पहले नोटबंदी, फिर जीएसटी. कहा गया था कि इससे अर्थव्यवस्था में क्रांतिकारी बदलाव आएंगे. लेकिन पिछले दो सालों में देश की आर्थिक स्थिति कहां से कहां पहुंच गई, इसका जायज़ा लेना भी ज़रूरी है. घरेलू मैदान पर भले ही भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाली केन्द्र सरकार अर्थव्यवस्था के मज़बूत होने का दावा करती हो, लेकिन ज़मीनी स्थिति भयावह है. अर्थव्यवस्था की हालत को स्थानीय स्तर पर चौपट हो रहे काम-धंधों से समझा जा सकता है, वहीं वर्ल्ड बैंक, वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम आदि की रिपोर्ट भी भारतीय अर्थव्यवस्था की खोखली तस्वीर को सामने लाती है. चौथी दुनिया की खास रिपोर्ट:
दुनिया की पांच बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शामिल होने का दावा करने वाली मोदी सरकार को वर्ल्ड बैंक ने एक और करारा झटका दिया. विश्व बैंक ने भारत को विकासशील देशों की सूची से हटाकर घाना, जाम्बिया और पाकिस्तान जैसी बदहाल अर्थव्यवस्था वाले देशों की कैटेगरी में डाल दिया है. वर्ल्ड बैंक द्वारा जारी डाटा रिपोर्ट में भारत को ‘लोअर मिडिल इनकम ग्रुप’ में रखा गया है. इस ग्रुप में जाम्बिया, घाना, ग्वाटेमाला, बांग्लादेश, पाकिस्तान और श्रीलंका जैसे देश शामिल हैं. चिंताजनक बात यह है कि ब्रिक्स देशों में भारत को छोड़कर-रूस, चीन, दक्षिण अफ्रीका और ब्राज़ील सभी देश ‘अपर मिडिल इनकम ग्रुप’ में हैं. अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जापान, जर्मनी, स्विट्ज़रलैंड जैसे विकसित देश वर्ल्ड बैंक की गणना में हाई इनकम ग्रुप में हैं, जबकि भारत यहां भी फिसड्डी साबित हुआ है. इसे लोअर मिडिल इनकम वाले देशों की श्रेणी में रखा गया है.
वर्ल्ड बैंक ने विकसित और विकासशील देशों की नई श्रेणियों का निर्धारण कई मानकों के आधार पर किया है. इनमें मातृ- मृत्युदर, टैक्स कलेक्शन, स्टॉक मार्केट, विद्युत-उत्पादन, स्वच्छता और बिज़नेस शुरू करने में लगने वाले समय का आकलन किया गया है. मज़े की बात यह है इन सभी क्षेत्रों में मोदी सरकार ख़ास कार्यक्रम चलाकर उपलब्धियों के लम्बे-चौड़े दावे करती रही है. उदाहरण के लिए, टैक्स कलेक्शन के लिए सरकार ने जीएसटी लागू किया, जिसे दुनिया का सबसे बड़ा ‘टैक्स रिफॉर्म’ बताया गया. सरकार सीना ठोककर यह भी कह रही है कि भारत ‘ईज़ ऑ़फ डूइंग बिज़नेस’ में लम्बी छलांग लगाकर सौवें स्थान पर आ गया है. नॉन-कन्वेंशनल एनर्जी के जरिए हम ऊर्जा के वैकल्पिक क्षेत्र बढ़ा रहे हैं. सोलर एनर्जी के उत्पादन में भारत दुनिया में दूसरे नंबर पर है. प्रधानमन्त्री की पहल पर देश भर में स्वच्छता अभियान चल रहा है, आदि- आदि. फिर इन्हीं क्षेत्रों की उपलब्धियों के आधार पर हुई गणना में भारत इतना नीचे कैसे चला गया कि अब हम विकासशील देश भी नहीं रहे.
