शनिवार 11 अक्टूबर 2014 को जिस दिन लोग जेपी (जयप्रकाश नारयण) का जन्मदिन मना रहे थे उसी दिन कैप्टन अब्बास अली का निधन हो गया. कैप्टन अब्बास को समाजवादी एकता के एक बड़े हिमायती के तौर पर याद किया जायेगा. यह अलग बात है कि उनके जीवन में और भी बहुत कुछ है जो याद करने योग्य है और जो युवा समाजवादियों को प्रेरणा दे सकता है. जब उनकी उम्र 90 वर्ष की हुई तो इस अवसर पर एक समारोह आयोजित किया गया. इस समारोह में समाजवादी आंदोलन के सभी बड़े नाम शामिल थे. इस समारोह को संबोधित करते हुए उन्होंने समाजवादी एकता के लिए पुरजोर अपील की और वहां मौजूद लोगों ने उस अपील पर सहमति भी जताई थी. वहां मौजूद सभी लोगों ने यह महसूस किया कि उनकी अपील पर अमल होना चाहिए और इसके लिए सभी ने आश्वासन भी दिया था. कुछ लोग मजाक में कहते हैं कि समाजवादियों में आपसी एकता की इच्छा उतनी ही प्रबल है जितनी कि विभाजन की. दुर्भाग्यवश इस समारोह के बाद जिन समाजवादी नेताओं का संबंध सत्ताधारी दलों से था वे अपनी पार्टी को सत्ता में बनाये रखने के उपायों में लग गए और जो सत्ता में नहीं थे उन्होंने पुराने अनुभवों को याद करके एकता के लिए प्रयास नहीं किये. ऐसा नहीं है कि वहां मौजूद लोगों में से कुछ लोग समाजवादी आंदोलन के लिए महत्वपूर्ण नहीं थे. अगर उन्होंने अकेले ही कैप्टेन साहब की अपील पर अमल किया होता तो उन्हें कामयाबी नहीं मिलती लेकिन पिछली असफलताओं की वजह से उपजा हतोत्साह इतना प्रबल था कि उन्होंने उनकी अपील को संज़ीदगी से लिया ही नहीं. नतीजा यह हुआ कि समाजवादी जैसे पहले विभाजित थे वैसे ही विभाजित रहे.
इस बात ने कैप्टन साहब को गहरी चोट पहुंचाई. वह इस बात को लेकर परेशान थे कि समाजवादियों ने लोगों को एकजुट करने और गरीबों, आमलोगों के मुद्दों को उठाने के लिए गंभीरता से प्रयास नहीं किए. समाजवाद के प्रति उनकी प्रतिबद्धता बहुत थी. एक सक्रिय कार्यकता, अधिकारी और नेता के रुप काम करने के बाद उन्हें लगता कि अगर सारे समाजवादी एक हो जाएं तो देश की लाखों समस्याओं का समाधान हो सकता है. और शायद यह सही था. वह सामाजिक बराबरी और सांप्रदायिक सद्भाव को लेकर भी प्रतिबद्ध थे. उन्हें लगता था कि समाजवादी और शायद कम्युनिस्ट ये ही दोनों समुदायों के बीच शांति और सद्भाव लाना सुनिश्चित कर सकते हैं. वह मानते थे कि उत्पीड़न, अन्याय और गैर-बराबरी के खिलाफ लड़ाई समाजवादी अन्य लोगों से ज्यादा बेहतर तरीके से लड़ सकते हैं. बूढ़े और कमजोर शरीर के बावजूद अपनी जिंदगी के आखिरी पड़ाव में समाजवादी आंदोलन की समस्याओं को लेकर वह चिंतित और असहाय महसूस कर रहे थे. असहाय इसलिए क्योंकि वह समाजवादी आंदोलन जिसे वक्त की मांग माना जा रहा है उसे आगे बढ़ाने के लिए वह बहुत कुछ नहीं कर सके. जो कोई भी उनसे मिला उन्हें उनके जुनून और इच्छा का अहसास हो जाता था कि वह समाजवादियों के अतीत के गौरव को बहाल होते देखना चाहते थे.
आपातकाल के दौरान कैप्टन साहब को गिरफ्तार कर लिया गया था. आपातकाल की पूरी अवधि के दौरान वे सलाखों के पीछे रहे. उन्हें बुलंदशहर, बरेली और नैनी सेंट्रल जेल में रखा गया था. जब आपातकाल हटा और राष्ट्रीय चुनावों की घोषणा की गई, 1977 में, तब समाजवादी पार्टी का जनता पार्टी में विलय हो गया. कैप्टन साहब तब उत्तर प्रदेश विधान परिषद के लिए चुने गए और पार्टी की उत्तर प्रदेश इकाई के प्रथम अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किए गए.
