बिहार में सत्तारूढ़ महागठबंधन ने अपनी राजनीतिक विशिष्टाताओं और विसंगति के साथ एक साल- कहें तो तेरह महीने- पूरा कर लिया. इस एक साल में महागठबंधन सरकार के पास कई उपलब्धियां भी हैं, तो वहीं दूसरी तरफ इसके खाते में कई विफलताएं और टॉपर्स घोटाला जैसी कलंक गाथा भी हैं.
बिना किसी औपचारिक स्वरूप के भारतीय जनता पार्टी व उसके नेतृत्व के राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को चुनावी के मैदान में धूल चटाने के लिए लालू प्रसाद के राष्ट्रीय जनता दल, नीतीश कुमार के जनता दल(यू) और कांग्रेस की साझा राजनीतिक पहल को ही महागठबंधन का नाम दे दिया गया और यही स्थाई तौर पर चल पड़ा. यह अपने ढंग का एक अनोखा गठबंधन है, जिसकी उम्र के बारे में कोई भविष्यवाणी नहीं कर सकता- इसमें शामिल दलों के नेता भी नहीं.
इसमें कुछ भी घोषित और औपचारिक नहीं है- न नेतृत्व न कार्यक्रम. सात निश्चय को छोड़ दें, तो न सरकार चलाने का कोई घोषित न्यूनतम समान कार्यक्रम है न सरकार पर नजर रखने के लिए कोई कमिटी. फिर भी तीन दलों के महागठबंधन की सरकार बखूबी चल रही है, सारे काम हो रहे हैं और किसी घटक दल की कोई शिकायत भी सामने नहीं आ रही है.
पर, यह भी सत्य है कि राष्ट्रीय राजनीति से जुड़े मसलों और केन्द्र सरकार के अधिकांश महत्वपूर्ण निर्णयों पर तीनों दलों में कोई एक राय बहुधा नहीं रहती है. तीनों दल अपनी राजनीति के हिसाब से कभी दो और कभी तीन दिशा में होते हैं. लेकिन इसका कोई असर शासन के कामकाज पर कभी दिखा हो, ऐसा अवसर बिहार को याद नहीं है. इसी तरह यह भी कभी नहीं हुआ कि तीनों दल एक साथ किसी मसले पर एक जगह दिखें हों.
फिर, सूबे के भाग्य को लेकर सरकार के फैसलों की औपचारिक घोषणा के पहले महागठबंधन के घटक दलों के बीच गहन विचार विमर्श की कोई खबर भी बिहार को नहीं है. ऐसा हुआ हो, यह भी नहीं कहा जा सकता है. महागठबंधन सरकार के अभियानों को छोड़ दें, तो तीनों दलों के लोग शायद ही कभी एक साथ दिखे हों. सरकार के शपथ ग्रहण के बाद बिहार के दोनों बड़े दलों के सुप्रीमो लालू प्रसाद और नीतीश कुमार फिर कभी एक मंच पर नहीं दिखें.
राहुल गांधी और सोनिया गांधी ने तो विधानसभा चुनाव अभियान के बाद बिहार की ओर मुड़ कर देखा तक नहीं. फिर भी, छोटी- मोटी कटु-तिक्त स्थितियों को छोड़ दें, तो महागठबंधन के साझेदारों में कोई ऐसा विवाद अब तक सामने नहीं आया है, जो इसके अस्तित्व के लिए परेशानी की आशंका पैदा करे. फिर भी, अगर आप मानते हैं कि महागठबंधन में सब कुछ सहज और सामान्य है, तो आप राजनीतिक भ्रमजाल के शिकार हैं.
बिहार का यह सत्तारूढ़ महागठबंधन इस लिहाज से भी अनोखा है कि इसका सबसे बड़ा घटक दल सरकार में दूसरे नम्बर का भागीदार है. विधानसभा में राजद के 80 विधायक हैं. पर चुनाव पूर्व सहमति के आधार पर 71 विधायकों की पार्टी जद(यू) के नेता नीतीश कुमार इस सरकार के मुख्यमंत्री हैं. संख्याबल की इस हैसियत के बावजूद बिहार की पिछली एनडीए सरकारों में भाजपा को जो तरज़ीह मिली थी, वह भी राजद को नहीं मिल रही है.
उन सरकारों में भाजपा संख्याबल के आधार पर भी जूनियर पार्टनर थी. राजधानी के बाहर के मुख्यमंत्री के सरकारी कार्यक्रमों में सरकार में राजद के सबसे महत्वपूर्ण प्रतिनिधि और उप मुख्यमंत्री तेजस्वी प्रसाद यादव तक को बहुत बार शामिल नहीं किया जाता है. इसका सबसे ताजा उदाहरण मुख्यमंत्री की निश्चय यात्रा है. जबकि एनडीए सरकारों में अमूमन ऐसा नहीं होता था.
