छोटे लोहिया यानी जनेश्वर मिश्र के निधन के बाद इस देश में समाजवादी आंदोलन की आ़खिरी कड़ी के रूप में रह गए थे सुरेंद्र मोहन, लेकिन यह आखिरी कड़ी भी टूट गई. 17 दिसंबर की सर्द सुबह. नियति ने प्रख्यात समाजवादी नेता सुरेंद्र मोहन को हमसे छीन लिया और इस तरह समाजवादी आंदोलन की अंतिम याद भी हमसे छिन गई. उनके निधन के साथ ही प्रतिबद्ध, स्पष्टवक्ता और सत्ता के लालच से कोसों दूर रहने वाले नेताओं की एक छोटी, लेकिन मज़बूत कतार भी खत्म हो गई. जानने वाले उन्हें समाजवाद की डायरेक्टरी कहते थे. कुछ दिनों पहले ही पता चला था कि सुरेंद्र जी लोहिया के सपनों को एक बार फिर से पूरा करने की तैयारी में लगे हैं. दरअसल, वह राजिंदर सच्चर के साथ लोहिया के विचारों से जुड़ी एक समाजवादी पार्टी का गठन करने वाले थे, लेकिन ईश्वर को शायद यह मंजूर नहीं था.
सुरेंद्र मोहन जी का मानना था कि प्रशंसक पार्टी के भीतर के सहयोगियों का स्थान नहीं ले सकते. नीतीश कुमार को अपनी सीमाओं का भी ब़खूबी अंदाज़ा है, यह इस बात से भी साबित होता है कि उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर अपनी महत्वाकांक्षा से बार-बार इंकार किया. ऐसी खरी बात बोलने के लिए नेताओं में नैतिक साहस होना चाहिए, जो आज के दौर में सुरेंद्र मोहन जी जैसे लोगों के पास ही बचा था.
चार दिसंबर, 1926 को अंबाला में जन्मे सुरेंद्र मोहन समाजवादी आंदोलन से बहुत गहरे तक जुड़े हुए थे. लोकनायक जय प्रकाश नारायण एवं डॉ. राम मनोहर लोहिया के निकट सहयोगी रहे सुरेंद्र मोहन सही मायनों में पक्के समाजवादी थे, जिन्होंने हमेशा जनता की आवाज़ को सत्ता के गलियारों तक पहुंचाने का काम किया. ज़रूरत पड़ी तो सत्ता के खिला़फ आवाज़ भी बुलंद की, जेल गए. 1975 में देश में जब आपातकाल लगा था तो उस दौरान वह क़रीब 19 महीने जेल में रहे. जेल में रहने के दौरान ही उन्हें ज़बरदस्त हृदयाघात पहुंचा, तब जय प्रकाश नारायण ने उनसे कहा कि वह पेरोल पर बाहर आ जाएं, ताकि उनका समुचित इलाज हो सके, लेकिन सुरेंद्र जी ने इस प्रस्ताव को नहीं माना. 1977 में जब जनता पार्टी का गठन हुआ, तब उन्हें पार्टी का महासचिव और प्रवक्ता बनाया गया. मोरार जी देसाई जब प्रधानमंत्री बने, तब उन्हें जनता पार्टी सरकार में मंत्री बनने का प्रस्ताव दिया गया, लेकिन उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया. सुरेंद्र मोहन 1978 से 1984 तक राज्यसभा के सदस्य भी रहे. 1996-98 में खादी ग्रामोद्योग आयोग के अध्यक्ष भी रहे. पूर्व प्रधानमंत्री मोरार जी देसाई, चंद्रशेखर, विश्वनाथ प्रताप सिंह, इंद्र कुमार गुजराल एवं एच डी देवेगौड़ा उनके अभिन्न मित्र थे. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव, पूर्व केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान जैसे अनेक नेता राजनीति में उनके शिष्य रहे. लेकिन सत्ता में बैठे लोगों से इतने अच्छे संबंधों के बावजूद उन्होंने कभी भी अपने लिए कुछ नहीं मांगा.
और, शायद यही वजह थी कि जब भी उन्हें लगा कि लोहिया और जेपी के नाम पर राजनीति करने वाले लोग रास्ते से भटक रहे हैं, तब उन्होंने ऐसे नेताओं को बेझिझक सरेआम डांट भी पिलाई. उन्होंने बिहार में जेपी आंदोलन के दौरान गिरफ्तार होने वाले नेताओं और कार्यकर्ताओं को पेंशन देने के नीतीश कुमार के फैसले की भी कड़ी आलोचना की. सुरेंद्र मोहन ने कहा कि यह सही है कि जेपी आंदोलन देश की एक बड़ी राजनीतिक घटना थी और आज़ादी के बाद ऐसा आंदोलन नहीं हुआ था, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि उसके आंदोलनकारियों को आज पेंशन दी जाए. आज ज़रूरत है जेपी के सपनों को पूरा करने की. उन्होंने कहा कि इमरजेंसी के बाद दिल्ली सरकार ने जेपी आंदोलन के ऐसे आंदोलनकारियों को 25 हज़ार रुपये की एकमुश्त राशि प्रदान की थी, जो जेल गए थे, पर पेंशन देना उचित नहीं है. यह एक ग़लत परंपरा की शुरुआत है.
