बिहार के राजनीतिक हलकों में लाख टके का सवाल है कि विधान परिषद चुनाव में क्या होगा? इसका उत्तर बहुत कठिन नहीं है. वे दिन कब के गुज़र गए, जब विधान परिषद की उम्मीदवारी राजनीति के लिए उपयोगी सार्वजनिक व्यक्तित्वों को दी जाती थी. और तो और, साहित्यकार, कलाकार, पत्रकार, वैज्ञानिक, शिक्षाविद् या समाजसेवियों के लिए सुरक्षित सीटों, जिनके लिए मनोनयन राज्यपाल करते हैं, पर भी उन लोगों को मनोनीत कर दिया जाता है, जिनका इन गुणों से छत्तीस का नाता होता है और जिनके संबंध काली दुनिया से होते हैं.
बिहार में विधान परिषद के चुनाव, कुछ अपवादों को छोड़कर, आम तौर पर उत्तेजनाविहीन ही गुज़रते रहे हैं, लेकिन इस बार परिषद के स्थानीय निकाय निर्वाचन क्षेत्रों के चुनाव उत्तेजना के सारे कीर्तिमान तोड़ने को बेताब हैं. परिषद के इस क्षेत्र की सभी चौबीस सीटों के चुनाव की अधिसूचना अगले कुछ दिनों में जारी हो जाएगी और फिर डेढ़-पौने दो महीने यानी जुलाई के पहले हफ्ते तक ये चुनाव संपन्न हो जाएंगे. विधान परिषद के जिन चौबीस निर्वाचन क्षेत्रों के लिए चुनाव होने हैं, उनमें से तीन सीटों यानी दरभंगा, समस्तीपुर और मुंगेर-जमुई-लखीसराय-शेखपुरा पर राष्ट्रीय जनता दल काबिज है. भारतीय जनता पार्टी के ज़िम्मे कटिहार, पूर्णिया-अररिया-किशनगंज, सीतामढ़ी-शिवहर, बेगूसराय-खगड़िया एवं सीवान हैं. इसके अलावा दो सीटों पटना और आरा-बक्सर पर निर्दलीय काबिज हैं. शेष चौदह सीटें सत्तारूढ़ जनता दल (यू) के ज़िम्मे हैं. निर्दलीय विधान पार्षदों में एक जद (यू) के बाहुबली विधायक सुनील पांडेय के भाई हुलास पांडेय हैं, जिन्हें अपने भाई से कमतर नहीं माना जा रहा है. दूसरे वाल्मीकि सिंह हैं. ये दोनों सत्तारूढ़ दल के साथ हैं. यानी जनता परिवार की 19 सीटें दांव पर हैं. कांग्रेस की कोई सीट नहीं है. एनडीए के ग़ैर भाजपा घटक दलों यानी लोक जनशक्ति पार्टी और राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के पास भी कोई सीट नहीं है. वामपंथी दलों की हालत भी कांग्रेस से बेहतर नहीं है.
विधान परिषद की इन चौबीस सीटों के निर्वाचन का ताप महीनों से महसूस किया जाता रहा है. यह ताप पहले ज़िलों तक ही सीमित था, पर पिछले एक-डेढ़ महीने से राजधानी के राजनीतिक हलकों को सरगर्म कर रहा है. राज्य में विधानसभा चुनाव के पहले हो रहे इस चुनाव को कई हलकों में सत्ता के सेमी फाइनल की संज्ञा दी जाने लगी है और यह अनायास भी नहीं है. राज्य की सत्ता और पक्ष-विपक्ष के घटक बगैर कुछ कहे इसे सेमी फाइनल के तौर पर ले रहे हैं तथा अपने प्रतिद्वंद्वियों को घेरने की तैयारी उसी शैली में कर रहे हैं. जनता परिवार के दोनों घटक जद(यू) एवं राजद के साथ-साथ भाजपा विरोध के नाम पर कांग्रेस एवं भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी गठबंधन के तहत ही परिषद चुनाव में उम्मीदवारों के समर्थन की घोषणा करना चाहती हैं. राजग में भी इसी तर्ज पर परिषद चुनाव में उतरने का दबाव है. दोनों खेमों में विभिन्न स्तरों पर बातचीत कई चरणों में हो चुकी है. भाजपा विरोधी राजनीति मजबूत बनाने के ख्याल से सत्तारूढ़ जद (यू) अपनी कुछ सीटें त्यागने तक के लिए तैयार हो गया है. इस खेमे में जो फॉर्मूला आकार ले रहा है, उसके अनुसार जद (यू) और राजद दस-दस सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेंगे, जबकि चार सीटें कांग्रेस और वामपंथी दलों के लिए रखी जाएंगी. इसका विकल्प भी पेश किया गया है, जिसमें कहा गया कि जद (यू) एवं राजद नौ-नौ सीटों पर लड़ें और बाकी छह सीटें कांग्रेस एवं अन्य सहयोगी दलों को दे दी जाएं. चूंकि इस भाजपा विरोधी राजनीतिक ध्रुव में सबसे अधिक सीटें जद (यू) के पास ही हैं, लिहाजा उसे अपनी सीटें छोड़नी पड़ सकती हैं.
