प्रधानमंत्री का खुद चीन के साथ अच्छा संबंध हो गया है और वह जापान जा रहे हैं, लेकिन कुल मिलाकर दुनिया के मामलों में भारत की पहले जो श्रेष्ठ स्थिति थी, अब उसमें कमी आ रही है. बेशक, वह समय याद करने का कोई फ़ायदा नहीं है, जब भारत अपेक्षाकृत एक कमज़ोर अर्थव्यवस्था था, लेकिन जवाहर लाल नेहरू के दिनों में ऐसे मामलों में भी, जिनसे भारत का संबंध नहीं था, उनकी सलाह संयुक्त राष्ट्र महासचिव द्वारा ली जाती थी. वे दिन लद गए हैं.
नई सरकार को अब लगभग दो महीने हो गए हैं. नियमित प्रशासन चल रहा है. वास्तव में कोई यह अंतर नहीं बता सकता, किसकी सरकार चल रही है. सरकार नौकरशाहों द्वारा चलाई जा रही है, पुलिस सिस्टम द्वारा चलाई जा रही है. सिस्टम चलता जा रहा है. सरकार की पहली नीति का संकेत बजट में किए गए दावों से मिलता है. सामान्य धारणा यही है कि यह पिछली सरकारों के बजट से ज़्यादा अलग बजट नहीं है. हालांकि, इस पूरे वर्ष के दौरान इस सबको और विभिन्न योजनाओं को कैसे लागू किया जाता है, उसी से पता चलेगा कि ज़मीन पर कोई बदलाव आता है या नहीं. अभी टिप्पणी करना जल्दबाजी होगी.
हालांकि, एक सामान्य राजनीतिक परिदृश्य के लिए ध्यान देने योग्य दो बातें हैं. जहां तक सरकार का सवाल है, तो यह अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर बहुत निष्क्रिय है. अभी इजराइल और फिलिस्तीन के बीच जो कुछ चल रहा है, उसमें बड़ी संख्या में लोग मारे जा रहे हैं. राज्यसभा में विदेश मंत्री ने एक चौंकाने वाला बयान दिया और कहा कि चूंकि इजराइल और फिलिस्तीन दोनों हमारे दोस्त हैं, इसलिए हमें इस मुद्दे पर चर्चा नहीं करनी चाहिए. हमें उनमें से किसी के भी प्रति अभद्र नहीं होना चाहिए. बयान में अभद्र जैसा शब्द संसद में ज़ुबान फिसलने से निकला हो, यह संभव नहीं है. मेरे मुताबिक इसमें कोई असभ्यता नहीं है, हम एक संप्रभु राष्ट्र हैं. हमारी संसद लोकतांत्रिक है और उसमें स्वतंत्र एवं निष्पक्ष रूप से अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर चर्चा होनी चाहिए.
कुछ सदस्य ऐसे होंगे, जो फिलिस्तीन के लिए शांति चाहते हैं और कुछ सदस्य ऐसे होंगे, जो इजराइल के पक्ष में होंगे. चर्चा के बाद बहुत संभव है कि एक निष्पक्ष विचार सामने आए और एक प्रस्ताव पारित हो. सरकार इससे दूर क्यों चली गई, यह एक रहस्य है. लेकिन, एक अलग मुद्दा है कि अंतरराष्ट्रीय संबंधों में प्रधानमंत्री का मार्गदर्शन करने के लिए एक मजबूत फॉरेन ऑफिस की ज़रूरत है. प्रधानमंत्री का खुद चीन के साथ अच्छा संबंध हो गया है और वह जापान जा रहे हैं, लेकिन कुल मिलाकर दुनिया के मामलों में भारत की पहले जो श्रेष्ठ स्थिति थी, अब उसमें कमी आ रही है. बेशक, वह समय याद करने का कोई फ़ायदा नहीं है, जब भारत अपेक्षाकृत एक कमज़ोर अर्थव्यवस्था था, लेकिन जवाहर लाल नेहरू के दिनों में ऐसे मामलों में भी, जिनसे भारत का संबंध नहीं था, उनकी सलाह संयुक्त राष्ट्र महासचिव द्वारा ली जाती थी. वे दिन लद गए हैं. अभी भी भारत के पास एक महत्वपूर्ण भूमिका बाकी है. हम दुनिया की आबादी का छठवां हिस्सा हैं. हम एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था हैं, दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा देश हैं. बेशक, नए प्रधानमंत्री ने ब्रिक्स में अच्छी पहल की है, एक नए विकास बैंक के रूप में इस पहल का नतीजा भी देखने को मिला है, लेकिन विदेश नीति के मामलों में हमारे दृष्टिकोण को मजबूत बनाने के लिए अभी भी बहुत कुछ किया जाना चाहिए.
