jduसाल 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव को लेकर राजनीतिक चहल-पहल बढ़ती जा रही है. पार्टी संगठन के निर्देश के आलोक में बूथ से लेकर जिला स्तर तक तैयारी शुरू कर दी गई है. सीतामढ़ी जिले में जनता दल (यू) का अभियान भी अब जोर पकड़ने लगा है. दल के शीर्ष नेतृत्व के पहल पर पिछले दिनों जिला जनता दल (यू) के जिलाध्यक्ष पद की कमान को पार्टी के पुराने कार्यकर्ता राणा रंधीर सिंह चौहान को सौंप दिया गया.

जिलाध्यक्ष पद संभालने के महज चंद दिनों बाद ही जिले में पार्टी की ओर से दलित-महादलित सम्मेलन का आयोजन किया गया. सम्मेलन में नेता से लेकर कार्यकर्ता तक ने सूबे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के कार्यकाल का गुणगान करते हुए राज्य सरकार प्रायोजित योजनाओं से जन-जन को अवगत कराने का संकल्प लिया.

दल व जातिगत सम्मेलन का एकमात्र मकसद आगामी चुनावों में पार्टी को बेहतर स्थिति में लाना है. वैसे तो कोई भी राजनीतिक दल ऐसा नहीं है, जिसमें पार्टी नेताओं की गुटबाजी का ढोल नहीं बजता है. जनता दल (यू) की चर्चा की जाए तो इसमें भी जिले के कद्दावर नेताओं की पर्दे के पीछे अलग-अलग खिचड़ी पकती रही है.

सीतामढ़ी जिले में 2009 के लोकसभा चुनाव में जद (यू) की टिकट पर जब अर्जुन राय को बतौर प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतारा गया था, तब बहुत हद तक गुटबाजी सामने आने लगी थी. उस वक्त चुनावी चौपालों पर स्थानीय बनाम बाहरी की चर्चा भी जोरों पर थी. मगर प्रदेश नेतृत्व के निर्णय के सामने जिले के सभी नेताओं ने मौन साधने में ही भलाई समझी थी.

जाति व पार्टी के चुनावी रणनीति में अर्जुन राय तब बाजी मारकर बतौर सांसद निर्वाचित होने में सफल हुए थे. मगर 2014 के मोदी लहर में अर्जुन राय अपना कैंजा बरकरार नहीं रख सके. सीटिंग एमपी रहने के बावजूद उनको चुनाव में तीसरे पायदान पर लटकना पड़ा था. दूसरे स्थान पर राजद प्रत्याशी सीताराम यादव रहे. वहीं एनडीए की ओर से रालोसपा प्रत्याशी राम कुमार शर्मा सांसद निर्वाचित हुए थे. अब 2019 के लोकसभा चुनाव को लेकर सियासत तेज हो गई है.

आगामी लोकसभा चुनाव में जद (यू) के संभावित प्रत्याशियों पर चर्चा आवश्यक है. सीतामढ़ी लोकसभा सीट से जद (यू) की ओर से दावेदारों में कई नाम चुनावी फिजा में गूंजने लगे हैं. इनमें अधिकांश वैसे ही नाम शामिल हैं, जो वर्तमान में किसी न किसी सदन के निर्वाचित अथवा मनोनित प्रतिनिधि हैं. वहीं दूसरी ओर कुछ पूर्व प्रतिनिधियों का नाम भी चर्चा में है. वैसे संसदीय क्षेत्र में लगातार जनसंपर्क व दलगत के साथ ही जातिगत कार्यक्रमों में उनकी भागीदारी चर्चा का विशेष कारण बनी है.