जद (यू) के प्रदेश अध्यक्ष वशिष्ठ नारायण सिंह ने अपनी कुछ सीटें छोड़ने का संकेत भी दिया है. कांग्रेस चार सीटें मांग रही है, जबकि भाकपा भी दो से कम पर राजी होने को तैयार नहीं है. हालांकि, जनता परिवार वामपंथी समूह को अपने साथ रखने को तैयार है, पर भाकपा (माले) के इस गठबंधन से बाहर ही रहने की संभावना है. उसने दस सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा भी कर रखी है. दूसरी ओर, राजग में भी लोजपा छह सीटें मांग रही है. उसका कहना है कि 2009 में तीन जगहों यानी हाजीपुर, सहरसा-सुपौल-मधेपुरा और नालंदा से उसके समर्थित
उम्मीदवारों की जीत हुई थी. लिहाजा इन तीनों के अलावा तीन और सीटें उसे चाहिए. रालोसपा की फिलहाल विधान परिषद में कोई उपस्थिति नहीं है, पर वह भी इस सदन में अपनी उपस्थिति चाहती है और चार सीटें मांग रही है. राजग में इस मसले पर किसी फॉर्मूले को लेकर सहमति जैसा माहौल अभी तक नहीं बना है, लेकिन माना जा रहा है कि भाजपा अपने सहयोगी दलों को निराश नहीं करेगी. विधान परिषद चुनाव में भाजपा द्वारा (राजग भी कह सकते हैं) अपनी ताकत बढ़ाने और जनता परिवार द्वारा (भाजपा विरोधी राजनीतिक समूह कहना ज़्यादा बेहतर होगा) अपनी ताकत बचाने की पुरजोर कोशिश की जा रही है. विधान परिषद में अभी जद (यू) ही सबसे बड़ी पार्टी है. राजद, कांग्रेस और भाकपा सहित उसे समर्थन देने वालों को जोड़ लिया जाए, तो 75 सदस्यीय विधान परिषद में उसकी ताकत दो तिहाई से अधिक हो जाती है. भाजपा के सदस्यों की संख्या उसकी तुलना में काफी कम है. राजग के अन्य दलों की बात ही बेमानी है.
बिहार के राजनीतिक हलकों में लाख टके का सवाल है कि विधान परिषद चुनाव में क्या होगा? इसका उत्तर बहुत कठिन नहीं है. वे दिन कब के गुज़र गए, जब विधान परिषद की उम्मीदवारी राजनीति के लिए उपयोगी सार्वजनिक व्यक्तित्वों को दी जाती थी. और तो और, साहित्यकार, कलाकार, पत्रकार, वैज्ञानिक, शिक्षाविद् या समाजसेवियों के लिए सुरक्षित सीटों, जिनके लिए मनोनयन राज्यपाल करते हैं, पर भी उन लोगों को मनोनीत कर दिया जाता है, जिनका इन गुणों से छत्तीस का नाता होता है और जिनके संबंध काली दुनिया से होते हैं. शिक्षक निर्वाचन क्षेत्र से ज़रूर अब तक शिक्षक चुने जाते रहे हैं, पर स्थानीय निकाय निर्वाचन क्षेत्रों (जिसके मतदाता पंचायत और नगर निकाय के निर्वाचित प्रतिनिधि होते हैं) के चुनाव, कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो मुख्यत: पैसों की बदौलत लड़े और जीते जाते हैं. इस बार स्थानीय निकाय के इन चौबीस निर्वाचन क्षेत्रों में भी, कुछ अपवादों को छोड़कर, आम तौर पर यही तस्वीर बन रही है. चुनाव आयोग के पास क्या और कैसी रिपोर्ट है, नहीं पता, लेकिन वास्तविकता तो यह है कि चुनावी दिग्गजों ने मतपत्रों की खरीददारी का काम काफी हद तक पूरा कर लिया है. इन चौबीस निर्वाचन क्षेत्रों