विश्वनाथ प्रताप सिंह के बाद, जब कभी भी देश में तीसरे मोर्चे की बात हुई, वह राजनीतिक विकल्प देने से अधिक मौक़े का फ़ायदा उठाने के लिए ही हुई. वामदलों की अगुवाई में एक बार फिर वही क़वायद जारी है, लेकिन स्पष्ट नीति, एजेंडा और दृष्टिकोण का अभाव इस मोर्चे को शायद ही वह मज़बूती दे पाए, जिसकी ज़रूरत इसके अस्तित्व को बनाने और बचाने के लिए है.
वह 27 अक्टूबर, 2012 का दिन था. राजधानी दिल्ली स्थित कांस्टीट्यूशन क्लब में वामपंथी और समाजवादी पृष्ठभूमि से जुड़ी कई पार्टियों के शीर्ष नेता एक साथ मंच पर उपस्थित थे. मौक़ा था समाजवादी लेखक-पत्रकार मस्तराम कपूर की पुस्तक-लोकसभा में लोहिया के लोकार्पण का. यह कार्यक्रम उस वक्त हो रहा था, जब देश में तीसरे मोर्चे की कोई विशेष सुगबुगाहट नहीं थी. ऐसे समय में मस्तराम कपूर के बहाने ग़ैर कांग्रेस-ग़ैर भाजपा विकल्प पर विमर्श किया जा रहा था. समाजवादी और वामपंथी दलों के कई नेताओं ने मुद्दा आधारित वैकल्पिक राजनीति का एक प्रस्ताव भी पारित किया. इन नेताओं ने समाजवादी पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव को इसकी कमान संभालने की सलाह दी. इस कार्यक्रम में मुलायम सिंह यादव के अलावा, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेता ए बी बर्द्धन, डी राजा, तेलगुदेशम संसदीय दल के नेता नागेश्वर राव, फारवर्ड ब्लॉक के नेता देवव्रत विश्वास, समाजवादी बुद्धिजीवी एवं वर्तमान में आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता डॉ. आनंद कुमार और पिछले दिनों भारतीय जनता पार्टी में शामिल हुए इंडियन जस्टिस पार्टी के नेता उदित राज ने भी देश की जनता को ग़ैर कांग्रेस-ग़ैर भाजपा विकल्प देने की बात कही. ग़ौरतलब है कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का कोई भी नेता इस कार्यक्रम में शामिल नहीं था.
बहरहाल, देश को ग़ैर भाजपा-ग़ैर कांग्रेस विकल्प देने के संबंध में जिन लोगों ने कांस्टीट्यूशन क्लब में लोकसभा चुनाव से छब्बीस महीने पहले वामपंथी और समाजवादी नेताओं के भाषण सुने होंगे, उन्हें मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में कई बदलाव देखने को मिल रहे होंगे. मिसाल के तौर पर उस कार्यक्रम में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेता ए बी बर्द्धन एवं डी राजा जैसे नेताओं ने संभावित तीसरे मोर्चे का कुनबा बढ़ाने और उसकी अगुवाई करने की अपील मुलायम सिंह यादव से की थी. मुलायम सिंह ने भी उन दिनों कहा था कि देश में अच्छे हालात नहीं हैं. कांग्रेस ने ग़ैर-बराबरी के ख़ात्मे के लिए जनता से जो वादे किए थे, वे आज तक पूरे नहीं हो सके हैं. उनके मुताबिक़, वह देश में ग़ैर-कांग्रेस और ग़ैर-भाजपा सरकार चाहते हैं, इसलिए वामपंथी दलों को साथ आना चाहिए, क्योंकि समाजवाद और साम्यवाद में बेहद मामूली फ़़र्क है, जिसे इन दोनों पार्टियों को नज़रअंदाज़ करना होगा. उस समय इस लक्ष्य की दिशा में आगे बढ़ने के लिए एक समन्वय समिति के गठन का प्रस्ताव भी दिल्ली में रखा गया, जिसे सभी ने स्वीकार कर लिया था. अपने संबोधन के बाद कार्यक्रम के बीच से निजी व्यस्तता का हवाला देते हुए वह चले गए. कार्यक्रम के आख़िरी पड़ाव में जनता दल यूनाइटेड के अध्यक्ष शरद यादव आते हैं. उस समय शरद यादव एनडीए के संयोजक थे. शरद यादव का पूरा भाषण डॉ. लोहिया के इर्द-गिर्द घूमता रहा. तीसरे मोर्चे की संभावनाओं पर तंज कसते हुए उन्होंने कहा था कि इसके आसार नज़र नहीं आ रहे हैं.
