जिस तरह (हमारे) प्रधानमंत्री मोदी जी दिन रात चुनाव (वोट) में जीते हैं ठीक उसी तरह हम भी आजकल हर कार्यक्रम को उसी नजर से देखते हैं । देखना ही चाहिए । लेकिन अगर कोई कार्यक्रम बहुत भारी और बोर हो तो दिमाग तुरंत मोदी के वोटर की तरफ जाता है । जैसे मान लीजिए कभी कभी रवीश कुमार का कार्यक्रम , या वाजपेई या अन्य गम्भीर कार्यक्रम । किसी भी मिडिल क्लास वोटर को इस गम्भीरता से क्या लेना देना है । मुद्दा तो इतना भर है कि सबसे पहले इस सरकार को चलता कीजिए उसके बाद आपकी हर गम्भीरता सिर आंखों पर ।
पर आजकल सोशल मीडिया के कार्यक्रमों में भी खोट नजर आ रही है ।सोशल मीडिया से उम्मीद की जाती है कि वह निष्पक्ष होकर वस्तु स्थिति का वस्तुपरक आकलन करें और सच को सच की तरह दिखाए और उसी तरह चर्चा भी करे । लेकिन पिछले कुछ समय से देखा जा रहा है कि सोशल मीडिया के कार्यक्रमों में भी एक खास तरह का झुकाव दिखाई दे रहा है ।आज सबसे ज्यादा बात ‘सत्य हिंदी’ की होती है । मुकेश कुमार ने तो सवाल जवाब के कार्यक्रम में ‘सत्य हिंदी’ को संस्था के रूप में उद्धृत किया ।बड़ी बात है यदि ऐसा है तो । लेकिन क्या ‘सत्य हिंदी’ के कार्यक्रम Biased नहीं होते । स्टूडियो में बैठा एंकर चाहता है चर्चा का झुकाव मोदी विरोध की ओर हो ।वह एंकर फील्ड में नहीं गया लेकिन जो फील्ड से होकर आया है यदि वह वही आकलन बताता है जैसा पिछले दिनों सर्वे बता रहे थे या सीएसडीएस के संजय कुमार बताते हैं या सी वोटर बताता है तो एक चिढ़ सी एंकर में देखी जाती है ।इसका सबसे बड़ा उदाहरण अंबरीष कुमार हैं । सर्वे को तो वे राइट आउट रिजेक्ट कर ही देते हैं बल्कि उन लोगों से भी परेशान से रहते हैं जो फील्ड की हकीकत बताते हैं । ऐसे ही मुकेश भाई भी शीतल जी को टोकते हैं ।शीतल पी सिंह का फील्ड का आकलन बहुत वस्तुपरक होता है । गोकि ऐसा एक ही बार देखने में आया। जबकि मुकेश कुमार के कार्यक्रम मुझे इसलिए अच्छे लगते हैं कि वे पैनलिस्ट को मुद्दे से भटकने नहीं देते । तुरंत टोकते हैं । हालांकि एक डर यह भी रहता है कि पैनलिस्ट बुरा न मान जाएं ।सभी तुर्रम खां होते हैं । कुर्बान अली और एन के सिंह के साथ एक बार हुआ भी है । हम ‘सत्य हिंदी’ की बात फिलहाल इसलिए कर रहे हैं क्योंकि वह बाकी दूसरी वेबसाईट्स में अग्रणी है ।और आशुतोष ने उसका विस्तार बहुत कायदे से किया है । मेरे विचार में आज हर प्रबुद्ध ‘सत्य हिंदी’ से जुड़ना (उसके पैनल में आकर ) चाहता है ।यह ‘सत्य हिंदी’ की सफलता है । इसीलिए वहां पक्ष धरता के खतरे भी हैं ।जो वास्तव में दिखाई देते हैं । विजय त्रिवेदी , आशुतोष और आलोक जोशी को निष्पक्ष भाव से एंकरिंग करते हुए देखा जा सकता है ।पर अब तो यहां तू तू मैं मैं भी देखने को मिल रही है । लगता है गोदी मीडिया और इसमें फर्क क्या रह गया है ।न जाने नीलू व्यास बीजेपी और कांग्रेस के प्रवक्ताओं को क्यों बुलाती हैं जब संभाला नहीं जा सकता ।