बात 2007 की है. आम भारतीय ग्रामीण महिलाओं की तरह 24 वर्षीय मीरा सैनी को भी नहीं मालूम था कि उनका करियर किस तऱफ जा रहा है. राजस्थान के एक दूरदराज के गांव बगड़ की मीरा सैनी वैसे तो स्कूल टीचर थीं, लेकिन उन्हें ज़िंदगी हमेशा नीरस-सी लगती थी. वह हर पल कुछ नया और अलग करने की सोचती थीं, लेकिन ग्रामीण परिवेश के सीमित संसाधन और परंपरागत सामाजिक बंदिशें उनकी सोच के आड़े आ रही थीं. लेकिन आज मीरा सैनी के अलावा बगड़ गांव की अन्य महिलाएं भी कंप्यूटर पर महारथ हासिल कर देश और दुनिया के ग्राहकों को बीपीओ सेवाएं दे रही हैं. जी हां, अब वे अपने समुदाय की रोल मॉडल बन चुकी हैं.
मीरा सैनी ने जब अपने गांव बगड़ में खुले महिला बीपीओ के बारे में सुना तो उन्होंने टीचर की नौकरी को टाटा कह दिया और सोर्स फॉर चेंज (एसएफसी) नामक बीपीओ से जुड़ गईं. मीरा कहती हैं कि यहां पर आमदनी पहले से कुछ कम भले ही हो, लेकिन कंप्यूटर ट्रेनिंग से महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने का आइडिया मुझे पसंद आया और मैं एसएफसी से जुड़ गई. दरअसल, एसएफसी बगड़ में चलने वाला देश का पहला महिला बीपीओ है. यह देश-विदेश के ग्राहकों को डाटा एंट्री, डाटा मेंटेनेंस, कांटेक्ट वेरीफीकेशन जैसी सेवाएं देता है. दसवीं पास शोभा एकल विद्यालय में बच्चों को पढ़ाती थी, लेकिन अब वह भी इस बीपीओ से जुड़ चुकी हैं. शोभा कहती हैं-यहां हमें न केवल कंप्यूटर ट्रेनिंग मिलती है, बल्कि अंग्रेजी भी सिखाई जाती है. पहले मुझे समझ नहीं आ रहा था कि पढ़ाई के बाद क्या करुं, लेकिन अब कंप्यूटर सीख कर मैं इसी क्षेत्र में काम करूंगी. ऐसा ही अनुभव रजनी का भी है. उनके दो बच्चे हैं और पति खेती का काम करते हैं. घर के काम से समय निकाल कर वह गांव के बीपीओ में काम करती हैं और जो कुछ वह यहां सीखती हैं, अपने बच्चों को भी उसके बारे में बताती हैं.
अक्टूबर 2007 में दस महिलाओं से शुरू हुए एसएफसी का इस समय दूसरा बैच चल रहा है. फिलहाल यहां 40 महिलाएं काम कर रही हैं. महिलाओं को घर का काम भी करना पड़ता है, इस बात को ध्यान में रखते हुए चार और आठ घंटे की दो शिफ्ट में कार्य करने की सहूलियत दी जाती है. ग्रामीण इलाक़ों में किसी नए प्रयोग को लेकर स्थानीय लोगों के मन में तरह-तरह के सवाल उठना स्वाभाविक है. बगड़ में रूरल बीपीओ संचालित करने वाली संस्था सोर्स फॉर चेंज के संस्थापकों को भी कुछ इसी तरह के सवालों का सामना करना पड़ा. जैसे-आप यहां क्यों आए हैं, आपको क्या मिलता है, क्या आपको सर्टीफिकेट मिलता है?
बगड़ में देश के पहले महिला बीपीओ की स्थापना करने जा रहे नौजवानों से स्थानीय लोग अक्सर इस तरह के सवाल पूछते थे. सोर्स फॉर चेंज राजस्थान के झुंझनु जिले के पीरामल फांउडेशन द्वारा संचालित ग्रासरूट डेवेलपमेंट लेबोरेटरी (जीडीएल) का हिस्सा है. जीडीएल ग्रामीण जीवन में सकारात्मक बदलावों पर आधारित आइडिया को सहयोग एवं प्रोत्साहन प्रदान करती है.
अमेरिका में जन्मे और वहीं से ऑप्टीकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद आलिम हाजी चाहते तो किसी कार्पोरेट कंपनी में नौकरी करते हुए आराम की ज़िंदगी बसर कर सकते थे, लेकिन ग्रामीण भारत में एक सकारात्मक बदलाव की चाह उन्हें राजस्थान के गांव बगड़ तक खींच लाई. बगड़ में आलिम सोलर एनर्जी का प्रोजेक्ट लगाना चाहते थे, लेकिन जब उन्हें पता चला कि यहां बिजली पहले से मौजूद है और सस्ती भी है, तो सोलर एनर्जी का विचार छोड़कर उन्होंने अन्य विकल्पों के बारे में सोचना शुरू कर दिया. यहीं पर आलिम की मुलाक़ात कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी से अर्थशास्त्र की डिग्री प्राप्त गगन राणा से हुई और दोनों ने मिलकर सोर्स फॉर चेंज की शुरुआत कर दी. उत्साही युवाओं की इस टीम में गगन और आलिम के अलावा अमेरिका की केस वेस्टर्न रिजर्व यूनिवर्सिटी से अर्थशास्त्र में स्नातक कार्तिक रमन, बेल्जियम में पली-बढ़ी और शिक्षित आशिनी कोठारी एवं बायोटेक्नोलॉजी में स्नातक मुंबई के बीपीओ प्रोफेशनल श्रोत कटेवा शामिल हैं. इन युवाओं ने परदेस की गलियां छोड़कर ग्रामीण भारत की पगडंडियों पर चलने का निर्णय किया और अब वे महिलाओं को तकनीक का पाठ पढ़ाकर न केवल उन्हें आत्मनिर्भर बनाने में जुटे हैं, बल्कि बगड़ जैसे गांव को एक नई पहचान दी है.