पिछले साल नरेंद्र मोदी को भारतीय जनता पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने के सवाल पर उन्होंने एनडीए से नाता तोड़ लिया. नतीज़तन वही शरद यादव तीसरे मोर्चे को लेकर होने वाली बैठकों में शामिल हो रहे हैं और उन्हें इसकी प्रबल संभावना दिखती है. अब बात करते हैं समाजवादी पृष्ठभूमि से जुड़े रहे डॉ. आनंद कुमार की, जो फ़िलहाल आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता हैं. मस्तराम कपूर की पुस्तक-लोकसभा में लोहिया के लोकार्पण समारोह में उन्होंने क़रीब पैंतालीस मिनट तक भाषण दिया था. उस समय आनंद कुमार की पहचान जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में विशुद्ध प्राध्यापक की रही थी. डॉ. आनंद कुमार ने अपने भाषण में कहा था कि राजनीति और आंदोलन दो अलग-अलग चीजें हैं. जिस तरह आंदोलन से जुड़े लोग राजनीति में सफल नहीं हो सकते, उसी तरह राजनीति से संबंध रखने वाले आंदोलन के लिए मुफ़ीद नहीं हैं. आम आदमी पार्टी से जुड़ने और उनके लोकसभा चुनाव लड़ने की चर्चाओं के बीच, उनसे यह ज़रूर पूछा जाना चाहिए कि क्या आंदोलन और राजनीति को लेकर उनकी राय वही है या उसमें तब्दीली आई है?
भारतीय राजनीति में तीसरे मोर्चे की संभावना जनता पार्टी के प्रयोग की असफलता के बाद लगातार बनी रही. वर्ष 1989 में वामपंथी दलों और भाजपा के समर्थन से राष्ट्रीय मोर्चा बना, उसके बाद वर्ष 1996 में संयुक्त मोर्चा. हालांकि, केंद्र की राजनीति में ये दोनों प्रयोग बहुत ज़्यादा सफल साबित नहीं हुए. तीसरे मोर्चे की राजनीति उभरने से पहले ही काल-कलवित हो गई. यही वजह है कि देश की राजनीति में तीसरा मोर्चा कहीं का ईंट, कहीं का रोड़ा बनकर रह गया. जब भी इसकी ज़रूरत महसूस होती है, उस समय तीसरे मोर्चे के अवशेषों की तलाश की जाती है. लिहाज़ा लोकसभा चुनाव सिर पर है और ऐसे में तीसरे मोर्चे की बातें फिर से होने लगी हैं. जहां पुराने किस्म की राजनीति करने वाले लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव आदि कांग्रेस की साज़िशों में फंसकर अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहे हैं, वहीं इस पूरे परिदृश्य में वामपंथी पार्टियां आज भी एक आख़िरी उम्मीद के साथ धर्मनिरपेक्षता की दरक चुकी नाव को थामने की कोशिश कर रही हैं, ताकि लोकसभा चुनावों में सांप्रदायिक-फ़िरकापरस्त ताक़तों का हौव्वा खड़ा करके किसी तरह चार-पांच सवारों को इस पर बैठने और पार जाने के लिए मनाया जा सके. इसमें कोई शक नहीं कि वामपंथी पार्टियोंे की नाव को इस बार डूबना ही होगा, क्योंकि इस पर मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार, नवीन पटनायक और जयललिता जैसे प्रधानमंत्री पद का सपना संजोए महत्वाकांक्षी मुसाफ़िर सवार हैं, जो कभी भी अपनी राजनीतिक निष्ठाएं बदल सकते हैं.
