हमारे यहां चुनाव चल रहे हैं और वहां युद्ध चल रहा है। दोनों तरफ़ तबाही का मंजर है। हमारे यहां वोटर को हर बार भेड़ बकरी मान कर उसके दिमाग में भूसा भरने का काम किया जाता है। और इस काम में बेशर्म पार्टियों के बीच होड़ नजर आती है। इस बार भी वही हो रहा है। लेकिन कुर्सी के ‘वीभत्स’ मोह ने बीजेपी को जितना नंगा किया उससे ज्यादा नंगा बीजेपी ने इस राजनीति को कर दिखाया है। याद कीजिए साठ सत्तर के दशक के साफ सुथरे चुनावों को। पहचान नहीं पाएंगे कि यह वही देश है। भूखे शेर की मानिंद एक दल ने सत्ता पर झपट्टा मारा है। खौफ ऐसा कि यदि विपक्ष जीत भी जाए तो हमेशा दहशत में रहे क्योंकि यह भूखे शेर वाला दल कब देखते देखते ‘ऑपरेशन लोटस’ चला कर उसे सत्ताच्युत कर दे । कैसी राजनीति है यह । राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बढ़ते पूंजीवाद ने हर किसी को बिकने के लिए मंडी में सजा कर खड़ा कर दिया है।
जो भाजपा श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय के पदचिन्हों पर चलने का दम भरती है उन दोनों महानुभावों की आंखों में भी कुछ शरम जरूर रही होगी। मोदी के नेतृत्व ने सारी शर्म हया को धो दिया है। अब सब नंगे हैं। विपक्षी पार्टियां कितनी नंगी हो पाती हैं जनता के सामने यही नुमाइश होना बाकी है। कहा जाता है कि जनता बहुत समझदार है। पता नहीं, पर इतना तो हम जरूर बता सकते हैं कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस हर हालत में अच्छे मार्जिन से जीतेगी। उसकी सीधी वजह यह है कि जनता ने पिछली बार कांग्रेस को जिताया था लेकिन भाजपा ने दलबदल करा कर या खरीदफरोख्त कर अपनी सरकार बना ली। भारत की जनता का चरित्र रहा है कि और चाहे जो हो पर गद्दारी को वह बर्दाश्त नहीं कर सकती। इसलिए हमें लगता है कि मध्यप्रदेश में इस बात का सबक तो जनता भाजपा को सिखाएगी ही ।
पूरे देश में इस समय अंदरुनी तौर पर भाजपा या कहिए मोदी की राजनीति से लोग आजिज आ चुके हैं। लेकिन जो नंगे होते हैं उन्हें ऐसी बातों की परवाह नहीं होती। दुखद यह है कि जितनी तेजी से या जिस डिग्री से मोदी ने राजनीति को पलटा है उसे दूसरे दल उस तेजी से कितना समझ पाये हैं। समझें भी हों तो उस पर भारी पड़ेंगे ऐसा तो कहीं दिखता नजर नहीं आता। इसीलिए हमने पिछली बार लिखा था कि सब कुछ जनता के ऊपर है। किसी भी विपक्षी दल ने इतनी जहमत नहीं उठाई कि जनता के बीच जा जाकर मोदी सरकार की सच्चाइयां बताते । बहरहाल, अब हम ‘परसेप्शन’ की लड़ाई देख रहे हैं। और दिख रहा है कि इस लड़ाई में मोदी सरकार पीछे है। कहां कहां और कितनी पीछे है या कहां कितनी आगे यह महीने डेढ़ महीने की बात है। लेकिन मीडिया फिर चाहे वह मेन मीडिया या हो सोशल मीडिया इनके भोंपू के कोई मायने हमें लगते नहीं। जनता मूड बना चुकी है और अभी और बनाएगी। जिसे ‘फ्लोटिंग वोटर’ कहा जाता है वह भी अपना कमाल दिखाएगा। जैसे इन चुनावों में सर्कस हो रही है वैसी ही सर्कस आप यूट्यूब पर देखिए या गोदी मीडिया में। हर वक्त अपने समय का आईना होता है। जब ईमानदारी से चुनाव थे तो ईमानदारी से प्रचार होता था। बेईमानी घुसी तो उसने हर चीज में अपनी जगह बनाई। आज बेईमानी हरामखोरी और छल प्रपंच का रूप ले चुकी है। सवा डेढ़ महीने बाद विधानसभा चुनावों के परिणाम आएंगे। उससे लोकसभा के सारे अंकगणित तय होंगे। उसकी बात बाद में।
