन अन्य सदस्यों के साथ कीटनाशक खा कर खुदकुशी कर ली, क्योंकि नोटबंदी के बाद उसके उस जमीन की कीमत आधी मिल रही थी, जिसे बेचकर वह अपनी बेटी की शादी करने वाला था. देश के कई अन्य हिस्सों से भी किसानों की खुदकुशी की खबरें आईं.
नहीं मिल रहा न्यूनतम समर्थन मूल्य
नोटबंदी के बाद सब्जियों की कीमतों में कमी देखी जा रही है. लेकिन यह कमी खुशखबरी की बात नहीं है. बाजारों तक फल और सब्जियां पहुंचाने वाले किसान मजबूरीवश औने-पौने दामों में अपनी सब्जियां, फल और दाल बेचने को मजबूर हैं. हाल ये है कि मंडियों में किसानों को उनके उत्पाद का लागत मूल्य भी नहीं मिल पा रहा है. खुदरा व्यापारियों के पास कैश की कमी के कारण मार थोक विक्रेता किसानों पर पड़ रही है. न्यूनतम समर्थन मूल्य में हुई भारी कमी ने किसानों की कमर तो़ड कर रख दी है.
बात चाहे नवी मुंबई के एपीएमसी मार्केट की हो या दिल्ली के आजादमुर मंडी की, सभी जगहों पर एमएसपी में 40-50 फीसदी की कमी देखने को मिल रही है. कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा नोटबंदी के बाद के हालात को कृषि और किसानों के लिए संकट मानते हैं. उनका कहना है, ‘यह एक तरह से संकट ही है कि लगातार दो साल के सूखे के बाद किसान अभी हालात से उबर ही रहे थे कि नोटबंदी से सामना हो गया. नोटबंदी के पहले 50 दिनों की ही बात करेें, तो इस दौरान किसानों की आय में 50-60 फीसदी की कमी हुई है.
साल बीतने के साथ ही कनार्टक के गुलबर्ग, आंध्रप्रदेश के कुरनूल और मध्यप्रदेश के इंदौर में तूर दाल की पहली खेप पहुंच गई. लेकिन मंडी में इसकी कीमत न्यूनतम समर्थन मूल्य से बहुत कम थी. 5050 रुपए एमएसपी की तुलना में आंध्रप्रदेश में यह 3,666 तो कर्नाटक में 4,570 रुपए प्रति क्विंटल बिका.’ किसानों द्वारा एमएसपी से कम कीमत पर अपने उत्पादों को बेचने की मजबूरी केवल दाल के मामले में ही नहीं है.
सब्जियां, फल और यहां तक की फूलों की खेती करने वाले किसान भी माथा पीटने को मजबूर हैं. शादी-ब्याह के इस मौसम में जब फूल उपजाने वाले किसान अपने लागत और फायदों के लिए बाजारों का रुख करते हैं, इस समय उन्हें उपज की कीमत की जगह निराशा हाथ लग रही है. 30-40 रुपए प्रति किलो बिकने वाले कई फूल दिल्ली के आजादपुर मंडी में 4-6 रुपए प्रति किलो बिक रहे हैं.
सरकार थपथपा रही अपनी पीठ
नोटबंदी के फैसले के बाद लोगों की परेशानी और विपक्ष के चौतरफा हमले के बीच जो आंकड़ा सरकार के लिए कवच-कुंडल साबित हुआ, वह था- रबी फसल की रिकार्ड बुआई. कृषि मंत्री राधामोहन सिंह ने रबी की बुआई का आंकड़ा पेश करते हुए कहा कि बुआई पर नोटबंदी का कोई असर नहीं पड़ा है. उन्होंने कहा, पिछले साल के 438.90 लाख हेक्टेयर के मुकाबले इस साल 472.43 लाख हेक्टेयर में रबी की बुआई हुई है, जो कि 7.64 फीसदी अधिक है.
इस एक आंक़डे द्वारा सरकार ने साबित करने की कोशिश की कि खेती-किसानी पर नोटबंदी का कोई असर नहीं प़डा है. विपक्षी हमलों के जवाब से लेकर समाचार चैनलों के डिबेट में भाजपा प्रवक्ताओं की प्रतिक्रिया और जमीनी स्तर पर लोगों में नोटबंदी की सार्थकता का सरकारी संदेश भी रबी फसल की रिकॉर्ड बुआई के माध्यम से ही होकर गया. हालांकि कृषि मंत्री ने जो आंकड़े पेश किए थे, वे 9 दिसंबर तक के थे.
गौरतलब है कि किसान बुआई से पहले ही बीज और खाद के लिए पैसों की व्यवस्था कर लेते हैं. इस बार भी यही हुआ था. किसानों ने पहले से व्यवस्थित संसाधनों के जरिए बुआई तो कर ली, लेकिन समस्या अब सामने आ रही है, जब किसानों को फसल की सिंचाई करनी है और खाद डालने हैं. जो कुछ पैसे किसानों ने खाद-पानी के लिए बचा कर रखे थे, उन्हें भी बैंकों में जमा कराना पड़ गया.
उत्तरी भारत के कुछ क्षेत्र जहां किसान धान-गेहूं बेचकर नई फसलों को तैयार करने का काम करते हैं, वहां भी अनाजों की सही कीमत नहीं मिल पा रही है. इस स्थिति में बैंक भी किसानों का सहारा बनते नहीं दिख रहे. ग्रामीण भारत, जिसका 81 फीसदी हिस्सा आज भी बैंकों की पहुंच से दूर है, वहां कैश की ऐसी किल्लत के समय किसान किस तरह बोई गई फसल को अच्छी पैदावार में बदलेंगे, यह एक बड़ी चुनौती है.
देवेंद्र शर्मा कहते हैं, ‘कई अर्थशास्त्रियों और फंड मैनेजर्स का मानना है कि यह एक अल्पकालिक समस्या है. धीरे-धीरे पटरी पर लौट रहे व्यापार को देखते हुए हम इसे अल्पकालिक समस्या कह सकते हैं. लेकिन उन किसानों और भूमिहीन लोगों के लिए यह एक गंभीर संकट है, जो खेती-किसानी और अपने जीविकोपार्जन के लिए रोजमर्रा की कमाई पर निर्भर रहते हैं.
नोटबंदी के बाद की परिस्थितियां नि:स्संदेह ही पैदावार के लिए कुप्रभावी होंगी, क्योंकि यह जरूरी नहीं है कि अच्छी बुआई के बाद पैदावार भी अच्छी ही हो. बुआई के बाद फसलों की देखभाल जरूरी है, जो कि अभी किसानों के लिए एक बड़ी समस्या है. हालात बेहद गंभीर हैं, लेकिन किसी भी हाल में अपने फैसले को सही साबित करने की सियासी जिद इस सच को स्वीकार करने से गुरेज कर रही है कि नोटबंदी के फैसले ने किसानों की कमर तो़डकर रख दी है.