इसे महज इत्तेफ़ाक नहीं कहा जा सकता है कि समाजवादी नेता किशन पटनायक की प्रेरणा से राजनीति करने वाले और अब आम आदमी पार्टी के चाणक्य बन चुके विनम्र बुद्धिजीवी योगेंद्र यादव ने खुलेआम मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं को अपनी पार्टी में आने का न्योता दे डाला. उन्होंने माकपा के नेताओं से कहा कि वे चाहें, तो डेपुटेशन पर आम आदमी पार्टी में आ सकते हैं. अगर वे चुनाव में हार गए, तो वापस अपनी पार्टी में लौट सकते हैं. जाहिर है, यह आम आदमी पार्टी की नई राजनीतिक व्याख्या हो सकती है. बहरहाल, फरवरी के आख़िरी सप्ताह में संभावित तीसरे मोर्चे की राजनीति करने वाले दलों की ओर से एक बैठक हुई. बैठक में शामिल प्रकाश करात जैसे नेताओं ने भरोसा दिलाया कि संयुक्त मोर्चे के रूप में वे ग़ैर कांग्रेस और ग़ैर भाजपा विकल्प देने को तैयार हैं. बग़ैर किसी नाम के इस मोर्चे में शामिल नेताओं की ओर से यह कहा गया कि उनकी संख्या ग्यारह से बढ़ेगी, लेकिन सच्चाई यह है कि उनकी तादाद बढ़ने की बजाय घटती जा रही है. इससे पहले भी कथित तीसरे मोर्चे की बैठक में चौदह पार्टियां शामिल हुई थीं. हालांकि इस बार बीजू जनता दल और असम गण परिषद के शीर्ष नेता नवीन पटनायक एवं प्रफुल्ल कुमार महंत इस बैठक में कहीं नज़र नहीं आए. 5 फरवरी को ग्यारह राजनीतिक दल ग़ैर भाजपा-ग़ैर कांग्रेस मोर्चा खड़ा करने के लिए लामबंद हुए थे. इस बैठक में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, आरएसपी, फारवर्ड ब्लॉक, समाजवादी पार्टी, जनता दल यूनाइटेड, अन्नाद्रमुक, जनता दल सेक्युलर, झारखंड विकास मोर्चा, असम गण परिषद और बीजू जनता दल शामिल थे. मोर्चा गठित होने के पांच दिनों बाद यानी दस फरवरी को इस बाबत पुन: एक बैठक होती है, लेकिन समाजवादी पार्टी, बीजू जनता दल और असम गण परिषद का कोई नुमाइंदा उसमें शामिल नहीं हुआ.
