खनिज सम्पदा को विकास का माध्यम माना जाता है, लेकिन छत्तीसगढ़ के सुपेबेड़ा के ग्रामीणों के लिए खनन मौत का कारण बन रहा है. गरियाबंद जिले की देवभोग तहसील के अंतर्गत आने वाला यह गांव किडनी और लीवर संबंधी बीमारियों के कारण पिछले एक दशक से मातम के माहौल में जी रहा है. हीरा और एलेक्जेंडराइट रत्न के खदान क्षेत्र में आने वाले सुपेबेड़ा में बीते एक दशक में 109 लोग असमय मौत के मुंह में समा चुके हैं.
अब भी करीब ढाई सौ लोग किडनी और लीवर से जुड़ी गंभीर बीमारियां झेल रहे हैं. खनन क्षेत्र के आस-पास के तीन अन्य गांवों में भी कमोबेस यही हाल है. अधिकांश ग्रामीणों की पीली हो रही आंखें पानी में मिले खतरनाक रसायन की तरफ इशारा करती हैं. खेती-किसानी इन ग्रामीणों के जीविकोपार्जन का मुख्य जरिया है, लेकिन इलाज में अब खेत भी बिकते जा रहे हैं. ग्रामीण इसके खिलाफ सरकार के हर चौखट तक अपनी गुहार पहुंचा चुके हैं, लेकिन कहीं कोई सुनवाई नहीं हुई. छत्तीसगढ़ सरकार के स्वास्थ्य मंत्री अजय चंद्राकर ने तो ग्रामीणों की मेडिकल रिपोर्ट भी अपने पास रख ली, जिसे वे अपनी समस्या के प्रमाण के लिए लेकर गए थे.
करीब दो हजार की आबादी वाले सुपेबेड़ा गांव में 235 लोग आज किडनी और लीवर संबंधी गंभीर बीमारियों से ग्रसित हैं. लगभग पूरा गांव बुजुर्ग विहीन हो चुका है. गांव की महिलाओं में से करीब 45 फीसदी विधवा हो चुकी हैं. किशारोवस्था की दहलीज पर खड़े बच्चे भी किडनी की बीमारियों की जद में आ रहे हैं. कभी यह गांव पूरी तरह से खुशहाल हुआ करता था. स्थानीय लोगों का कहना है कि इस गांव को नजर लगी 1986 में आई एक सर्वे रिपोर्ट से, जिसमें इस गांव की जमीन के नीचे हीरे का खदान होने के संकेत मिले थे.
इसकी पुष्टि होते ही गांव में अवैध खनन शुरू हो गया. उस समय यह क्षेत्र मध्य प्रदेश का हिस्सा था. करीब 10 साल के खनन के बाद सरकार ने 2004 में इस पूरे खनन क्षेत्र को टेकओवर कर लिया. ग्रामीणों का कहना है कि खनन कंपनी ने खदान के मुहाने को कंक्रीट व मुर्रम से पाट दिया. इसी के बाद यहां किडनी और लीवर की बीमारियों ने लोगों को अकाल मौत के मुंह में ढकेलना शुरू कर दिया. इसने सबसे पहले बुजुर्गों को अपना शिकार बनाया और धीरे-धीरे युवा भी इसके शिकार होने लगे. यहां हो रही मौतों की गंभीरता का आकलन इससे किया जा सकता है कि बीते एक वर्ष में इस गांव के एक ही परिवार के 18 लोग किडनी फेलियर की भेंट चढ़ गए. सरकारी आंकड़ों में भी यहां हो रही मौतों की बात स्वीकार की गई है. लेकिन इसे भी वास्तविकता से बहुत कम बताया गया है.
ग्रामीणों का कहना है कि 2005 से अब तक यहां 109 लोगों की मौत हो चुकी है, जबकि सरकार कहती है कि अब तक यहां सिर्फ 58 मातें ही हुई हैं. सरकार तो यह भी कहती है कि सुपेबेड़ा गांव में इस समस्या की शुरुआत 2009 से हुई है, जबकि 2004 से ही यहां लोग मर रहे हैं. असमय मौत के मुंह में जा रहे ग्रामीणों के लिए किसी स्थायी और ठोस पहल की जगह, सरकार ने बस इतना किया है कि राजधानी रायपुर के मेडिकल कॉलेज अस्पताल में अलग से पांच बिस्तर वाले सुपेबेड़ा वार्ड का गठन किया गया है. हालांकि यहां भी इलाज की कोई ठोस व्यवस्था नहीं है. इलाज के अभाव में कई ग्रामीण अस्पताल से लौट जाते हैं. ग्रामीणों का कहना है कि पिछले दिनों आठ मरीज अस्पताल छोड़कर चले आए, जिनमें से कुछ की मृत्यु भी हो गई.
ग्रामीणों का कहना है कि पहले यहां के पानी में ऐसी कोई दिक्कत नहीं थी, लोग तक ऐसी गंभीर बीमारियों के शिकार नहीं होते थे. लेकिन जब से यहां खनन प्रारम्भ हुआ तब से आए दिन लोग असयम मौत की चपेट में आ रहे हैं. शुरुआती खनन के दौरान यहां कई धमाके किए गए थे. ग्रामीण इन धमाकों की आड़ में हुए किसी षड्यंत्र की आशंका व्यक्त करते हैं. उनका कहना है कि गांव वालों को यहां से खदेड़ने के लिए कोई षड्यंत्र किया गया. शायद यहां के भूजल में कोई रसायन छोड़ा गया, जो लोगों के लिए जहर बन गया है. ग्रामीणों का आरोप है कि सरकार के साथ मिलकर खनन कंपनियां ऐसा षड्यंत्र कर रही हैं कि लोग गांव छोड़कर चले जाएं, ताकि ये आसानी से खनन कार्य कर सकें. पिछले दिनों आई इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) की रिपोर्ट में भी यहां के पानी में फ्लोराइड घुले होने की पुष्टि हुई है.
यहां की मिट्टी की जांच को लेकर आई इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय की रिपोर्ट में भी, मिट्टी में कैडमियम, क्रोमियम, आर्सेनिक जैसे तत्व मिले होने की बात कही गई है. ये सभी सीधे किडनी को नुकसान पहुंचाते हैं. सरकार भी यह मानती है कि इस गांव के पानी में आर्सेनिक-फ्लोराइड का मिश्रण है, जो लोगों को किडनी से संबंधित रोगों के जरिए मार रहा है. लेकिन सरकार इसके लिए कोई ठोस कदम उठा नहीं रही है. ग्रामीणों का कहना है कि प्रशासन की तरफ से यहां के बोरिंग को बंद करा दिया गया है, लेकिन जो दूसरा बोरिंग खोदा गया है, वो पहले वाले स्थान से महज 10 मीटर की दूरी पर ही है और इसमें भी कोई शोधन यंत्र नहीं लगाया है.