एसएफसी के प्रमुख ग्राहकों में दवा निर्माता कंपनी पीरामल ग्रुप, प्रथम एनजीओ, सीआईआई, राजस्थान सरकार और अमेरिका की मेरीलैंड यूनिवर्सिटी शामिल हैं. जबकि आईसीआई, बेंगलुरू स्थित ड्रीम-ए-ड्रीम और जयपुर की अरावली नामक एनजीओ के साथ बातचीत जारी है. हाल ही में प्रथम के लिए एसएफसी में कार्यरत महिलाओं ने 19 हज़ार से अधिक फार्म की डाटा एंट्री 21 दिनों में संपन्न की है. प्रथम के लिए डाटा एंट्री करने वाली 20 संस्थाओं में सबसे गुणवत्तापूर्ण कार्य के लिए एसएफसी को सराहा भी गया है. बीपीओ की शुरुआत से पहले स्थानीय माहौल और लोगों की प्रतिक्रिया जानने के लिए बगड़ का सर्वे किया गया था. सर्वे से पता चला कि ग्रामीण परिवेश में प्रचलित सामाजिक प्रतिबंधों के चलते महिलाओं और पुरुषों से एक साथ काम नहीं कराया जा सकता. यह बात भी सामने आई कि यदि पुरुषों को ट्रेनिंग दी गई तो वे अच्छी नौकरी के फेर में गांव छोड़कर बड़े शहरों की ओर पलायन कर जाएंगे. इसी बात को ध्यान में रखकर महिलाओं को प्रशिक्षित करने का निर्णय लिया गया, ताकि वे अपने घर-परिवार में रहकर स्वयं आत्मनिर्भर बनने के साथ-साथ बच्चों को भी बेहतर शिक्षा दे सकें. आशिनी कोठारी इस आइडिया को बिज़नेस मॉडल के लिए भी अच्छा मानती हैं. लेकिन यह सब इतना आसान नहीं था. टीम के अन्य सदस्यों की अपेक्षा गांव की महिलाओं और उनके परिवार वालों को सहमत करने की ज़िम्मेदारी आशिनी पर सबसे अधिक थी. टूटी-फूटी हिंदी में आशिनी कहती हैं कि यहां उन्हें काफी मेहनत करनी पड़ी. एसएफसी के सीईओ कार्तिक रमन रूरल बीपीओ स्थापित करने की कड़ी में ग्रामीण महिलाओं की ट्रेनिंग को सबसे चुनौतीपूर्ण कार्य मानते हैं. रमन की योजना साल के अंत तक चिड़ावा और झुंझनू जैसे आसपास के क़स्बों में भी एसएफसी के सेंटर खोलने की है और आगामी तीन सालों में एसएफसी में 1000 महिलाएं शामिल करने का वह इरादा रखते हैं. वह कहते हैं कि सोर्स फॉर चेंज का केंद्र ग्रामीण इलाक़े में होने से ग्राहकों को जल्दी विश्वास नहीं होता, जिसके लिए ट्रायल देकर उन्हें संतुष्ट करना पड़ता है. मीडिया में एसएफसी को एनजीओ बताए जाने से कई बार ग्राहकों का विश्वास जीतने में द़िक्क़त आती है. इसलिए रमन स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि, हम कोई एनजीओ नहीं बल्कि एक बिज़नेस आर्गेनाइजेशन हैं, जिसका मक़सद ग्रामीण महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के साथ-साथ दुनिया भर में अपने ग्राहकों को सर्वोत्तम सेवाएं देना है. हमारा लक्ष्य तकनीक पर आधारित विभिन्न उद्यमों द्वारा ग्रामीण भारत की एक लाख महिलाओं को रोज़गार देना है. आलिम बताते हैं कि चार घंटे काम करने वाली महिलाओं को दो हज़ार रुपये और आठ घंटे काम करने वाली महिलाओं को चार हज़ार रुपये प्रतिमाह दिए जाते हैं. उनके मुताबिक, शुरू में परिवार वालों को महिलाओं को घर से बाहर भेजने के लिए विश्वास में लेने में काफी मेहनत करनी पड़ी, लेकिन जब दूसरे बैच के लिए गांव में प्रचार किया गया तो क़रीब 70 महिलाएं एडमिशन के लिए पहुंच गईं. इनमें से इंटरव्यू और अभिरुचि टेस्ट के आधार पर 30 महिलाओं का चयन किया गया. एसएफसी में काम करने की इच्छुक महिलाओं को कम से कम दसवीं पास होना अनिवार्य है. बकौल रमन, लैंग्वेज स्किल्स की अपेक्षा टैक्नीकल स्किल्स सिखाना ज़्यादा आसान होता है. भारत के 14.8 बिलियन की बीपीओ इंडस्ट्री में एसएफसी भले ही एक छोटा प्रयास जान पड़ता हो, लेकिन ग्रामीण भारत के सशक्तीकरण की संभावनाएं इसमें साफ दिखाई पड़ती हैं.
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