केंद्र सरकार ने सौर ऊर्जा उत्पादन के क्षेत्र में लक्ष्य तो निर्धारित कर लिए, लेकिन इस लक्ष्य को सिर्फ विदेशी सोलर कंपनियों के भरोसे छोड़ दिया. सरकार रूफटॉप सोलर एनर्जी के उत्पादन के लक्ष्य को भूल गई. रूफटॉप सोलर के जरिए सौर बिजली उत्पादन का 40 फीसदी हासिल किया जाना था. जब आप अपने लक्ष्य का सिर्फ 8-9 प्रतिशत ही हासिल कर पाएं, तो इस रफ्तार से आप दीर्घकालिक लक्ष्य को कभी हासिल नहीं कर सकते. सरकार ने 31 मार्च 2018 तक रूफटॉप सोलर पैनल से दस हजार मेगावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य रखा था, जो दिसंबर 2017 तक मात्र 923 मेगावाट तक पहुंच सका है.
जब हम भारत की सोलर नीति पर नजर डालते हैं, तो एक बेहतर तस्वीर नजर आती है, जो तस्वीर का एक पहलू मात्र है. ब्रिटेन की अकाउंटेंसी फर्म अर्नेस्ट एंड यंग (ईवाई) ने हाल में अक्षय ऊर्जा क्षेत्र की सूची में भारत को दूसरा स्थान दिया है. इस सूची में भारत को अमेरिका से भी ऊपर जगह दी गई है. भारत सरकार की ऊर्जा नीति और अक्षय ऊर्जा की दिशा में उसके प्रयासों को इसका प्रमुख कारण बताया गया है. अमेरिका स्थित इंस्टीट्यूट फॉर एनर्जी इकॉनॉमिक्स एंड फाइनेंशियल एनालिसिस के निदेशक टिम बकले भी मानते हैं कि भारत सरकार की ऊर्जा नीति में पारदर्शिता और स्थिरता के कारण वैश्विक निवेशकों की दिलचस्पी बढ़ी है. वे कहते हैं कि अगर कोई कंपनी 25 से 35 साल के लिए निवेश करती है, तो उसके लिए यह जरूरी है कि सरकार की नीतियों में स्पष्टता और स्थिरता हो. विदेशी कंपनियों के बीच प्रतिस्पर्धा से सोलर पॉवर प्लांट से उत्पादित बिजली का टैरिफ रेट न्यूनतम स्तर तक पहुंच गया है, जो चिंताजनक है.
हाल में यह देखा गया है कि सोलर प्रोजेक्ट्स की बिडिंग में टैरिफ रेट दिन-ब-दिन कम होते जा रहे हैं. यह अब कोयले से पैदा होने वाली बिजली के टैरिफ रेट के बराबर तक पहुंच गई है. सरकार चाहती है कि इस क्षेत्र में सोलर कंपनियों के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़े, इसलिए धीरे-धीरे इस क्षेत्र में सब्सिडी कम की जा रही है. इसका असर यह पड़ा कि सौर ऊर्जा क्षेत्र में स्वदेशी कंपनियों और आम लोगों की रुचि कम हुई.
जून 2015 में भारत सरकार ने जवाहरलाल नेहरू नेशनल सोलर मिशन के लक्ष्य की समीक्षा की थी. इसके बाद मोदी सरकार ने 2022 तक सौर ऊर्जा उत्पादन का लक्ष्य 20,000 मेगावाट से पांच गुना तक बढ़ा दिया. यह लक्ष्य अब बढ़ाकर 1,00,000 मेगावॉट कर दिया गया है. इसमें 40,000 मेगावाट बिजली रूफटॉप सोलर पैनल और 60,000 मेगावाट बिजली छोटे-बड़े सोलर पावर प्लांटों से उत्पादित होनी है.
कंपनियों का जोखिम कम करने को सरकार बनी साझीदार
इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए छह लाख करोड़ रुपए निवेश की जरूरत है. सोलर पैनलों की उम्र 25-30 साल होती है. शायद ही कोई कंपनी सरकार के भरोसे के बिना इतने लंबे समय तक निवेश के लिए तैयार होती. सरकार ने निवेशकों के जोखिम को कम करने के लिए इन परियोजनाओं में खुद को साझीदार बना लिया. सरकार ने सोलर कंपनियों को यह भरोसा दिया कि उनकी सोलर प्लांट से उत्पादित पूरी बिजली खरीदी जाएगी. इसके साथ ही सोलर कंपनियों को जमीन उपलब्ध कराने में भी सरकार मदद करेगी. केंद्र सरकार ने भारतीय रिजर्व बैंक, केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के त्रिपक्षीय समझौते से सोलर एनर्जी कार्पोरेशन ऑफ इंडिया (एसईसीआई) का गठन भी किया.
यानी विदेशी निवेशकों को लुभाने में तो सरकार सफल रही, लेकिन रूफ टॉप सोलर प्रोजेक्ट से बिजली उत्पादन को बढ़ावा देने पर कोई ध्यान नहीं दिया. रूफटॉप योजना के तहत 31 दिसंबर 2016 तक कुल 1,247 मेगावाट की क्षमता ही विकसित हो पाई है. यह 2022 तक 40,000 मेगावाट क्षमता विकसित करने के लक्ष्य का महज तीन फीसदी है. पीएचडी चेंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री ने अपनी रिपोर्ट में इस योजना की सफलता के लिए नेट-मीटरिंग व्यवस्था पर जोर दिया है. नेट-मीटरिंग के जरिए घर की छतों पर लगे सोलर पैनल से ग्रिड को मिलने वाली बिजली का लेखा-जोखा रखा जाता है. उत्पादित प्रति यूनिट बिजली के आधार पर लोगों को परचेजिंग पावर एग्रीमेंट के तहत भुगतान किया जाता है.