राजनीतिक मसलों पर चर्चा करने वालों की मानें तो अब तक सभी की तैयारी अपने-अपने तरीके से चल रही है. कारण कि चुनाव में अभी वक्त है. राजनीतिक गठबंधन के तहत सीटों का तालमेल व टिकट बंटवारे का सीजन आने में अभी विलंब है. ऐसे में कोई भी चेहरा स्पष्ट तौर पर जनता के बीच अपनी पोल खोलने के मूड में नहीं दिख रहा. संभावना व्यक्त की जा रही है कि पर्व-त्योहार के बाद साल 2018 के अंत तक बहुत कुछ साफ होने लगेगा.

जहां तक सीतामढ़ी जिले में जद (यू) के मजबूती का सवाल है तो इस पर दावे के साथ कुछ भी कहा नहीं जा सकता. पार्टी कार्यकर्ताओं को जनता के बीच सरकार प्रायोजित योजनाओं का पुलिंदा लेकर जाने का निर्देश दिया जाने लगा है. शराब बंदी, दहेज बंदी व बाल विवाह पर रोक जैसे नीतीश सरकार के निर्णय को समाज के लिए बेहतर बताया जा रहा है.

महिलाओं के विकास को लेकर चलाई जा रही योजनाओं की चर्चा कर वोटों की गोलबंदी का प्रयास किया जा रहा है. पार्टी संगठन को जिले में चुनावी नजरिए से मजबूत बनाने को लेकर एक ओर जहां पार्टी के पुराने कार्यकर्ता को जिलाध्यक्ष की कमान सौंपी गई है तो दूसरी ओर कुछ पुराने साथियों को फिर से पार्टी में सक्रिय कर लोकसभा के साथ ही आगामी बिहार विधानसभा चुनाव की तैयारी का भी मार्ग प्रशस्त किया जाने लगा है.

सीतामढ़ी में जद (यू) की टिकट पर सांसद बन चुके पूर्व सांसद डॉ. अर्जुन राय ने 2014 में चुनाव हारने के बाद अब पार्टी से भी रिश्ता तोड़ लिया है. इस जिले में जद (यू) के मजबूती की जिम्मेदारी कुछ पार्टी नेताओं पर होने की चर्चा की जा रही है. इनमें पूर्व मंत्री सह विधायक डॉ. रंजूगीता, विधायक सुनीता सिंह चौहान, विधान पार्षद रामेश्वर कुमार महतो, पूर्व सांसद नवल किशोर राय, पूर्व विधायक गुड्‌डी देवी व पूर्व विधान पार्षद राज किशोर कुशवाहा समेत अन्य शामिल हैं.

वहीं दूसरी ओर मो. ज्याउद्दीन खां, प्रो. अमर सिंह, शंकर बैठा व किरण गुप्ता, समेत अन्य दल की मजबूती को लेकर हर संभव प्रयास में जुटे हैं. 2019 के चुनाव में सीतामढ़ी सीट दलगत गठबंधन के तहत अगर पुन: जद (यू) के हिस्से आती है तो दावेदारों की तादाद में वृद्धि की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता है.

साथ ही पार्टी के अंदर अंदरूनी कलह की भी पूरी गुंजाईश हो सकती है. फिलहाल मो. ज्याउद्दीन खां को जिलाध्यक्ष पद से मुक्त किए जाने और राणा रंधीर सिंह चौहान को पार्टी की कमान दिए जाने की चर्चा भी जोरों पर है. चल रही चर्चाओं पर यकीन करें तो इस असमय बदलाव का अहम कारण स्थानीय दलीय नेताओं की गुटबाजी है. सच्चाई चाहे जो हो मगर इतना तो साफ है कि चुनाव आते-आते जद (यू) में नेताओं के बीच अंदरूनी कलह की पूरी संभावना है.

ऐसे हालात में पार्टी के जिलाध्यक्ष के लिए दल को संभालना एक चुनौती साबित हो सकती है. साथ ही प्रदेश नेतृत्व को भी जिले में दलीय राजनीति को संभाल पाना मुश्किल हो सकता है. अब देखना यह है कि जिला संगठन को दल के धुरंधर नेता किस रफ्तार से चुनावी सफर तय करा पाते हैं.

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