‘आज कल’ चैनल के ‘साहित्य आज’ के कार्यक्रम ने मेरी पुस्तक ‘ठंडा मरुस्थल लद्दाख’ को ‘यात्रा और स्थान’ की श्रेणी में साल 2023 की सबसे खास 10 किताबों में जगह दी है । आभार ।इस से पहले मेरी इसी पुस्तक की ‘साहित्य आज’ ने बहुत ही विस्तृत समीक्षा की थी ।इसे ही सुनकर हिंदू कॉलेज के प्राध्यापक डॉ पल्लव ने यह पुस्तक पढ़ने की इच्छा व्यक्त करते हुए कहा कि उन्हें यात्रा संस्मरण पढ़ने का बहुत शौक है ।मैंने उनसे पुस्तक भेजने का वादा किया है । पल्लव बहुत ही बेहतरीन इंसान हैं और उनका मुझे हर क्षेत्र और मुद्दे पर सदा सहयोग मिलता रहा है । इस सम्मान में मेरे अज़ीज़ विवेक शुक्ला की पुस्तक ‘दिल्ली का पहला प्यार कनाट प्लेस ‘ भी शामिल है । हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं विवेक मेरे प्रिय खोजी पत्रकार ।

अब इस पुस्तक से जुड़ा एक संस्मरण सुनिये ।1965-66 में मैं ‘दिनमान’ की संपादकीय टीम में शामिल हो गया था और संपादक थे सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय ।काफी दिनों तक मेरा काम देखने के बाद उन्होंने मेरी बीट तय की विदेश और प्रतिरक्षा । 1969 में उनके अवकाश ग्रहण करने के बाद रघुवीरसहाय संपादक बने और मेरी बीट ज्यों की त्यों रही ।उसी बरस लद्दाख में कांग्रेस’ए’ और कांग्रेस ‘बी’ के बीच झड़पों की खबरें राष्ट्रीय अखबारों में छपी जिन्हें कवर करने के लिए प्रतिरक्षा मंत्रालय से किन्हीं पत्रकारों ने संपर्क किया ।लिहाजा सेना मुख्यालय ने पत्रकारों की एक टीम को लद्दाख ले जाने का प्रायोजित दौरा बनाया जिसमें ‘दिनमान’ को भी न्योता गया और उसके संपादक रघुवीरसहाय ने यह ज़िम्मेदारी मुझे सौंपी । उन दिनों लद्दाख जाने के लिए आज जैसी छूट नहीं थी और न ही आज जैसी सुख सुविधायें । सेना से ही अनुरोध करना पड़ता था ।शर्त होती थी कि सीमा क्षेत्र में सेना के कार्यों को अपने अपने पत्रों और पत्रिकाओं में संवाद प्रकाशित कर पाठकों तक पहुंचाना । पत्रकारिता में मेरे गुरु अज्ञेय सदा कहा करते थे कि ऐसे प्रायोजित दौरों में मेज़बान की गतिविधियों से जुड़ी स्टोरी के अतिरिक्त उस स्थान के कुछ और संवाद तलाशना । लद्दाख पर मेरी यह पुस्तक उन्हीं अतिरिक्त संवादों की कड़ी का ही हिस्सा है ।सेना के बाबत लिखे संवाद को तो मुख्यालय से ‘क्लियर’ कराना अनिवार्य होता है जबकि अतिरिक्त संवादों पर यह बंदिश नहीं होती ।बेशक लद्दाख के दौरे में हमने वहां के रीति-रिवाज,लोगों की जीवन शैली और बौद्ध और मुस्लिम संप्रदायों के बीच सद्भाव को करीब से जाना ।सेना और आमजन के बीच के सौहार्दपूर्ण संबंधों का भी अध्ययन किया ।

ये कुछ बुनियादी जानकारी तो लद्दाख यात्रा के दौरान प्राप्त हो गयी जो पुस्तक के लिहाज़ से अधूरी थी ।पुस्तक लिखने के लिए मुझे राष्ट्रीय अभिलेखागार का सहारा लेना पड़ा ।मैं कई दिनों तक वहां बैठकर अध्ययन करता रहा और नोटस लेता रहा ।उन दिनों न तो फोटोकापी की सुविधा थी और न ही कंप्यूटर-गूगल-इंटरनेट की ।हमें ‘दिनमान’ के संवादों को अपडेट करने के लिए भी पुस्तकालयों की सहायता लेनी पड़ती थी ।हम सब लोगों को अज्ञेय जी ने अपनी अपनी निजी लाइब्रेरी बनाने की भी सलाह दी थी ।खैर राष्ट्रीय अभिलेखागार में तैयार मेरे नोटस एक दिन मेरे हाथ लग गये और मैं उन्हें लेकर अपने टाइपराइटर पर बैठ गया ।धीरे धीरे मैं उस दौर में पहुंच गया ।कैसे हम सभी लोग श्रीनगर में एकत्र हुए और हमारी जीप में कौन कौन लोग थे और कौन था हमारे साथ सेना का संपर्क अधिकारी ।जहां तक मुझे याद पड़ता है मेरे साथ ‘नवभारत टाइम्स’ के समाचार संपादक पंडित हरिदत्त शर्मा थे ।श्रीनगर की सीमा से बाहर निकलने के थोड़ी देर बाद हमारे साथ बैठे सेना अधिकारी ने एक तरफ़ इशारा करते हुए बताया कि वहां पंडित जवाहरलाल नेहरू अपना हनीमून मनाने के लिए आये थे ।सड़क ज़्यादा चौड़ी नहीं थी,जीप हिचकोले खा रही थी ।थोड़ा आगे जाकर देखा कि कुछ फौजी बर्फ को हटाकर जीपों के जाने का रास्ता बना रहे हैं ।हमने फौजी अधिकारी से पूछा जून के महीने में इतनी बर्फ इस पर उसका उत्तर था कि यहां का मौसम ऐसा ही रहता है,थोड़ी दूरी पर गुमरी है । उसके बाद द्रास आया ।वह क्षेत्र था तो खुला खुला लेकिन बहुत ठंड थी ।हमें बताया गया कि यह दुनिया का दूसरा सबसे ठंडा इलाका है,पहले स्थान पर रूस का साइबेरिया है ।यहीं से मेरे मन में साइबेरिया जाने की इच्छा जागृत हुई ।अन्ततः 1987 में मेरा यह सपना पूरा हुआ और वहां मैं गया ।उस बाबत फिर कभी ।