तबाही का दूसरा मंजर हम युद्ध में देख रहे हैं। हम देख रहे हैं कि रूस किस तरह यूक्रेन को तबाह करने पर उतारू है तो दूसरी तरफ इजराइल हमास के बहाने फिलीस्तीन शब्द ही नेस्तनाबूद कर देना चाहता है। दोनों युद्धों में दुनिया अपने अपने हिसाब से बंट गई है। लेकिन जितना एका हम इजराइल के दोस्तों में देख रहे हैं उतना एका फिलीस्तीन के साथ उसके हमदर्दों का क्यों दिखाई नहीं देता। मिस्र जैसा देश कभी दोस्त कभी बेगाना सा दिखता है। पैसे और स्वार्थों से बदलती दुनिया में लगता है न दोस्त दोस्त रह गये हैं न दुश्मन दुश्मन। सब अदल बदल हो रही है । ईरान की इजराइल को धमकियां गीदड़ भभकी लग रही हैं। अंतरराष्ट्रीय राजनीति ने फिलहाल सभी देशों को अपने अपने देशों के भीतर की राजनीति से एक ओर बांधा है तो दूसरी ओर ऊटपटांग हरकतें करने को मजबूर किया है। ऐसी हरकतें हमने बाईडेन की देखी हैं इन दिनों। जो भी हो तबाही का मंजर तो फिलीस्तीन के गज़ा में और यूक्रेन में हम देख ही देख ही रहे हैं। इजराइल के प्रधानमंत्री की राजनीतिक मजबूरियां सब जानते हैं लेकिन इन मजबूरियों के चलते कोई प्रधानमंत्री इस कदर क्रूर हो जाएगा यह भी देखा जा रहा है। गज़ा की खबरों और तस्वीरों ने पूरी दुनिया को हिला कर रख दिया है। लेकिन बताते हैं कि यहूदियों के ईश्वर का एक मंत्र है – आंख के बदले आंख और दांत के बदले दांत।
युद्धों और चुनावों के बीच भी दुनिया तो अपनी तरह से चलती ही रहती है। उस प्रसंग में बात करें कल के ‘सिनेमा संवाद’ कार्यक्रम की तो कल का विषय श्याम बेनेगल को लेकर रहा। कल अभय दुबे शो नहीं आया। श्याम बेनेगल की फिल्मों पर और उनकी समूची दुनिया पर चार लोगों ने मिल कर अच्छी चर्चा की । सुनने लायक हैं सबकी बातें। एक कार्यक्रम शबाना और स्मिता पाटिल को एक साथ मिला कर भी किया जाना चाहिए। दोनों न केवल समकालीन हैं, बल्कि दोनों ने साथ कई फिल्मों में काम किया है। प्रतिस्पर्धा तो दोनों में रही ही है। याद नहीं पड़ता कि श्याम बेनेगल की कोई फिल्म हमसे छूटी हो । दस एपीसोड का धारावाहिक ‘संविधान’ भी उन्होंने राज्यसभा टीवी के लिए बनाया था जो अभूतपूर्व है लेकिन कल उसकी चर्चा नहीं हुई। बस याद दिलाने भर को पारेख जी ने बता दिया।
‘सत्य हिंदी’ पर लगता है किसी का कोई वश नहीं है। सब अपने अपने हिसाब से धकमपेल के साथ चल रहे हैं। आपस में एक दूसरे के कार्यक्रमों की समीक्षा बैठक भी नहीं करते , लगता है। मुकेश जी के कार्यक्रमों में हमेशा खड़खड़ाहट चलती रहती है। बुलेटिन में पूरी की पूरी खबरें रिपीट कर दी जाती हैं। बताए समय पर बुलेटिन आता ही नहीं। खासतौर पर रात दस बजे । विजय त्रिवेदी का शो शुरु हुआ फिर कब बंद हो गया। शीतल जी ने भी शो शुरु किया। कभी दिखा कभी गायब । सवाल जवाब कार्यक्रम में जो भी आता है अच्छी-अच्छी बातें करता है। मुकेश कुमार ने राहुल गांधी के बारे में बेहतरीन विश्लेषण किया हालांकि बड़ा संक्षेप में था। अंबरीष जी अपने कार्यक्रम से ज्यादा यहां अच्छे लगते हैं। सधी हुई बातें करते हैं और हिलते डुलते भी नहीं। सुबह अखबारों का कार्यक्रम अच्छा रहता है लेकिन अगर केवल अखबारों पर ही फोकस रहे तो ।
बाकी इस उथल-पुथल के समय में इंतजार कीजिए और देखिए कहां का ऊंट किस करवट बैठता है। आशुतोष सबके इंटरव्यू लेते हैं एक बार खुद ही चले जाएं युद्ध के मैदान में। सब तेलअवीव जा रहे हैं ये गज़ा चले जाएं । उनकी एक नमस्कार से इजराइल के रॉकेट थम जाएंगे। ….. अभी होली नहीं आयी पर होली का रंग तो बारह महीने रहना ही चाहिए न ।

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