9 अगस्त 2011 को वह मुंबई के अगस्त क्रांति मैदान मे शहीदों को श्रद्धांजलि देने गए थे, इसी दौरान उन्होंने राष्ट्रीय सेवा दल के सहयोग से मेहर अली सेंटर द्वारा आयोजित सप्त क्रांति विचार यात्रा को रवाना भी किया था. यहां उन्होंने यात्रा की सफलता की शुभकामनाएं देते हुए कहा था कि यात्रियों को देश में एकता का वातावरण बनना चाहिए. इसके बाद उन्होंने दादर में एकत्रित हुए समाजवादियों के बीच यह बात दोहराई. जब यह हुआ वहां जॉर्ज फर्नांडीज भी उपस्थित थे हालांकि यह उनकी आखिरी मुंबई दौरा और संभवतः आखिरी सार्वजनिक कार्यक्रम भी था. 23 सितंबर 2014 को गांधी पीस फाउंडेशन में आयोजित यूसुफ मेहरअली मेमोरियल लेक्चर के दौरान उन्होंने एकता का वातावरण बनाने को प्रमुख मुद्दा बना दिया था. कैप्टन साहब ने 1948 में सोशलिस्ट पार्टी की सदस्यता ली थी. वह अपने जीवन की आखिरी सांस तक समाजवादी आंदोलन का हिस्सा बने रहे. राममनोहर लोहिया, आचार्य नरेंद्र देव और जयप्रकाश नारायण जैसे समाजवादी नेताओं की वजह से अब्बास अली ने राजनीति में आ गए.वर्ष 1966 में वह संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उत्तर प्रदेश के महासचिव बने. उन्होंने 1967 में उत्तर प्रदेश ंकी पहली गैर कांग्रेसी(संविद सरकार)बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी.
आपातकाल के दौरान कैप्टन साहब को गिरफ्तार कर लिया गया था. आपातकाल की पूरी अवधि के दौरान वे सलाखों के पीछे रहे. उन्हें बुलंदशहर, बरेली और नैनी सेंट्रल जेल में रखा गया था. जब आपातकाल हटा और राष्ट्रीय चुनावों की घोषणा की गई, 1977 में, तब समाजवादी पार्टी का जनता पार्टी में विलय हो गया. कैप्टन साहब तब उत्तर प्रदेश विधान परिषद के लिए चुने गए और पार्टी की उत्तर प्रदेश इकाई के प्रथम अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किए गए. मृत्यु से पहले, 15 अगस्त की पूर्व संध्या पर अलीगढ़ में एक सार्वजनिक समारोह में भाग लेते हुए, कैप्टन साहब ने सुभाष बाबू को याद किया और कहा कि मेरे जीवन की केवल एक अधूरी इच्छा यह है कि मेरे नेता सुभाष चंद्र बोस के अंतिम दिनों की कहानी सबके सामने आ जाए. कैप्टन साहब का जन्म उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जिले में, खुर्जा के पास कलन्दरढ़ी में 3 जनवरी 1920 को हुआ था. अपने प्रारंभिक जीवन में वे शहीद भगत सिंह से प्रेरित थे. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्र रहे अब्बास अली वर्ष 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध से पहले भारतीय सेना में शामिल हो गए. 1945 में जब नेताजी ने सशस्त्र विद्रोह का झंडा बुलंद किया तब अब्बास अली ने ब्रिटिश सेना छोड़ दी और इंडियन नेशनल आर्मी में शामिल हो गए. जल्दी ही, उन्हेें गिरफ्तार कर लिया गया. इसके बाद कोर्ट मार्शल की कार्रवाई हुई. उन्हें मौत की सजा सुनाई गई. इसके बाद उन्हें मुल्तान फोर्ट जेल में कैद कर लिया गया. जब भारत स्वतंत्र हुआ, उन्हें मौत की सजा मिलने से पहले ही कैप्टन मंजीत सिंह (जालंधर), कैप्टन अब्दुल अजीज (रावलपिंडी) के साथ रिहा कर दिया गया. हिन्दी में उनका संस्मरण न रहूं किसी का दस्तनिगर-मेरा सफरनामा नाम से राजकमल प्रकाशन ने वर्ष 2009 में प्रकाशित किया. इस किताब में न सिर्फ उनके जीवन के विभिन्न पहलू शामिल हैं बल्कि उसमें उन दिनों की कई घटनाओं का भी जिक्र है.