हो सकता है कि उनकी ग़ैर मौजूदगी की कोई वजह रही हो, लेकिन पिछली बार की तरह इस बार भी अन्नाद्रमुक प्रमुख जयललिता ने स्वयं न आकर अपने एक प्रतिनिधि को दिल्ली भेजा. हैरानी की बात तो यह है कि जिस समय यह तीसरा मोर्चा दिल्ली में अपनी ताक़त दिखा रहा था, उसी समय तमिलनाडु में जयललिता अपनी पार्टी का घोषणापत्र जारी कर रही थीं. उनके इस रुख़ से कतई नहीं लगता कि वह किसी तीसरे या चौथे मोर्चे को लेकर संजीदा हैं. ऐसे में सवाल यह उठता है कि जिस मोर्चे का न तो अभी कोई नाम तय हुआ है और न ही कोई नेता, वह भला आगामी लोकसभा चुनाव के बाद किस बुनियाद पर ग़ैर कांग्रेस और ग़ैर भाजपा सरकार बनाने की बात कर रहा है. प्रधानमंत्री के दावेदार संबंधी पूछे जाने वाले सवाल पर वे मोरारजी देसाई, विश्वनाथ प्रताप सिंह, एचडी देवेगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल का नाम गिनाने लगते हैं कि ये नेता चुनाव बाद ही प्रधानमंत्री के तौर पर पेश किए गए थे. ग़ैर कांग्रेस और ग़ैर भाजपा सरकार बनाने का दंभ भरने वाले कथित तीसरे मोर्चे में शामिल नेताओं को यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि एच डी देवेगौड़ा और आई के गुजराल की सरकारें कांग्रेस की मेहरबानी से ही चल पाईं. फ़िलहाल तीसरे मोर्चे के नेता कांग्रेस और भाजपा से समान दूरी रखने की बात कह रहे हैं, लेकिन मुलायम सिंह यादव जैसे नेता एक तरफ़ कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार को कोसते हैं, वहीं दूसरी तरफ़ उसे समर्थन भी देते हैं. जहां तक जनता दल यूनाइटेड की बात है, तो एनडीए की सहयोगी रही यह पार्टी नरेंद्र मोदी के सवाल पर भाजपा से अलग हो गई. लोकसभा चुनाव नज़दीक आते देख जदयू ने बिहार में कांग्रेस के साथ तालमेल करने की भरपूर कोशिश की, लेकिन कांग्रेस का साथ न मिलने पर वह संभावित तीसरे मोर्चे में अपना भविष्य तलाश रही है.
फ़िलहाल इस मोर्चे को अमलीजामा पहनाने का काम मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव प्रकाश करात कर रहे हैं. संयोग से यह उसी माकपा के वरिष्ठ नेता हैं, जिसने अपने साढ़े तीन दशकों के शासन में पश्चिम बंगाल के उद्योग-धंधों को रसातल में पहुंचा दिया और वहां की जनता को रोज़ी-रोज़गार के लिए पलायन करने को मजबूर कर दिया. पश्चिम बंगाल में वामदलों की हार का सिलसिला यहीं नहीं थमा, बल्कि कुछ समय बाद हुए पंचायत और स्थानीय निकायों के चुनाव में भी तृणमूल कांग्रेस का परचम लहराया. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की जीत इस लिहाज़ से भी महत्वपूर्ण है कि उसने बंगाल की अवाम को वामदलों के उस मोह से बाहर निकाला, जिसका फ़ायदा अब तक वामपंथी दल किसी न किसी रूप में उठाते रहे थे.
वर्ष 2011 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी ने चौंतीस वर्षों से सत्ता पर क़ाबिज मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के किले को ध्वस्त कर दिया. इस चुनाव में माकपा की शर्मनाक हार का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राज्य की कुल 294 विधानसभा सीटों में से तृणमूल कांग्रेस ने 184 सीटों पर जीत हासिल की थी.
प्रधानमंत्री बनने की तीव्र महत्वाकांक्षा पाले मुलायम सिंह यादव की राह में न स़िर्फ मायावती ही रोड़े अटकाएंगी, बल्कि उत्तर प्रदेश के बदले हुए राजनीतिक और सामाजिक माहौल में मुलायम की मंशा फलीभूत होती दिखाई नहीं दे रही है. तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक डीएमके से टूटकर वजूद में आई थी. जयललिता और करुणानिधि तबसे राज्य में एक-दूसरे के प्रबल विरोधी हैं. तीसरे मोर्चे का राग अलापने वाले वामपंथी दल यूपीए प्रथम सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे थे. अमेरिका के साथ परमाणु क़रार के मुद्दे पर ही वामदलों ने मनमोहन सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया. उस वक्त मनमोहन सरकार को समाजवादी पार्टी ने संजीवनी देने का काम किया था.
