लोकसभा में अन्य पिछड़ा वर्ग ( ओबीसी ) जातियों को आरक्षण देने का अधिकार राज्यों को देने सम्बन्धी 127 वां संविधान संशोधन निर्विरोध पारित होने का अर्थ यही है कि देश अब जातीय घमासान के दूसरे चरण में प्रवेश कर रहा है। पिछड़ा वर्ग के समर्थन का केन्द्र व देश के कई राज्यों में सत्तारूढ़ भाजपा के लिए राजनीतिक व सामाजिक दृष्टि से कितना महत्व है, यह इसी से समझा जा सकता है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सर कार्यवाह दत्तात्रय होसबले को बयान देना पड़ा कि संघ जातीय आरक्षण के पूर्ण पक्ष में है और यह तब तक जारी रहेगा, जब तक समतावादी समाज बन नहीं जाता। उन्होंने कहा ‘सामाजिक सौहार्द और सामाजिक न्याय हमारे लिए राजनीतिक रणनीतियां नहीं हैं। ये दोनों हमारे लिए आस्था की वस्तु हैं।’ दूसरे शब्दों में कहें तो इस देश की मुक्ति जातिवाद को किसी न किसी रूप में कायम रखने में ही है। राज्यों के ओबीसी आरक्षण का अधिकार मिलने के बाद देश में जातिवार जनगणना और जातीय आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 से बढ़ाने की अगली मांग शुरू हो चुकी है। क्योंकि इस विधेयक की पूर्णाहुति आरक्षण कैप हटाने से ही संभव होगी। आश्चर्य नहीं कि मोदी सरकार अगले लोकसभा चुनाव के पहले संविधान संशोधन लाकर आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 फीसदी रखने के सुप्रीम कोर्ट के तीस साल पुराने फैसले को भी बदल दे। क्योंकि तीसरी बार सत्ता में लौटने के लिए देश में पिछड़े वर्ग का भरपूर समर्थन जरूरी है। साथ ही केवल अोबीसी की राजनीति करने वाली सपा, राजद, जद यू व लोकदल जैसे दलों के हाथ से मुद्दे छीनना भी है। वैसे भी अोबीसी आरक्षण एक ऐसा संवेदनशील मुद्दा है, जिस पर सभी राजनीतिक पार्टियां एक हैं।
कभी मंडल आयोग का खुलकर विरोध और राम मंदिर पर पूरे हिंदू समाज को एक करने वाली भाजपा ही आज अोबीसी आरक्षण को लेकर संशोधन विधेयक क्यों लेकर आई? इस सवाल की तह में जाएं तो इसके पीछे बदली हुई राजनीतिक सामाजिक परिस्थितियां और सत्ता हासिल करने के तकाजे हैं। पहला कारण तो यह कि राम मंदिर निर्माण शुरू होने और कश्मीर में धारा 370 हटने के बाद भाजपा के पास कोई ऐसा मुद्दा नहीं बचा है, जो बहुसंख्य हिन्दुओं को एक कर सके। काॅमन सिविल कोड में वो दम नहीं है। ऐसे में हिंदू समाज के जातीय विभाजन का संवैधानिक स्वीकार ही भाजपा के लिए प्रकारांतर से हिंदू एकता का नया फेविकोल है। नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से भाजपा और आरएसएस लगातार यह संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं कि अब देश की सत्ता ’पिछड़ी जातियों’ के हाथ में आ गई है। लिहाजा इस वर्ग का कल्याण ही देश का कल्याण है। इस वर्ग का विकास ही देश का विकास है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि बदले वक्त में ओबीसी ही हिंदू समाज की पहचान है। यही हिंदू समाज में ओबीसी की आधी से अधिक संख्या का खुले मन से स्वीकार भी है। बाकी जातियों का काम केवल अस्मिता की इस ध्वजा को यथासंभव टेका लगाते रहना है। यही कारण है कि ओबीसी की राजनीति करने वाले सभी क्षेत्रीय दल देश में ओबीसी की कुल संख्या बताने के लिए दबाव डाल रहे हैं। क्योंकि यह ‘संख्या’ ही देश में भावी राजनीति की दिशा तय करेगी।
उल्लेखनीय है कि लोकसभा में पारित संविधान (127वां संशोधन) विधेयक, 2021 के जरिए आरक्षण से जुड़ी व्यवस्था में बदलाव किया जाएगा। राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को अपने हिसाब से सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों (एईबीसी) की लिस्ट तैयार करने की अनुमति मिल जाएगी। राज्यों को फिर से ओबीसी जातियों की लिस्ट तैयार करने का अधिकार मिलेगा। इसके लिए संविधान के अनुच्छेद 342ए, 338बी, 366 में संशोधन किया गया है। बिल पास होने के बाद राज्य सरकारें अपने हिसाब से जातियों को ओबीसी कोटे में शामिल कर सकेंगी। फिलहाल आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत ही रहेगी। लेकिन इसे भी खत्म करने की जमीन तैयार हो रही है। सामान्य वर्ग को आर्थिक आधार पर 10 फीसदी आरक्षण भी इसी दिशा में एक और कदम है। तमिलनाडु में तो 69 फीसदी आरक्षण बरसों से लागू है। बाकी राज्य भी यही चाहते हैं।