एक बार मैंने नीलू को व्यक्तिगत रूप से बताया भी था कि और उन्होंने कहा भी था इसका ध्यान रखूंगी लेकिन उसी के दूसरे दिन भयानक तू तू मैं मैं हुई । द वायर और सत्य हिंदी इसी बात के लिए प्रसिद्ध रहे कि यहां तू तू मैं मैं की इजाजत नहीं है ।आरफा खानम शेरवानी जिस संतुलन से बहस करवाती हैं उससे हर किसी को सीखना चाहिए । मुकेश कुमार की चर्चा में भी अशोक वानखेड़े और बीजेपी के अश्विनी भिड़ गए । और तो और जो आशुतोष अपनी हर बहस में इसका सबसे ज्यादा खयाल रखते हैं वे भी एक बार विजय त्रिवेदी शो में बीजेपी के प्रवक्ता से ऐसे उलझ गए थे कि पता नहीं उन्हें अपना ही नियम याद रहा कि नहीं ।
इसी तरह एक चीज और भी देखी जाती है कि फील्ड में जब कोई रिपोर्टर जाता है तो वह अपने पक्ष के लोगों के बीच ही ज्यादा जाना पसंद करता है । अजीत अंजुम इसके अपवाद लगते हैं फिर भी वे स्वयं ही कभी कभी मोदी विरोध के प्रवक्ता जैसे बन जाते हैं ।समझ में यह नहीं आता कि सत्य को सत्य की नजर से दिखाने में क्या अड़चन है । आपके चाहने से तो मोदी हारेंगे नहीं । ऐसे में शीतल पी सिंह को पूरी तरह सुना जाना चाहिए ।वे अपने नाम के अनुसार शीतल, मधुर और ईमानदार हैं । भाषा सिंह बढ़िया रिपोर्टिंग करती हैं लेकिन वे भी निष्पक्ष रहेंगी, पूरी तरह से ,कहा नहीं जा सकता । कोशिश उनकी बराबर रहती है । लेकिन यदि आप सरकार से पीड़ित लोगों की बस्ती में पहुंच जाएंगी तो बातचीत कैसी होगी स्वयं ही जान लें ।आरफा खानम शेरवानी के साथ भी अक्सर ऐसा ही होता है ।उनके यहां तू तू मैं मैं तो नहीं होती मगर झुकाव जरूर देखने को मिलता है ।अंबरीष कुमार के कार्यक्रम में यदि कोई कांग्रेस की बुराई कर दे तो वे तिलमिला जाते हैं । उसमें भी अगर राहुल गांधी के बारे में कोई बोल दे तो ।इस पूरे आकलन में सबसे ज्यादा बात Biased हो जाने की है ।अगर आप भी ऐसे ही हो गये और आपके यहां भी तू तू मैं मैं होने लगी तो फर्क रह गया आप में और गोदी मीडिया में। आप भी तो गोदी मीडिया सरीखे हो गये । निष्पक्षता की उम्मीद फिर किससे हो । अगर यह सत्य है कि बीजेपी और आरएसएस के कार्यकर्ता भीतर ही भीतर गहरे उतरे हुए हैं और घर घर अपनी पहुंच बनाने हुए हैं तो क्या हमारे प्रबुद्धजनों को नहीं चाहिए था कि जत्थे बना कर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दर दर घूमते और बीजेपी की खतरनाक साजिशों का भण्डाफोड़ करते ।आज बीजेपी अपने मंतव्यों में सफल हो रही है इसीलिए उसका प्रतिशत बढ़ा हुआ दिखाई देता है और उसको edge मिली हुई है ।
एक बात आशुतोष के विषय में लिखनी थी । आजकल उन्हें ‘दरअसल’ शब्द का रोग लग गया है ।जब इंसान के भीतर कुछ कमी होती है,डर होता है, खोखलापन होता है या आत्मविश्वास की कमी होती है तो उसकी हरकतें कुछ ऐसी ही हो जाती हैं । आशुतोष के साथ तो ऐसा कुछ होगा नहीं । फिर भी न जाने क्यों ‘दरअसल दरअसल दरअसल दरअसल ‘ जुबान पर चढ़ा रहता है । माफ करें बहुत ‘घृणित’ सा लगता है ।