चलिए, आशा की किरण तो दिखाई दी. भारत में जैसा राजनैतिक माहौल है और जिस तरह राजनैतिक दल अपनी सोच बदल रहे हैं, उससे नहीं लगता कि कुछ बुनियादी बदलाव आसानी से हो पाएंगे. वाई एस आर ने आंध्र प्रदेश में मुसलमानों को चार प्रतिशत आरक्षण दिया था, जिसका वायदा उन्होंने अपने घोषणापत्र में किया था. पर इसे आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट में चुनौती दी गई और हाईकोर्ट ने इसे अवैध बताया. राजनैतिक दलों में छिपी ख़ुशी दिखाई दी. कहीं कोई राजनैतिक हलचल नहीं हुई. आंध्र प्रदेश सरकार सुप्रीम कोर्ट में चली गई. अब सुप्रीम कोर्ट ने इसे वैध कह कर चार फीसदी आरक्षण की अनुमति आंध्र प्रदेश सरकार को दे दी है. इसके दूसरे पहलुओं पर विचार करने के लिए सुप्रीम कोर्ट संविधान पीठ भी बनाएगी. जहां राजनैतिक दल ख़ामोश हो जाएं, वहां सुप्रीम कोर्ट का ऐसा फैसला आशा की किरण के अलावा क्या माना जा सकता है.

अचानक रंगनाथ मिश्र कमीशन को लेकर संदेह पैदा किए जाने लगे हैं. एक संगठन एक गोष्ठी करता है, जिसमें कमीशन की सदस्य आशा दास कहती हैं कि यह रिपोर्ट बदली गई है. आशा दास इस आयोग की सचिव भी थीं. अब वह इस रिपोर्ट को संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन बता रही हैं.

दरअसल आशा की किरण हैं सुप्रीम कोर्ट के फैसले की वे लाइनें, जिनमें सुप्रीम कोर्ट कहता है, सवाल यह नहीं है कि वे हिंदू हैं या मुसलमान, बल्कि सवाल सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ेपन का है. स़िर्फ इसलिए कि वे मुसलमान हैं, उन्हें वंचित नहीं किया जा सकता. सबसे बड़ी अदालत की यह समझदारी एक रास्ता दिखाती है, बताती है कि राजनीति भले भूलने की कोशिश करे, पर हमारे संविधान की रक्षक सबसे बड़ी अदालत सामाजिक स्थिति की वजह से कमज़ोर वर्गों को उनके हाल पर नहीं छोड़ने वाली.
रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट लागू हो, इसकी मांग कोई राजनैतिक दल संगठित रूप से नहीं कर रहा है. इतना ही नहीं, देश के मुस्लिम संगठन भी इसे लागू करने की मांग नहीं कर रहे. मिल्ली काउंसिल के राष्ट्रीय अधिवेशन में तो इसे अनदेखा करने की बात भी कुछ वक्ताओं ने की और कहा कि सच्चर रिपोर्ट ही सही रिपोर्ट है. दरअसल रंगनाथ मिश्र रिपोर्ट समाज में कई अंतर्विरोधों को सामने ला सकती है, इसलिए सभी इस पर एकमत हैं कि रंगनाथ मिश्र कमीशन रिपोर्ट को एक किनारे कर दिया जाए. हक़ीक़त यह है कि सच्चर कमीशन ने जिन सवालों की ओर इशारा किया है, उनका हल रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट में है.
अचानक रंगनाथ मिश्र कमीशन को लेकर संदेह पैदा किए जाने लगे हैं. एक संगठन एक गोष्ठी करता है, जिसमें कमीशन की सदस्य आशा दास कहती हैं कि यह रिपोर्ट बदली गई है. आशा दास इस आयोग की सचिव भी थीं. अब वह इस रिपोर्ट को संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन बता रही हैं. रिपोर्ट आए तीन साल से ज़्यादा हो गए हैं. क्या रिपोर्ट सरकार को सौंपने से पहले आशा दास ने अपना कोई विरोध कमीशन में दर्ज़ कराया था? यह आयोग सुप्रीम कोर्ट की सलाह पर काम कर रहा था, तो क्या आशा दास ने सुप्रीम कोर्ट को इस बारे में कोई ख़त लिखा था? आशा दास ऐसी ताक़तों का खिलौना बन गई हैं, जो देश के ग़रीब तबकों को कोई हिस्सा देना ही नहीं चाहतीं. एक संगठित अभियान रंगनाथ मिश्र कमीशन और उसकी रिपोर्ट के ख़िला़फ प्रारंभ हो गया है.
