पिछले दिनों बिहार सरकार ने ज़िला अधिकारियों से छह से 14 वर्ष तक आयु वर्ग के स्कूल न जाने वाले बच्चों के आंकड़े तलब किए. उक्त आंकड़ों से पता चला कि लगभग साढ़े तीन लाख बच्चे ऐसे हैं, जिन्होंने अभी तक स्कूल का मुंह नहीं देखा. सबसे अधिक निराश करने वाली और चिंताजनक बात यह है कि इस साढ़े तीन लाख के आंकड़े में दलित बच्चों की संख्या लगभग एक लाख है, जबकि उनकी जनसंख्या राज्य की कुल जनसंख्या के 15 प्रतिशत के आस-पास है. इन आंकड़ों को देखने के बाद जो एक बेहतर तस्वीर उभर कर सामने आ रही है, वह यह है कि लड़कों के म़ुकाबले स्कूल न जाने वाली लड़कियों की संख्या कम हुई है.
स्कूल न जाने वाले बच्चों के आंकड़े कुछ इस प्रकार हैं-सामान्य जाति के लड़के (पिछड़ा वर्ग शामिल) 1,81,076, सामान्य जाति की लड़कियां 78,930, अनुसूचित जाति के लड़के 46,789 और अनुसूचित जाति की लड़कियां 41,560. ज़ाहिर है, यह नीतीश सरकार के लिए एक चुनौती है और केंद्र सरकार के लिए भी कि स्कूल जाने योग्य बच्चों को कैसे स्कूल भेजा जाए और यह भी सुनिश्चित किया जाए कि दाखिला लेने के बाद वे स्कूल छोड़कर न जाएं.
देश के अन्य राज्यों में भी स्कूल छोड़ चुके या स्कूल जाने से वंचित बच्चों की संख्या अच्छी-खासी है. महाराष्ट्र सरकार के आंकड़ों के मुताबिक, राज्य के 81,000 बच्चे स्कूल से बाहर हैं. लेकिन, सर्व शिक्षा अभियान (2014-15) की रिपोर्ट के मुताबिक, राज्य में तक़रीबन 1.45 लाख बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे हैं. वहीं 2011 की जनगणना के आंकड़े भी इस सिलसिले में कोई बहुत अच्छी तस्वीर नहीं पेश कर रहे हैं. इस जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक, गुजरात जैसे विकसित राज्य में छह से 18 वर्ष तक आयु वर्ग के 14 लाख बच्चे स्कूल नहीं जा रहे थे.
हालांकि, राज्य सरकार का दावा इसके ठीक उलट था. बहरहाल, 2011 के बाद के पांच वर्षों में इस आंकड़े में ज़रूर सुधार आया होगा. दरअसल, केरल को छोड़कर देश में कोई भी राज्य ऐसा नहीं है, जो प्राथमिक शिक्षा के शत-प्रतिशत लक्ष्य की प्राप्ति का दावा कर सके. अभी हाल में उपराष्ट्रपति मुहम्मद हामिद अंसारी ने केरल द्वारा प्राथमिक शिक्षा में शत-प्रतिशत लक्ष्य हासिल करने की घोषणा की. यदि केरल ने यह लक्ष्य सबसे पहले हासिल किया, तो इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है, क्योंकि साक्षरता के मामले में केरल देश के दूसरे राज्यों से हमेशा आगे रहा है और प्राथमिक शिक्षा में शत-प्रतिशत लक्ष्य हासिल करने वाला पहला राज्य बनने की संभावना भी सबसे अधिक केरल में थी.
देश में सर्व शिक्षा अभियान की शुरुआत वर्ष 2000-01 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा की गई थी. इस अभियान के मद्देनज़र वर्ष 2002 में संविधान में 86वां संशोधन किया गया, जिसके तहत छह से 14 वर्ष तक के सभी बच्चों के लिए अनिवार्य एवं मुफ्त शिक्षा को मौलिक अधिकार बना दिया गया. और, प्राथमिक शिक्षा को एक तय समय सीमा के अंदर सार्वभौम बनाने (यूनिवर्सलाइज) का प्रावधान रखा गया.
वर्ष 2009 में शिक्षा के अधिकार को नि:शुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा (आरटीई) अधिनियम-2009 पारित करके क़ानूनी रूप दे दिया गया. देश में आरटीई (शिक्षा का अधिकार) क़ानून पर एक अप्रैल, 2010 से अमल हो रहा है. दरअसल, सर्व शिक्षा अभियान का एक महत्वपूर्ण लक्ष्य वर्ष 2010 तक छह से 14 वर्ष तक के सभी बच्चों को उपयोगी प्राथमिक शिक्षा मुहैया कराना था, जो अभी तक हासिल होता नहीं दिख रहा है. खास तौर पर ऐसे में, जबकि देश के सबसे कमज़ोर वर्ग यानी दलित, पिछड़े एवं मुसलमान शिक्षा से वंचित रहे हैं.
वर्ष 2015 के मध्य में सरकार समर्थित एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई, जिसके मुताबिक, देश में स्कूल जाने से वंचित 60 लाख बच्चों में से 49 प्रतिशत का संबंध अनुसूचित जाति एवं जनजाति से था, 36 प्रतिशत का संबंध पिछड़े वर्ग से था और 25 प्रतिशत बच्चे मुसलमान थे. इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि देश के 20.4 करोड़ बच्चों में से तीन प्रतिशत बच्चे ऐसे हैं, जो स्कूल जाने से वंचित हैं. हालांकि, ये सारे आंकड़े सरकार द्वारा उपलब्ध कराए गए हैं.
बाल कल्याण के क्षेत्र में काम करने वाले सामाजिक संगठनों का मानना है कि ये आंकड़े इससे कहीं अधिक हैं. एक संगठन के मुताबिक, दिल्ली में दुकानों एवं अन्य जगहों पर कुछ ऐसे बच्चे काम करते पाए गए, जिनकी हाजिरी स्कूल में लगी हुई थी.ज़ाहिर है, देश में प्राथमिक शिक्षा के लिए क़ानून बना देने, उसे संवैधानिक अधिकार बना देने, मिड-डे मील उपलब्ध करा देने या साइकिल वितरण मात्र से अपेक्षित लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकता. इसके लिए ज़रूरत है, ठोस नीति के साथ बेहतर योजना और इच्छाशक्ति की.
सबसे पहले तो सरकार को अपनी प्राथमिकता तय करनी होगी और उसके बाद स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की व्यवस्था करनी होगी. दरअसल, सरकार को दो स्तरों पर काम करना है और यह उसकी ज़िम्मेदारी भी है. पहला तो यह कि जो बच्चे स्कूल जाने से वंचित हैं, उन्हें स्कूल तक लाना और दूसरा यह कि शिक्षा की ऐसी व्यवस्था करना, ताकि वे स्कूल छोड़कर न जाएं.