सांझ के धुंधलके में गधबेर होने पर कार्तिक की हलवाहीं से तीन जीवों का प्रत्यागमन. दिन भर कड़ेर कठिन पथराइल करैत खेत जोतने की श्लघता और पैने की चोट से आहत तथा जवानी के मद से मत्त मस्ती को जताने के लिए गर्दन में बंधी घंटी को टुनटुनाते दो बैल. पीछे-पीछे हल जुआठ के बोझ से सिकुड़ा, दुहरा होता हुआ घुरबीगना हलवाहा. बैलों के गर्दन की घंटी की टुनटुनाहट सुनते ही दरवाजे पर उपस्थित पुरुष वर्ग बगबगा कर हरकत में आ गया. सभी फुसफुसाने लगे, बैल आ गए, बैल आ गए. बिजली के वेग से पानी, खली, दाना, भूसा, महुआ आदि भोज्य की तैयारी शुरू हो गई. एक-दो सवांग आगे बढ़कर सहलाते हुए बैलों को नाद-चरण पर ले आए, बिल्कुल वीआईपी की तरह. सभी लोग अपना काम छोड़कर वृषभ सेवा में व्यस्त हो गए, मानों बैल उनके धनसुत हों. वृषभ सेवा से फुर्सत मिलते-मिलते अंधेरा हो चला और तब जाकर कोने में सुटुके हुए बेचारे घुरबीगना हलवाहे पर नज़र पड़ी बड़े मालिक की. उन्होंने कड़क आवाज़ में पूछा, तू यहां क्यों बैठा है रे? यह हलवाही से लौटा तीसरा बैल है, घुरबीगना हलवाहा. वस्तुत: बैल भी नहीं, पशु श्रेणी में बैल से भी निम्न स्थान पाने वाला जानवर.
मालिक के प्रश्नोत्तर में घुरबीगना सहमा-सहमा मिमियाया, बनि चाहिए. सुनते ही बुढ़ऊ मालिक डपट पड़े, रोज-रोज बनि दिया जाता है? हफ्ता पूरा होने पर बनि लेना सीखो. वैसे भी अभी दूबेरा की संधि-बेला है और ऐसी घड़ी में कुछ लेना-देना वर्जित है. इस पर घुरबीगना धीरे-से घिघियाया, घर में खर्ची के नाम पर कुछ भी नहीं है, लड़के-फड़के दिन से ही भूखे होंगे. बुढ़ऊ मालिक अभी आंख गुंडेर ही रहे थे घुरबीगना पर कि घुरबीगना की घिघियाहट पर तरस खाकर उनका अर्द्धशिक्षित पोता टुमुका, दे ना दीजिए. खाएगा नहीं, तो दिन भर देह-जांगर कैसे ठेटाएगा? पांडे बाबा के हलवाहा की तरह बीडीओ ऑफिस चला जाएगा, तब समझ में आएगा. बुढ़ऊ मालिक गरज पड़े, तुम से कौन पूछता है, जो वकालत छांट रहे हो. पढ़ाई में तो हर साल फेल ही करते हो, लेकिन मेरी बात काटने में सीआर दास बैरिस्टर बन जाते हो. चउवनिया मुस्कुराहट के साथ वह युवक पुन: टुमुका, जाइए, हम नहीं बोलेंगे. हल जुतवाने से यदि संतोष नहीं होता है, तो घुरबीगना की नस में छुंछी लगाकर सीरिंज से दो बोतल खून निकाल लीजिए, काम आएगा. बेचारे बुढ़ऊ मालिक को दबना पड़ा. वह नरम आवाज़ में बोले, ऐ भाई, आजकल की पढ़ाई में क्या यही सिखाया जा रहा है? खैर, मारो गोली. ऐ बड़कू, बूढ़ी से बोल दो बनि देने के लिए.