नेट मीटरिंग पर कैप से होगा नुक़सान
अब नेट मीटरिंग की हकीकत भी जान लेते हैं. तमिलनाडु जैसे कई राज्यों ने नेट मीटरिंग योजना में रुचि नहीं दिखाई है. कई राज्यों ने अभी तक अपनी सोलर पॉलिसी भी नहीं बनाई है. अगर बनाई भी है, तो उस पर राज्य सरकारें ध्यान नहीं दे रही हैं. वहीं, कुछ राज्यों ने नेट मीटरिंग की लिमिट तय कर दी है. अब अगर कोई रूफटॉप उत्पादक तीन मेगावाट बिजली का उत्पादन करता है और एक मेगावाट का इस्तेमाल करता है, तो उसे अतिरिक्त दो मेगावाट बिजली कंपनियों को नेट मीटरिंग के जरिए बेचना होगा. अब अगर बिजली कंपनी सिर्फ एक मेगावाट बिजली खरीदने का कैप लगाती है, तो बाकी एक मेगावाट का या तो खुद इस्तेमाल करना होगा या फिर वह बेकार चला जाएगा.
इसमें रही-सही कसर कंपनियों की प्रतिस्पर्धा ने पूरी कर दी. अब सोलर प्लांट से उत्पादित बिजली की दर कोयले से उत्पादित बिजली की दर (3.20 रुपये प्रति यूनिट) से भी कम हो गई है. अगर विदेशी कंपनियां कोयला से उत्पादित बिजली से भी कम दर पर सोलर बिजली का उत्पादन करेंगी, तो स्वाभाविक है कि कोई भी बिजली कंपनी उससे अधिक रेट पर रूफ टॉप सोलर पैनल लगाने वाले लोगों को भुगतान नहीं करेगी. अब यह रेट इतना नीचे गिर गया है कि लोग रूफ टॉप सोलर पैनल पर खर्च करना मुनाफे का सौदा नहीं समझते हैं. हाल में राजस्थान के भादला स्थित अडानी रिन्यूएबल एनर्जी पार्क में कुछ कंपनियों ने 2.44 रुपए और 2.45 रुपए प्रति यूनिट की दर से बिजली उत्पादन का कॉन्ट्रैैक्ट हासिल कर लिया है. एक तो सोलर पैनल लगाने पर एकमुश्त अधिक खर्च करने पड़ते हैं और दूसरे सौर उत्पादित बिजली बेचकर उतना मुनाफा भी नहीं मिले, तब कोई क्यों अपने छत पर सोलर पैनल लगाना चाहेगा.
भारत में इस्तेमाल होने वाले 85 फीसदी सोलर पैनल अभी चीन से आते हैं. चीन के सोलर पैनल सस्ते होने के कारण अधिकतर सोलर कंपनियां चाइनीज पैनलों का इस्तेमाल करती हैं. सरकार स्वदेशी सोलर पैनल को बढ़ावा देने के लिए भारतीय कंपनियों को विभिन्न तरीकों से सहायता पहुंचा रही है. सरकारी प्रोजेक्ट्स में भी स्वदेशी सोलर पैनल निर्माता कंपनियों को बढ़ावा देने पर जोर दिया गया. हाल में अमेरिका ने अंतरराष्ट्रीय प्राधिकरण में इस मसले को उठाया, जिसमें भारत की हार के बाद सरकार को अपना रुख बदलना पड़ा है.
सौर ऊर्जा का सच
टैरिफ रेट कम होने के पीछे एक कारण फोटोवोल्टिक तकनीक की लागत में कमी होना भी है. पिछले पांच वर्षों में सोलर पैनलों की कीमत 85 फीसदी तक घटी है. इसके बावजूद कुछ सोलर विशेषज्ञ चिंता जाहिर करते हुए कहते हैं कि सोलर प्लांट के लिए कंपनियां जो बिड लगा रही हैं, वह अव्यावहारिक है. शायद ही बिजली कंपनियां इस रेट पर सौर बिजली का उत्पादन करने में सफल होंगी. वास्तव में सौर ऊर्जा सस्ती नहीं पड़ती है. सरकार द्वारा उपलब्ध सब्सिडी, सस्ती भूमि, निवेश की गारंटी और अन्य वित्तीय सहायता के बाद ही सोलर कंपनियां कम बोली लगा पाती हैं. अगर वास्तव में देखें तो सौर ऊर्जा की वास्तविक दर 6 रुपए प्रति यूनिट और भंडारण को मिलाकर 8 रुपए प्रति यूनिट पड़ती है, जबकि कोयला आधारित बिजली की कीमत 2.50 रुपए प्रति यूनिट है.
फिनलैंड के सौर ऊर्जा विशेषज्ञों ने भारत में सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए भंडारण तकनीक को मजबूत करने की सलाह दी थी. 11वें इंटरनेशनल रीन्यूएबल एनर्जी स्टोरेज कॉन्फ्रेंस में भी भंडारण क्षमता मजबूत करने पर जोर दिया गया. ऐसा इसलिए, क्योंकि सौर ऊर्जा का उत्पादन दिन में होता है, जबकि बिजली की जरूरत रात में पड़ती है. आधे समय तक निष्क्रिय पड़े सौर ऊर्जा के संयंत्रों का खर्च बहुत ज्यादा आता है. हम अतिरिक्त ऊर्जा का भंडारण पुराने तरीकों की बैटरी से करते हैं, जो काफी महंगा पड़ता है. इस क्षेत्र में नई तकनीकें कुछ राहत दे सकती हैं, जिसपर सरकार का ध्यान नहीं है.