द्रास में सभी सैनिकों की आस्थाओं के धार्मिक स्थल हैं,मंदिर,गुरुद्वारा और मस्जिद ।वहां हम लोगों ने भी नमन किया । उसके बाद करगिल पहुंचे ।रात को वहीं ठहरने का इंतजाम था ।वहां ब्रिगेडियर हरिसिंह ने सेना की समरनीति से परिचित कराया ।ऐसी सीमा रेखा जहां चीन और पाकिस्तान की सेनाओं की गतिविधियों पर नज़र रखते हुए पूरी मुस्तैदी बरतनी होती है ।वह डिनर पर उपस्थित थे ।मेरा उनसे पूर्व परिचय था।वह लोकसभा अध्यक्ष सरदार हुकम सिंह के दामाद थे ।करगिल से लेह तक सपाट सड़क है और वहां की सर्द हवाएं धुर भीतर तक कंपकंपाती हैं ।लेह में हमें वीआईपी गेस्ट हाउस में ठहराया गया ।उन दिनों वही सर्वश्रेष्ठ स्थान था। जलवायु के अनुकूल ढलना वहां जरूरी है इसलिए हमें कुछ देर तक विश्राम करने की सलाह दी गयी ।खैर हम लोगों को सेना की बहुत सारी गतिविधियों का अवलोकन कराया गया ।मैं और हरिदत्त शर्मा चांगला चुशुल की पहाड़ियों तक गये और सामने हमें चीनी सैनिक भी गश्त करते दीखे।

लेह में बहुत प्राचीन गुंपे (मठ) हैं जो बहुत ही खूबसूरत तो हैं ही वे ज्ञान का भंडार भी हैं ।वहां पर संस्कृत और तिब्बती के बहुत पुराने ग्रंथ हैं ।उनका अध्ययन करने के लिए देश विदेश से विद्वान आते रहते हैं ।वहीं मुझे पता चला कि हंगरी का एक विद्वान सैलानी अलेक्संदेर चोमा द कोरोश अपने पुरखों की जन्मभूमि की खोज करता हुआ लद्दाख पहुंच गया था ।उसने यहां के मठों के ग्रंथों का बहुत गहन अध्ययन कर तिब्बती-अंग्रज़ी का एक शब्दकोश तैयार किया था ।यहां प्रसिद्ध साहित्यकार राहुल सांस्कृत्यायन के मठों में रहकर अध्ययन की जानकारी मिली और अज्ञेय जी ने भी मुझे वहां बिताये दिनों के बारे में बताया था ।लद्दाख से थोड़ी दूर पर पत्थर साहब गुरुद्वारा है जो गुरु नानक देव की याद में बनाया गया है ।यहां गुरु नानक देव को बड़े सम्मान के साथ याद किया जाता है ।यहां के लद्दाख स्काउटस के बारे में बताया और मिलवाया जिसे सेना की रीढ़ की हड्डी माना जाता है ।जिन पहाड़ियों पर चढ़ने के लिए आम सैनिकों को बहुत मशक्कत करनी पड़ती है उनपर ये चूहों की तरह चढ़ जाते हैं ।वहां की जीवन शैली देखने को मिली ।कांग्रेस ‘ए’ और ‘बी’ के बखेड़े को यहां का सामान्य मुद्दा बताया गया।लद्दाख के सम्मानित कुशक बकुल से भेंट उनके शानदार मठ में हुई।कुशक बकुल को हम में से बहुत लोग जानते थे ।वह सांसद भी रहे हैं ।

कुछ ऐसी बुनियादी और चिर स्थायी जानकारियां ‘ठंडा मरुस्थल लद्दाख’ में दे गयी हैं जो सदैव रहेंगी ।1969 में मेरी यात्रा के बाद से लद्दाख में क्या और कितने विकास कार्य हुए हैं उनका भी उल्लेख है और वहां की शासन व्यवस्था के वर्तमान बदलाव का भी ।किस प्रकार मौजूदा लद्दाख को ‘पर्यटक मित्र’ के तौर पर विकासित किया गया है इस का भी जिक्र है ।कह सकते हैं कि पुराने और वर्तमान लद्दाख का इस पुस्तक में तुलनात्मक अध्ययन भी है । अपने प्राक्कथन में प्रसिध्द साहित्यकार गिरीश पंकज ने लिखा भी है कि ‘सहज-सरल प्रवाहपूर्ण प्रामाणिक लेखनी से सजी-संवरी यह नवीन पुस्तक पाठकों के मन में लद्दाख को देखने की ललक विकसित करेगी ।’ ‘ठंडा मरुस्थल लद्दाख’ का प्रकाशन अशोक गुप्ता के अद्विक पब्लिकेशन प्रा.लि. ने किया है और इसका मूल्य है 160 रुपए ।

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