छह महिनवा नन्हका पोता को तेल में अबटती और उससे बड़े गोद में खेलने वाले गोदिलवा पोता को माड़-भात खिलाती बुढ़िया मलिकाइन के कान में जब यह संदेश पड़ा, तो अपनी व्यस्तता से जरा भी विचलित हुए बिना वह बड़बड़ाईं, मार मटिलगवना रे, यह भी कोई समय है बनि का और उसी स्वर में पोती को आदेश दिया, अरे असतुरनी, देखो तो बनि वाला बटखरा कहां है? (यह ग्रामीण शाश्वत सत्य है कि बनि वाला बटखरा सामान्य बटखरा से वजन में न्यून होता है और उसका प्रयोग बनि तौलने के अतिरिक्त नहीं होता.) अंधकार में भी टटोलते हुए असतुरनी ने येन-केन-प्रकारेण बनि वाला बटखरा खोज तो लिया, लेकिन काफी समय लगाकर. तत्पश्चात मातृरूपा बुढ़िया मलिकाइन ने बनि तौल कर घुरबीगना के गमछे में बांधकर दरवाजे पर भिजवा दिया. घुरबीगना को सदा की तरह पता था कि गमछे में बंधा या तो गेहूं होगा अथवा धान, बना-बनाया आटा या चावल नहीं. इसके बावजूद उस गठरी को पाकर घुरबीगना इस तरह अगराया, जैसे कोई हुंडी मिल गई हो. इस अंतराल में बैलों को स्वाद बदलने के लिए चोकर-चलौंसी बार-बार नाद में छिड़का गया, मालिक लोगों के लिए नाश्ता आया, चाय की प्यालियां खनखनाईं, बुढ़ऊ मालिक की चिलम गरमाई, लेकिन घुरबीगना की ओर किसी ने दृष्टिपात नहीं किया.
और दिनों की तरह ही घुरबीगना के घर के सभी आबाल-वृद्ध बनि के अनाज को पीसने-छांटने में व्यस्त हो गए. इन सभी से चिंतामुक्त घुरबीगना ज्यों ही टूटी खटोली में लेटा, फोंय-फोंय उसकी नाक बजने लगी. आधी रात को रसोई तैयार होने पर घुरबीगना की पत्नी ने उसे जगाकर खाना खिलाया. अन्न की खुमारी से घुरबीगना पुन: गहरी नींद में सो गया. शुक्रतारा की चमक पराकाष्ठा पर ही थी, ब्रह्मबेला के पूर्व वाले तारे अभी भी स्पष्टत: झिलमिला रहे थे और घुरबीगना की सुषुप्ति अभी जवानी पर थी, तभी मझिला मालिक आलाप लेते पहुंचे, अर्द्धरात्रि गए कपि नहीं आवा. घुरबीगना के दरवाजे पर पहुंचते-पहुंचते कर्कश आवाज में हंकड़े, सोए ही रहोगे? आज छपटा बधार में हल चलेगा. शीघ्र तैयार हो जाओ, दो मील जाना है. जैसे रिंग मास्टर के हंटर की सांय-सांय की आवाज़ सुनते ही सर्कस के बाघ कांपने लगते हैं, वैसे ही घुरबीगना भयाक्रांत होकर खाट पर से उछल पड़ा, क्योंकि उसे ज्ञात है कि पहलवान मझिला मालिक के हाथ के निछोही घावे मारे हुए चटकन से जो बाम शरीर पर पड़ता है, तो वह तीन दिनों तक परपराता है, छनछनाता है.
यह कालचक्र घुरबीगना का जीवन चक्र बन गया है. ब्रह्मबेला में मुर्गे की आवाज़ के साथ उसकी कर्मठ श्रमशिक्त दिनचर्या शुरू होती है और अर्द्धरात्रि को पारण कर उसके व्रत का पुरश्चरण होता है. उसका पूरा कुनबा इसी तरह कतरा-कतरा जी रहा है, रफ्ता-रफ्ता मर रहा है. तथापि यह तीसरा जानवर कभी कहीं किसी से कोई गिला-शिकवा नहीं करता. घुरबीगना यह शाश्वत सत्य अच्छी तरह जानता है कि कमजोर जानवर को यह अधिकार नहीं है कि वह अपने से शक्तिमान के विरुद्ध बुदबुदाए. कोई विधान या संविधान बने, कोई मुखिया-प्रधान चुना जाए, परंतु इस तीसरे जानवर का उद्धार नहीं हो सकता है.
(लेखकीय टिप्पणी: यह कहानी उन दिनों लिखी गई थी, जब खेती बैलों द्वारा होती थी और बैल किसान के दरवाजे की शान होते थे.)
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