एक बड़े पत्रकार से बात हो रही थी इस विषय को लेकर । उन्होंने कहा कि टोकिए ।आपकी बात तो मानते हैं । मैंने कहा वे एक हद तक जिद्दी (ढीट) भी हैं । नहीं मानेंगे फिर भी मैं तो लिखूंगा ही । जैसे पुण्य प्रसून वाजपेई बहुत से शब्द यों ही ‘रिपीट’ करते हैं । ‘इरिटेशन’ होती है ।सच कहें तो सुना नहीं जाता । इस बार विजय त्रिवेदी शो में योगेन्द्र यादव थे ।बड़ी होशियारी और चतुराई होती है उनकी बातों में । बढ़िया लगा । लेकिन हर बार यह सुनना भी खटकता है कि ‘अपना खयाल रखिए और उनका खयाल रखिए जो आपका खयाल रखते हैं ‘ ।जैसे ‘लल्लनटाप’ के आखीर में सौरभ द्विवेदी बोलता है ।सौरभ में कहीं न कहीं आरएसएस का झुकाव है । कहना चाहिए सरस्वती शिशु मंदिर का ।
सबसे धारदार , सरल और लगभग निष्पक्ष कार्यक्रम ‘लाउड इंडिया टीवी’ में संतोष भारतीय के होते हैं ।चाहे उनका खुद का हो, अभय दुबे शो हो या अखिलेंद्र प्रताप सिंह या ऐसे ही और किसी के साथ संतोष जी की बातचीत हो (एन के सिंह , अपवाद हैं ) । उनका आकलन स्टीरियो टाइप हुआ करता है अक्सर ।इस बार अभय कुमार दुबे ने लता मंगेशकर के विषय में जितना कुछ बोला ,वाकई सुनने लायक था ।बाकी का आकलन भी बढ़िया रहा ।इस कार्यक्रम को सुनने की आदत हो चली है । विजय त्रिवेदी शो की भी । एक दो व्यक्ति से बातचीत पैनलिस्टों की भीड़भाड़ के मुकाबले हमेशा बढ़िया रहती है।
इस बार ताना बाना में निराशा या चिंता के स्वर शुरु से नजर आए । हिंदी के ग्रंथ, पुस्तकें, उपन्यास आदि के प्रति घटती रुचि और वह भी बाकी भाषाओं में लिखे जाने वाले साहित्य की अपेक्षा । चिंता का विषय तो है ही । लेकिन बदलता समय और लोकजीवन की बदलती अभिरुचियां भी कम दोषी नहीं ।पर दोष किसका हो जब वैश्वीकरण ने दुनिया के नजरिए को ही बदल कर रख दिया है ।इसी तरह अशोक वाजपेई के वक्तव्य में भी चिंता थी । साहित्य, कला, चित्रकला और रंगमंच की दुनिया में छीजता सब कुछ ।कम होते लोग । ज्ञान चतुर्वेदी के व्यंग्य अच्छे होते हैं । अपूर्वानंद के साथ मृणाल पांडे के कथा संग्रह पर बातचीत अच्छी रही, क्योंकि हमेशा रहती ही अच्छी है। यह उपलब्धि है कार्यक्रम की । मृणाल जी के संग्रह से खरोंचें निकालना बेबाक प्रमाण है । मुकेश कुमार मेहनत करते दिख रहे हैं , अपनी तमाम व्यस्तताओं और नयी जिम्मेदारियों के बावजूद। उनसे अनुरोध है कि वे बाल साहित्य को भी समेटें । हर सेगमेंट के बाद संगीत रोचक लगता है ।
उम्मीद है ‘सत्य हिंदी’ की टीम उभरती खामियों की ओर अपना ध्यान रखेगी और नाहक बीजेपी और कांग्रेस के प्रवक्ताओं को बुला कर मजा किरकिरा होने से बचाया जाएगा ।अपने भीतर से ही विरोध के स्वर पैदा कीजिए । जैसे विजय त्रिवेदी को पहले बीजेपी का प्रवक्ता समझा जाता था । मुझे अच्छा लगा था भीतर से इस विरोध को देखना । बहरहाल, कई दिनों से यह सब देखकर लिखने की इच्छा हुई तो लिख दिया ।
सोशल मीडिया को भी अब गोदी मीडिया क्यों न कहा जाए …..
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