सुरेंद्र मोहन समाजवादी आंदोलन के ऐसे स्तंभ थे, जिन्होंने अपने जीते जी इस आंदोलन की तपिश को खत्म नहीं होने दिया. 2010 में ही उनकी अध्यक्षता में लोहिया जन्मशती समारोह दिल्ली के मावलंकर हॉल में मनाया गया. एक सुर में समाजवादियों और साम्यवादियों ने इस बात को माना कि आज लोहिया और उनके विचारों की प्रासंगिकता कितनी ज़्यादा है. यह सुरेंद्र मोहन का ही कमाल था कि एक मंच पर बैठे अलग-अलग विचारधारा के नेताओं ने लोहिया की सप्तक्रांति को फिर से दोहराए जाने की वकालत की. सीपीआई नेता ए बी वर्धन ने तो यहां तक कहा कि अब व़क्त आ गया है, जब समाजवादियों और साम्यवादियों को एक साथ मिलकर लोहिया की क्रांति को आगे बढ़ाया चाहिए. लेकिन दुर्भाग्य से सुरेंद्र मोहन जी को नियति ने इतना व़क्त नहीं दिया कि वह इस सपने को पूरा कर सकते. सुरेंद्र मोहन जी वर्तमान राजनीति और राजनीतिक रवैये से ज़्यादा खुश नहीं थे. बिहार में नीतीश कुमार जब लगातार अपने प्रशंसकों की संख्या बढ़ा रहे थे, तब सुरेंद्र मोहन जी का मानना था कि प्रशंसक पार्टी के भीतर के सहयोगियों का स्थान नहीं ले सकते. नीतीश कुमार को अपनी सीमाओं का भी ब़खूबी अंदाज़ा है, यह इस बात से भी साबित होता है कि उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर अपनी महत्वाकांक्षा से बार-बार इंकार किया. ऐसी खरी बात बोलने के लिए नेताओं में नैतिक साहस होना चाहिए, जो आज के दौर में सुरेंद्र मोहन जी जैसे लोगों के पास ही बचा था.
सुरेंद्र मोहन जी एक दार्शनिक और लेखक भी थे. सरकार की नीतियों और राजनीतिक दलों के क्रियाकलापों पर वह पैनी नज़र रखते थे. जिस तरह राजनीति में वह सा़फ-सा़फ बोलते थे, उसी तरह उनकी लेखनी भी धारदार थी. सुरेंद्र मोहन जी वर्तमान आर्थिक नीतियों के विरोधी थे. उन्हें लगता था कि इससे देश में उपभोक्तावाद के दौर में समाज को झोंक दिया गया है. उदारवाद और मुक्त अर्थव्यवस्था के बारे में उनका मानना यह था कि भारत में इस व्यवस्था का नुकसान ग़रीबों को होगा और सारा फायदा देश के उद्योगपति उठा ले जाएंगे. शहर और गांव, ग़रीब और अमीर में इतना ज़्यादा अंतर हो जाएगा, जहां से सामाजिक समानता का लक्ष्य ओझिल हो जाएगा. अपने लेखों के ज़रिए सुरेंद्र जी राजनीतिक दलों और नेताओं से कठिन सवाल पूछा करते थे. वह एक्सप्रेस वे और एसईजेड के नाम पर किसानों की ज़मीन के अधिग्रहण के खिला़फ रहे.
बहरहाल, सुरेंद्र जी को हमारी ओर से सच्ची श्रद्धांजलि तो यही हो सकती है कि हम उस जनता की आवाज़ बने, जिसकी आवाज़ कोई नहीं सुनता और हम ऐसा ही करेंगे. बारी वैसे नेताओं की है, जो खुद को लोहिया और जेपी का शिष्य साबित करते हैं, लेकिन सत्ता के लालच में समाजवाद और सच्चे समाजवादियों को भूल गए हैं. ज़रूरत इस बात की है, एक बार फिर से समाजवाद और समाजवादी आंदोलन को याद किया जाए. सच्चे मन से. और उस रास्ते पर आगे बढ़ने का प्रण किया जाए. शायद सुरेंद्र मोहन जी के लिए इससे सच्ची श्रद्धांजलि और कुछ नहीं होगी.