जीएसटी पर वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट
जीएसटी को लेकर देश के करोड़ों व्यापारियों, कारोबारियों और राजनैतिक दलों ने विरोध दर्ज़ कराया था. अब तो विश्व बैंक ने भी इस पर गंभीर सवाल उठाए हैं. विश्व बैंक का कहना है कि मोदी सरकार की सबसे महत्वाकांक्षी टैक्स-सुधार-योजना-जीएसटी-दुनिया की सबसे जटिल कर प्रणालियों में से एक है. विश्व बैंक द्वारा जारी अपनी छमाही रिपोर्ट ‘इंडिया डेवलपमेंट अपडेट’ में कहा गया है कि दुनिया के 115 देशों में भारत का जीएसटी टैक्स रेट, दूसरा सबसे ऊंचा टैक्स रेट है. इन 115 देशों में ज़्यादातर वही देश हैं, जहां भारत की ही तरह अप्रत्यक्ष कर प्रणाली (इनडायरेक्ट टैक्स सिस्टम) लागू है.
1 जुलाई 2017 से लागू जीएसटी के ढांचे में 5,12,18 और 28 फीसद के टैक्स स्लैब बनाए गए हैं. सोने पर 3% तो कीमती पत्थरों पर 0.25% कर लगाया गया है. रियल स्टेट, पेट्रोलियम, स्टाम्प ड्यूटी, अल्कोहल, बिजली को तो जीएसटी के दायरे से बाहर रखा गया है. तकरीबन 50 चीज़ों पर अब भी जीएसटी की 28% टैक्स-दर लागू है, जो शायद दुनिया के किसी भी देश में नहीं है. वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि भारत जीएसटी के तहत सबसे ज़्यादा टैक्स स्लैब वाला देश है. दुनिया के 49 देशों में जीएसटी का सिर्फ एक टैक्स स्लैब है. 28 देशों में दो टैक्स स्लैब हैं, जबकि इटली, पाकिस्तान, घाना, लक्जेम्बर्ग समेत भारत में जीएसटी के पांच टैक्स स्लैब हैं. भारत के अलावा ये चारों देश आज कमज़ोर अर्थव्यवस्था वाले देश माने जाते हैं.
जीएसटी रिफंड की सुस्त रफ्तार
वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट के साथ देश के कारोबारियों का भी मानना है कि जीएसटी सरल नहीं, अत्यंत जटिल टैक्स सिस्टम है. इसके ‘रिटर्न्स’ की संख्या इतनी ज्यादा है कि छोटा कारोबारी उसमें चकरघिन्नी बन गया है. दूसरा यह कि जीएसटी में टैक्स-रिफंड की रफ्तार बेहद धीमी है. रिफंड की गति धीमी होने की वजह से व्यापारियों की कुल पूंजी का एक बड़ा हिस्सा रिफंड-प्रोसेस में ही लटक गया है. लिहाज़ा व्यवसायियों को ‘पूंजी रोटेट’ कराना और बिज़नेस साइकिल पूरा कर पाना नामुमकिन हो गया है. सरकारी आंकड़े बताते हैं कि जुलाई से दिसंबर छमाही के बीच दाखिल हुए कुल जीएसटी रिटर्न्स में से सिर्फ 16% रिटर्न्स का ही अभी तक जीएसटीआर-3 से मिलान हो पाया है. इसी वजह से जीएसटी रिफंड की रफ्तार काफी सुस्त है.
फाइल किए गए रिटर्न्स की पड़ताल में चौंकाने वाली बात यह सामने आई है कि 34 फीसदी कारोबारियों ने टैक्स के रूप में 34 हज़ार करोड़ रुपए कम रकम जमा किए हैं. इन कारोबारियों को 8.50 लाख करोड़ रुपए टैक्स जमा करना था, जबकि कारोबारियों ने 8.16 लाख करोड़ रुपए ही जमा किए हैं. ताज़ा आंकड़े बताते हैं कि वित्तमंत्री अरुण जेटली द्वारा जीएसटी लागू करते समय टैक्स-कलेक्शन में अपार बढ़ोतरी के जो लम्बे-चौड़े वादे किए गए थे, वे सब झूठे साबित हुए हैं. पिछले महीने जीएसटी का कुल टैक्स कलेक्शन 86 हज़ार करोड़ रुपए हुआ है. इसमें रिफंड होने वाली रकम भी शामिल है. यदि रिफंड की जाने वाली रकम कम कर दें, तो जीएसटी से होने वाली शुद्ध आय इसकी आधी ही रह जाएगी. मतलब सा़फ है कि जीएसटी को लेकर केंद्र और राज्यों की आय में भारी बढ़ोतरी होने के जो दावे किए गए थे, वे सब झूठे थे और जनता को बेवक़ू़फ बनाने के लिए किए गए थे.