अब विपक्ष को देखिए! यह वास्तव में दु:खद है कि सौ साल पुरानी पार्टी कांग्रेस समझ नहीं पा रही है कि नेता विपक्ष का पद उसे नहीं मिल सकता, क्योंकि सदन की शक्ति की 10 फ़ीसद संख्या भी उसके पास नहीं है. मैं यह सुनकर हैरान हूं कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कह रहे हैं कि अगर उन्हें नेता विपक्ष का दर्जा नहीं मिलता है, तो वे अदालत में जाएंगे. यह एक मजाक है. संसद संप्रभु है, अदालत हस्तक्षेप नहीं कर सकती है. संसद के अधिकारों को मजबूत करने की बजाय कांग्रेस पार्टी अदालत में जाकर उसे कमजोर करना चाहती है. अदालत इस पर हंसेगी, सुप्रीम कोर्ट के जज कहेंगे कि देखिए, हम आप लोगों की तुलना में अधिक समझदार हैं. यह सब एक अच्छी प्रवृत्ति नहीं है. एक बिंदु कांग्रेस पार्टी के समर्थन में है. पहले विपक्ष के नेता के लिए कुछ सामान्य भूमिका थी. अब सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सीबीआई निदेशक, सीवीसी के चयन में विपक्ष के नेता से परामर्श किया जाना चाहिए. अब क्या होगा, अगर विपक्ष का कोई नेता नहीं है? एक सीमित मुद्दे के लिए कोई सुप्रीम कोर्ट में जा सकता है. सुप्रीम कोर्ट के पास तीन विकल्प हैं, या तो कोई भी विपक्ष का रोल नहीं निभाएगा या राज्यसभा में नेता विपक्ष लोकसभा में भी विपक्ष का प्रतिनिधित्व करेंगे या फिर लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी का नेता विपक्ष का प्रतिनिधित्व करेगा. इसमें कोई कठिनाई नहीं है. यह एक बहुत छोटी-सी बात है, जिसे बिना किसी कठिनाई के हल किया जा सकता है, लेकिन नेता विपक्ष का पद अपने अधिकार के तौर पर मांगना एक अच्छी बात नहीं है. यह एक गलत परंपरा है. यह एक गलत उदाहरण स्थापित करेगा और संसद की लाचारी इससे सामने आएगी.
संसद से अलग बात करें, तो मुझे ग़ैर कांग्रेस-ग़ैर भाजपा दलों को अभी भी बहुत ज़्यादा कुछ न करते देखकर आश्चर्य हो रहा है. मुझे लगता है कि उन सबको एक साथ मिलकर आगे आना चाहिए. नीतीश और लालू बिहार में एक साथ आ रहे हैं, यह एक अच्छा संकेत है. अभी मैंने पढ़ा है कि कांग्रेस उनके साथ शामिल होना चाहती है, यह भी एक अच्छा संकेत है. चुनाव आया और चला गया, फिर पांच साल के बाद चुनाव होंगे. अभी राज्य व्यवस्था मजबूत करने के लिए पहल शुरू करनी चाहिए. आख़िरकार, भारत में इतने राज्य हैं, जहां विभिन्न दलों द्वारा शासन चलाया जा रहा है. नैतिक रूप से कमजोर होने की ज़रूरत नहीं है. उन सभी लोगों को, जो लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष एवं समाजवादी मूल्यों में विश्वास रखते हैं, एक साथ मिलना चाहिए और एक नीति दस्तावेज बनाकर जनता के लिए एक विकल्प प्रस्तुत करना चाहिए. आख़िर सरकार बहुत बड़े-बड़े वादों के साथ सत्ता में आई है. कोई भी अपने द्वारा किए गए वादे पूरे नहीं कर सकता है. भाजपा अभी अपनी अधिकतम ऊंचाई पर है. अगले पांच साल में यह इससे अधिक नहीं, बल्कि कम अंक ही हासिल करने जा रही है. लेकिन, अन्य राजनीतिक दल जैसे कांग्रेस को स़िर्फ 44 सीटें मिलीं, इसके लिए उसे इतना मनोबल गिराने की ज़रूरत नहीं है.
अन्य दल और भी छोटे हैं. वामदलों के पास भारत की राजनीति में खेलने के लिए एक महत्वपूर्ण भूमिका है. यहां तक कि भाकपा और माकपा को अपने विलय के बारे में सोचना चाहिए. वामपंथ को खुद को मजबूत करना चाहिए. भारतीय राजनीति अभी मंथन की स्थिति में है. दु:खद यह होगा अगर कोई अपने प्रयास छोड़ देता है, जैसे आज लोगों ने इस नव-उदारवादी आर्थिक नीति को स्वीकार कर लिया है. अगर धर्मनिरपेक्षता को हानि पहुंचती है, तो देश को उसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा. यह एक दु:खद दिन होगा. इसलिए सही सोच वाले लोगों और बड़ी-छोटी पार्टियों को एक साथ एक दिशा में आगे आना होगा और ऐसी नीतियां बनानी होंगी, जो समाज के बड़े तबके को स्वीकार्य हों.
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