उल्लेखनीय है कि पंद्रहवीं लोकसभा में मौजूदा तीसरे मोर्चे में शामिल 11 दलों के पास सौ से कम सीटें हैं. अगली लोकसभा में अगर इनकी संख्या 100 हो जाती है, जैसा कि उम्मीद नहीं है, फिर भी इस दम पर केंद्र में सरकार बनाने का उनका दावा हास्यास्पद प्रतीत होता है. दरअसल, तीसरे मोर्चे में एक नहीं, बल्कि कई अंतर्विरोध हैं. मसलन, बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी का एक साथ तीसरे मोर्चे का हिस्सा बनना संभव नहीं है. उसी तरह राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल यूनाइटेड कभी भी एक साथ नहीं हो सकते.
जहां तक माकपा के महासचिव प्रकाश करात का सवाल है, तो उन्होंने अप्रैल, 2013 में अगरतला की एक सभा में कहा था कि केंद्र में तीसरा मोर्चा बनाना आसान नहीं है, क्योंकि विभिन्न राजनीतिक पार्टियां इसे लेकर अपना रुख बदलती रही हैं. अगर देखा जाए, तो तीसरे मोर्चे को लेकर प्रकाश करात के बयानों में भी काफी विरोधाभास नज़र आता है. इतना ही नहीं, दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की अप्रत्याशित जीत के बाद उन्होंने अरविंद केजरीवाल की खुलकर तारीफ़ की थी. उन्होंने माकपा नेताओं को आप से सीख लेने तक की नसीहत दे डाली. लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र तीसरे मोर्चे की हो रही क़वायद के बीच जहां संसदीय राजनीति करने वाले वामदल समाजवादियों के साथ मिलकर देश को नए राजनीतिक विकल्प का सपना दिखा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर वाम बुद्धिजीवियों का एक बड़ा तबका तीसरे मोर्चे की संभावनाओं को सिरे से ख़ारिज करता है.
दरअसल, देश की राजनीति में तीसरा मोर्चा उस कमज़ोर पेड़ की तरह है, जिसकी न जड़ मजबूत है और न ही तना और अंत में जिसमें कोई फल नहीं लगता. अगर फल आ भी जाए, तो वह असमय गिरकर नष्ट हो जाता है. मौजूदा समय में जिस अनाम तीसरे मोर्चे की शक्ल दिख रही है, वह देश को ग़ैर कांग्रेस और ग़ैर भाजपा विकल्प देने से कहीं ज़्यादा अपना सियासी वजूद बचाने का फ़िक्रमंद है. पश्चिम बंगाल में वामदलों, बिहार में जनता दल यूनाइटेड, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और असम में असम गण परिषद के शीर्ष नेताओं को फ़िलहाल अपने राज्यों में यही चिंता सता रही है.
आगामी लोकसभा चुनाव के परिणाम न स़िर्फ चौंकाने वाले होंगे, बल्कि कई और लिहाज़ से भी 2014 को याद रखा जाएगा. अगले कुछ महीनों में होने वाले इन चुनावों में कई सियासी समीकरण बनेंगे और कई ध्वस्त होंगे, इससे इंकार नहीं किया जा सकता. लिहाज़ा मौजूदा समय में तीसरे मोर्चे की जो क़वायद वामपंथी और समाजवादी दलों के नेता कर रहे हैं, उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि देश की राजनीति में तीसरे मोर्चे की संभावना और उसकी ताकत लगातार कमज़ोर हुई है. ऐसे में इस बात की पूरी आशंका है कि आगामी लोकसभा चुनाव में तीसरा मोर्चा बुरी तरह नाक़ाम साबित हो सकता है और अगर ऐसा हुआ, तो राजनीति के गलियारे में यह नाम हमेशा के लिए गुमनाम हो जाएगा.