वैसे भी देश के दो बड़े राज्यों उत्तर प्रदेश और बिहार (अब महाराष्ट्र भी) के चुनावों के पहले जातिवादी और खासकर ओबीसी राजनीति आलोड़न जरूर लेती है। मंडल आंदोलन के परिणामस्वरूप देश में ओबीसी के लिए सरकारी नौकरियों तथा शिक्षण संस्थानों में 27 फीसदी आरक्षण लागू होने के बाद यह महसूस किया जा रहा था कि इस रिजर्वेशन का वास्तविक लाभ ओबीसी में भी चंद जातियां ही उठा रही हैं। बाकी जातियां अभी भी हाशिए पर ही हैं। इसलिए मोदी सरकार ने 2017 में एक आयोग गठित कर यह पता लगाने को कहा था कि ओबीसी में भी किन जातियों को आरक्षण का लाभ कितना मिला? आयोग ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि ओबीसी आरक्षण का सर्वाधिक ओबीसी में शामिल उन 1 फीसदी जातियों ने ही उठाया है, जिनमें मुख्य रूप से यादव, कुर्मी, जाट ( हरियाणा में नहीं), सैनी, थेवर, एजवा आदि शामिल हैं। इनकी संख्या कुल ओबीसी जनसंख्या का मात्र 1 फीसदी है, जबकि आरक्षण का पचास प्रतिशत लाभ इन्हीं की झोली में गया है।
यानी यह आरक्षण के लाभों में भी भेदभाव की स्थिति है। गौरतलब है कि अभी देश में कुल 5013 जातियां अन्य पिछड़े वर्ग में हैं। यह सूची में केन्द्र सरकार की है। राज्यों की ओबीसी सूचियों को भी जोड़ लें तो संख्या करीब 6 हजार के पास जाती है। कर्नाटक, केरल व महाराष्ट्र जैसे राज्यों में कुछ धर्मांतरित ईसाइयों को भी ओबीसी में आरक्षण दिया गया है। जबकि मुसलमानों की कुछ जातियां भी अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल की गई हैं। कुछ राज्यों में ब्राह्मणों की कतिपय जातियां भी ओबीसी में अधिसूचित हैं। नया संविधान संशोधन विधेयक का पहला असर महाराष्ट्र, हरियाणा और गुजरात में दिखेगा। जहां मराठा, जाट और पटेलों को ओबीसी में शामिल किया जा सकेगा।
यह तय मानिए कि ओबीसी जातियों की संख्या जैसे-जैसे बढ़ेगी, वैसे-वैसे आरक्षण की अधिकतम सीमा को बढ़ाने का मुद्दा भी जोर पकड़ेगा। क्योंकि इतनी सारी जातियों को 27 फीसदी आरक्षण में समेटना नामुमकिन है। वो दिन ज्यादा दूर नहीं है, जब देश में अधिकतम आरक्षण 70 फीसदी हो जाए और अनारक्षित जातियों समाजों के लिए केवल 30 प्रतिशत या उससे भी कम अवसर रह जाएं।
यानी केवल प्रतिभा के आधार पर बढ़ने वालों को इसी बंद कुएं में अपना भविष्य देखना होगा। हालांकि आरक्षण कैप हटाने के बाद सभी जातियों को संतुष्ट करना असंभव होगा। जिससे जातियों में आपसी संघर्ष और बढ़ेगा। वो अपनी आरक्षण बदलने की मांग कर सकती हैं, जिसका दूसरी श्रेणियां (एससी-एसटी) विरोध करेंगी। लालू और मुलायम सिंह जैसे नेताओ को लगता है कि जातिवार जनगणना से ही भाजपा को राजनीतिक पटखनी दी जा सकती है। क्योंकि इससे न केवल हिंदू समाज में नए सिरे से उथल पुथल मचेगी बल्कि दूसरे धर्मो में भी नया घमासान शुरू हो सकता है। इससे हिंदू समाज को धर्म के आधार पर गोलबंद करने की बीजेपी की रणनीति फेल हो सकती है। कहने को इससे जनहित की नीतियां बनाने की बात हो रही है, लेकिन इसका असली मकसद देश को 90 के दशक की राजनीति में लौटाना है।
जहां तक जातिवार जनगणना की मांग है तो अकादमिक दृष्टि से यह सही है कि यह तो पता चले कि आखिर देश में कुल जातियां हैं कितनी? क्योंकि जातिवाद खुले रूप में हिंदू धर्म में और ढंके रूप में धर्मांतरित जातियो में कायम है। लेकिन सियासत इन आकंड़ों का उपयोग राजनीतिक दबाव बनाने के लिए करना चाहती है। जिसका अंतिम लक्ष्य सत्ता पर काबिज रहना अथवा सत्ता छीनना है। नतीजतन पूरा देश जातियों में ऊर्ध्वाकार विभाजित हो जाएगा और यह विभाजन पूरी तरह से संवैधानिक होगा तथा ‘सामाजिक समता’ और ‘समरसता’ के नारों की लाश पर होगा।