इसमें मुस्लिम नेता भी शामिल हो गए हैं. कुछ जाने और कुछ अनजाने, लेकिन दोनों का परिणाम एक ही निकलने वाला है. आप बहस कीजिए कि मुसलमानों में जाति प्रथा है या नहीं है, लेकिन मुसलमानों में ग़रीब हैं या नहीं, इसे तो सा़फ कर लीजिए. अगर ग़रीबों को राहत मिलती है तो इसका विरोध ख़ुद मुसलमानों के भीतर से हो, यह बात मुश्किल से समझ में आती है. यहीं सुप्रीम कोर्ट का वाक्य, जो हम लिख चुके हैं, उसे फिर लिखना चाहते हैं, सवाल यह नहीं है कि वे हिंदू हैं या मुसलमान, बल्कि सवाल सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ेपन का है. स़िर्फ इसलिए कि वे मुसलमान हैं, उन्हें वंचित नहीं किया जा सकता.
इस शुरुआत को रुकने नहीं देना चाहिए. समाज के जिन वर्गों के हाथ में सुविधाएं हैं, वे इसे बांटना नहीं चाहते हैं और जिन्हें दूर भगाने की कोशिश की जा रही है, वे अगर खड़े हो गए तो क्या होगा, इसका अंदाज़ा कोई नहीं लगा पा रहा है. वंचित वर्गों के ख़िला़फऑपरेशन ग्रीन हंट चल रहा है. हमने अपनी संवाददाता को जंगलों में भेज रखा है. उसके अनुसार, न कपड़े हैं, न खाना है, न घर है. फिर भी नक्सलवाद है. पुलिस या सेना को पता ही नहीं है कि पकड़ना किसे है, पर वह पकड़ रही है. किससे और कहां लड़ना है, सा़फ नहीं है, पर लड़ाई चल रही है. समाज के वे वर्ग जो सत्ता में हिस्सेदारी कर रहे हैं, चाहते हैं कि देश की सोलह प्रतिशत आबादी के ग़रीब भी इस लड़ाई में शामिल हो जाएं.
इन्हें नहीं पता कि अगर इनके हाथों में हथियार आ गए तो देश में कैसी आग लग जाएगी. अभी दस साल भी नहीं बीते हैं कि हम भूल गए हैं कि पंजाब में उग्रवाद की लहर ने कितना परेशान कर दिया था. वे केवल एक से दो प्रतिशत थे. हम तो सोलह प्रतिशत को कोने पर ढकेल देना चाहते हैं. हमारे रिश्ते हमारे किसी पड़ोसी से ठीक नहीं हैं और हमें यह डर भी नहीं है कि हम अपने पड़ोसियों को मुल्क में घुसने का मौक़ा खुद दे रहे हैं.
होना तो यह चाहिए कि स्थिति की गंभीरता को समझ, संपूर्ण राजनीतिक बिरादरी को गंभीरता दिखा, कम से कम रोटी की गारंटी देने वाली योजनाएं हर कोने पर पहुंचानी चाहिए. नक्सलवाद गोली से नहीं, रोटी और रोजी के अवसरों से शांत होगा. देश के वंचित, दलित अल्पसंख्यकों को अवसर देना ही होगा. अगर उन्हें अवसर नहीं मिलते तो वे भी वही करने लगेंगे, जो आज जंगलों में नक्सलवादी कर रहे हैं. हम बिल्कुल नहीं डराना चाहते, पर हमें लगता है कि कोशिश करने के अवसर भी खत्म होते जा रहे हैं. क्या हम सुप्रीम कोर्ट के फैसले से सीख लेंगे? कम से कम उन्हें तो उनका हक़ दें, जिन्हें सुप्रीम कोर्ट देने की अनुमति दे रहा है. और फिर यह केवल आंध्र प्रदेश में क्यों, सारे देश में क्यों नहीं? इसके लिए राजनैतिक साहस की ज़रूरत है, जिसे अपने भीतर पैदा करने की क्षमता चाहिए. अगर आज इसकी कोशिश नहीं करते तो कल इसका व़क्त नहीं रहेगा.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here