वस्तुतः लालू प्रसाद के परिजनों को छोड़ कर राजद के बड़े नेताओं की समझ है कि सरकार संचालन में उनके नेताओं की घोर उपेक्षा हो रही है. यह आरोप कितना सही और कितना गलत, यह कहना सरकार से बाहर के किसी के लिए भी कठिन है. लेकिन इतना तो दिखता है कि सूबे में विभिन्न सरकारी समितियों के गठन के राजद के सुझावों पर महागठबंधन सरकार के नेतृत्व ने अब तक कोई ध्यान नहीं दिया है.
सूबे में राज्य स्तर से लेकर प्रखंड स्तर तक बीस सूत्री कार्यक्रम कार्यान्वयन समिति सहित लगभग आधा दर्जन सरकारी समितियों का गठन होना है. राजद ने महीनों पहले प्रस्ताव पारित कर इन समितियों के शीघ्र गठन का औपचारिक अनुरोध सरकार से किया था. कहते हैं, इस बारे में राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद तक ने मुख्यमंत्री से कहा था. लेकिन इस पर अब तक कोई कोई निर्णय नहीं लिया गया है.
इस बारे में सबसे ताजा आश्वासन था कि छठ के बाद प्राथमिकता के साथ इसे कर दिया जाएगा. पर क्या हुआ, यह बताने की जरूरत नहीं है. सरकार के लगभग दो दर्जन आयोग/निगम/बोर्ड के गठन को लेकर भी बात इसी अवस्था में पड़ी है. जद(यू) और कांग्रेस के लोग भी सरकारी समितियों व निगम-बोर्ड के गठन की प्रतीक्षा कर रहे हैं. इनमें तीनों दलों के लोगों को जगह मिलनी है.
एक बार फार्मूला बना कि विधानसभा में दलीय ताकत के अनुसार समितियों और निगम-बोर्ड में प्रतिनिधित्व मिलेगा. इस फार्मूले के बनने के भी महीनों गुजर गए. राजद के लोग तो अपने नेताओ के सामने रो-गा लेते हैं, जद(यू) में तो यह सुविधा भी नहीं है. यह सही है कि यह राजनेताओं-कार्यकर्त्ताओं के राजनीतिक पुनर्वास से जुड़ा मसला है. यह भी सही है कि इससे लूट और राजनीतिगिरी का बोलबाला रहता है, बिचौलियों का समूह तैयार होता है.
पर यह भी सही है कि समितियों के गठन और इसे अधिकार सम्पन्न बनाने से सचिवालय से लेकर जिला और प्रखंड स्तर तक जारी लालफीताशाही के संजाल को तोड़ने और नौकरशाही पर अंकुश लगाने में मदद मिलेगी. इससे प्रशासन को जिम्मेवार बनाया जा सकता है. लेकिन, लगता है कि महागठबंधन सरकार का राजनीतिक नेतृत्व शायद इसकी जरूरत नहीं समझता.
महागठबंधन की सरकार दो कार्यक्रमों तक सिमटी दिख रही है- शराबबंदी और सात निश्चय. पिछले एक साल से राज्य सरकार के कामकाज का पूरा फोकस इन्हीं दो क्षेत्रों में रह गया लगता है और यही ‘सुशासन बाबू’ और ‘विकास पुरुष’ के नाम से विख्यात नीतीश कुमार की इस पाली का यूएसपी रह गया है. सूबे में गत अप्रैल से पूर्ण शराबबंदी लागू कर दिया गया.
इस अभियान को सफल बनाने के लिए कानून को तो कठोर बनाया ही गया, मुख्यमंत्री के नेतृत्व में जागरण अभियान भी चलाया जा रहा है. मुख्यमंत्री की निश्चय यात्रा का बड़ा घटक शराबबंदी ही बन गया है. हालांकि शराबबंदी लागू करनेवाला बिहार एक मात्र राज्य नहीं है और न ही बिहार में यह पहली बार लागू किया गया है.
यह भी सही है कि कठोरतम शराबबंदी कानून को अमल में लाने के बावजूद सूबे में शराब बन रही है, बिक रही है, लोग पी रहे हैं और जहरीली शराब से लोग मर भी रहे हैं. पड़ोसी राज्यों की बात कौन करे, दूर-दराज से विदेशी शराब की ट्रक और कंटेनर पर लद कर बड़ी-बड़ी खेपें पटना, मुजफ्फरपुर, गया जैसे मध्यवर्ती शहरों में आ रही हैं और वितरित हो रही हैं. शराब के होम डिलेवरी की भी शबर है.
और तो और पुलिस थानों में अवैध शराब रखी जा रही हैं. हालांकि बिहार में नए शराबबंदी कानून का असर दिखने लगा है, इसके पक्ष में सामान्य महिलाओं की जमात निरंतर आगे आ रही है. इस लिहाज से नीतीश कुमार और महागठबंधन सरकार का यह अत्यंत सकारात्मक कदम है और बिहार के सामाजिक जीवन को यह निर्णय काफी प्रभावित करेगा.