में एक वोट की क़ीमत पांच हज़ार से लेकर दस हज़ार रुपये तक चल रही है. वोट के थोक व्यापारी के कमीशन की रकम अलग है. वोट की व्यवस्था (खरीददारी) का काम पिछले कई महीनों से चल रहा है और मतदाताओं को मतदान पूर्व की किस्त का भुगतान भी कर दिए जाने की खबर है. पटना के सत्ता गलियारे की चर्चा पर भरोसा करें, तो इस बार विधान परिषद के चुनाव में प्रत्याशियों द्वारा दस-दस करोड़ रुपये तक खर्च किए जाने की संभावना है. सम्मानित राजनीतिक दल का समर्थन ही पहली समस्या है. इसके लिए दावेदार ढाई से साढ़े तीन करोड़ रुपये तक खर्च करने को तैयार बताए जाते हैं. राजनीतिक हलकों में यह चर्चा भी है कि राजनीतिक दल इस चंदे का उपयोग विधानसभा चुनाव में करना चाहते हैं. यह भी कोष जुगाड़ तकनीक का एक स्वरूप है. चूंकि पंचायत-नगर निकाय प्रतिनिधि निचले स्तर पर राजनीतिक कार्यकर्ताओं के क़रीब और स्थानीय जोड़-तोड़ के जानकार होते हैं, लिहाजा दल के समर्थन से ज़मीनी स्तर पर उम्मीदवारों को कार्यकर्ता सहज उपलब्ध हो जाते हैं.
इस धनवादी माहौल में परिषद चुनाव में किसी राजनीतिक शुचिता की उम्मीद निरर्थक है. जो सत्ता में हैं, वे पंचायत एवं स्थानीय निकाय प्राधिकारों को पिछले वर्षों दी गई सुविधाओं और उन्हें अधिकार संपन्न करने के अपने उपायों की निरंतर चर्चा कर रहे हैं. नीतीश कुमार की पिछली सरकारों ने इन संस्थाओं में महिलाओं एवं अति पिछड़ों को आरक्षण दिया था. उनकी मौजूदा सरकार ने पिछले दिनों इन प्रतिनिधियों का भत्ता एवं मानदेय बढ़ाने का ़फैसला लिया है. हालांकि, इन फैसलों के कारण राज्य के खजाने पर प्रति वर्ष दो-ढाई सौ करोड़ रुपये का खर्च बढ़ गया है. इसके अलावा विकास योजनाओं में इनकी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए सांसद-विधायक योजना की तर्ज पर रकम तय की गई है. इस पंचायती राज एवं नगर निकाय यानी ग्राम सरकार एवं नगर सरकार को सशक्त बनाने के लिए और भी कई घोषणाएं की गई हैं. एक फ्रंट पर यह सरकार अब भी पिछड़ती दिख रही है और वह यह है कि सरपंचों एवं पंचों को विधान परिषद के इस निर्वाचन क्षेत्र के चुनाव में मतदान का अधिकार दिलाने के संबंध में अब तक कोई ठोस क़दम नहीं उठाया गया है. कई क्षेत्रों में पंचायतों एवं नगर निकायों को पर्याप्त अधिकार देने के संबंध में सरकार के रवैये को भाजपा मुद्दा बना रही है. भाजपा नेताओं ने बार-बार कहा है कि बिहार में उनकी सरकार बनेगी, तो पंचायत प्रतिनिधियों के लिए सुख-सुविधाओं में आशातीत बढ़ोतरी की जाएगी, साथ ही पंचायतों एवं नगर निकाय प्राधिकारों को अधिक अधिकार संपन्न बनाया जाएगा और उनका विकास कोष बढ़ाया जाएगा. लेकिन, दावों और वादों से क्या होता है? वस्तुत: होता तो वही है, जो धनबली-बाहुबली चाहता है. धनबली-बाहुबली क्या चाहता है, उसकी क्या और कैसी तैयारी है, इसे जानने के लिए अभी प्रतीक्षा करनी होगी.