बिहार की जनता के समक्ष नीतीश कुमार ने चुनावी दिनों में अपने सात निश्चय पेश किए थे, जिसे बाद में महागठबंधन ने स्वीकार कर लिया. ये निश्चय ही महागठबंधन सरकार के सामान्य कार्यक्रम बन गए हैं. अब इन्हीं निश्चयों के आसपास बिहार सरकार की सारी गतिविधियां घूम रही हैं. इन सात निश्चयों में छात्र-युवा-बेरोजगार आदि के लिए कई कार्यक्रम हैं.
इनमें बारहवीं की परीक्षा से आगे की उच्च शिक्षा हेतु चार लाख रुपये के ऋण के लिए सरकार के गारंटर बनने और ब्याज के मद में अनुदान देने की बात है. इसके लिए स्टूडेंट क्रेडिट कार्ड योजना शुरू कर दिया गया है. इसमें बेरोजगार नौजवानों को रोजगार के लिए परामर्श और रोजगार की खोज के लिए स्वयं सहायता भत्ता देने की बात है. युवाओं को बेहतर रोजगार विकल्प देने और उनमें संभाषण कला विकसित करने के लिए कौशल विकास अभियान चलाया जाना है.
जिलों में इंजीनियरिंग-मेडिकल कॉलेज के साथ-साथ नर्सिंग कालेज व स्कूलों का सूबे में जाल बिछाना है. हर घर को बिजली कनेक्शन देना है, हर घर को नल का जल देना है और हर गली नाली को पक्की करना है. राज्य सरकार की सीधी नियुक्ति में महिलाओं के लिए पैंतीस प्रतिशत आरक्षण भी इसी सात निश्चय का अंग है. महिलाओं को आरक्षण का लाभ इस साल से दिया जाने लगा है.
इन सात निश्चयों को जमीन पर उतारने के लिए पांच वर्ष का समय है और इस मद में कुल दो लाख सत्तर हजार करोड़ रुपये की जरूरत होगी. चालू वित्त वर्ष में इसके लिए केवल सत्रह हजार करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है. यह रकम बहुत ही कम है. पर यह तैयारी का वर्ष है और असली खर्च अगले वित्त वर्ष से शुरू होने हैं.
फिर भी, इन कार्यों के लिए मात्र तीन साल का समय और इतनी बड़ी रकम की व्यवस्था महागठबंधन सरकार की चुनौती बनेगी. बिहार को देखना है कि इसका सामना महगठबंधन किस राजनीतिक एकजुटता और आर्थिक प्रबंधन से करता है.
महागठबंधन का यह पहला साल आंतरिक अंतर्विरोध की खुली अभिव्यक्ति के ख्याल से भी कम महत्वपूर्ण नहीं रहा. जेल में बंद राजद के बाहुबली नेता मोहम्मद शहाबुद्दीन के एक बयान ने महागठबंधन के भीतर उथल-पुथल पैदा कर दी. हालांकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर शहाबुद्दीन को फिर जेल जाना पड़ा था, पर सितम्बर में जमानत पर छूटने के बाद उसने साफ शब्दों में कह दिया था कि नीतीश कुमार परिस्थितियों के मुख्यमंत्री हैं और वह उन्हें अपना नेता नहीं मानता.
इस एक बयान ने जद(यू) और राजद के बीच तलवारें निकाल दीं. फिर राजद के उपाध्यक्ष रघुवंश प्रसाद सिंह के बयान ने आग में घी का काम किया और नीतीश सरकार के दो मंत्री विजेन्द्र प्रसाद यादव और राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह मैदान में कूद पड़े. जद(यू) का कहना था कि राजद अपने लोगों- विशेष कर रघुवंश प्रसाद सिंह को नियंत्रित करे. इधर, लालू प्रसाद ने दिल्ली और मथुरा में जद(यू) और कांग्रेस की हैसियत को लेकर उत्तेजक टिप्पणियां कर दी.
इससे कांग्रेस पार्टी नाराज हो गई. इससे कांग्रेस और जद(यू) फिर से एक हो गए. कांग्रेस के कड़े रूख के कारण लालू प्रसाद झुके और जब सुप्रीमो ही झुक गए तो दूसरों की क्या बिसात!
महागठबंधन में ऐसे अवसर बार-बार आए हैं, आते रहते हैं और आते रहेंगे. लेकिन इनके साथ अपने सारे अंतर्विरोधों के साथ महागठबंधन चलता रहेगा. इसके जितने दल हैं, उनकी अपनी-अपनी दिशा होगी. पर सरकार एक ही रहेगी- महागठबंधन सरकार. ‘हंसते-लड़ते कट जाए रस्ते’ की शैली में बिहार का सत्तारूढ़ महागठबंधन अपने समय गुजार रहा है.
पिछले तेरह महीने से ऐसा ही चल रहा है और उम्मीद है कि अगले कुछ वर्षों तक ऐसा ही चलेगा. लेकिन यह कहना किसी भी राजनेता और राजनीतिक विश्लेषक के लिए कठिन है कि महागठबंधन की उम्र कितनी लंबी है- कितने चुनावों तक यह अपने मौजूदा स्वरूप में भी बना रहेगा.