निवेश कहां हुआ है?
प्रधानमन्त्री मोदी की दावोस यात्रा को लेकर भले ही कितना शोर-शराबा किया जा रहा हो, लेकिन आर्थिक आंकड़े और जमीनी सच्चाई कुछ और कहानी बयां कर रहे हैं. प्रधानमन्त्री ने वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम में कहा है कि उन्होंने जीएसटी लागू करके टैक्स ढांचे में क्रांतिकारी बदलाव किया है, 1400 पुराने क़ानून रद्द किए हैं, रेड टेपिज्म की संस्कृति को रेड कार्पेट में बदला है, आदि आदि. लेकिन मोदी जी ने यह नहीं बताया कि ‘ईज़ ऑ़फ डूइंग बिज़नेस रैंकिंग’ में 100वें स्थान पर आने के बावजूद भारत में निजी-निवेश लगातार नीचे क्यों जा रहा है? सरकार को चाहिए कि वो देश को बताए कि पिछले कुछ वर्षों में किन क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हुआ है. हमारी जानकारी के मुताबिक एफडीआई का एक बड़ा हिस्सा जोखिम ग्रस्त परिसम्पतियों (डाउटफुल या लॉस एसेट) को खरीदने में हुआ है, जिसका विनिर्माण और रोज़गार से कोई लेना-देना नहीं है. मसलन 13 बिलियन अमेरिकी डॉलर का एस्सार रिफाइनरी सौदा. लेकिन इससे देश के बेरोज़गार नौजवानों को क्या मिला? इसी तरह निवेश का एक और बड़ा क्षेत्र ई-कॉमर्स प्रोजेक्ट्स हैं. सरकार शायद ये बताना भूल गई है कि बहुप्रचारित मुद्रा योजना में हज़ारों करोड़ का क़र्ज़ बांटे जाने के बावजूद न तो रोज़गार के अवसर बढ़े और न ही मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में कोई असर पड़ा.
प्रधानमन्त्री ने हाल में दावा किया कि उनके कार्यकाल में 10.90 करोड़ लोगों को रोज़गार दिया गया है. उन्हें यह भी बताना चाहिए कि ये रोज़गार किन लोगों को और किन क्षेत्रों में दिए गए हैं. सरकारी आंकड़ों के हिसाब से देखें तो मोदी जी के इस दावे के बाद देश में बेरोज़गारी पूरी तरह से ख़त्म हो गई है. प्रधानमन्त्री ने दावोस में भारत की संस्कृति और वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना का भी उल्लेख किया, लेकिन शायद वे यह बताना भूल गए कि भारत के अमेरिका जैसे समर्थक देश ने हाल में ये क्यों कहा कि भारत महिलाओं के लिए सुरक्षित देश नहीं है. यानी कोई भी विदेशी महिला पर्यटक भारत आने पर खुद को महफूज़ नहीं समझ सकती. दुनिया के सामने यह तथ्य भी रखना चाहिए कि हाल के वर्षों में इस बहुलतावादी देश में महिलाओं से रेप और गाय के नाम पर लिंचिंग की कितनी घटनाएं हुई हैं.
क्या सरकार ये बताएगी कि देश के 1% लोगों के पास 73% दौलत कैसे चली गई. 2017 के आंकड़ों के हिसाब से सवा सौ करोड़ की आबादी वाले देश में 67 करोड़ लोग अब भी गरीबी की रेखा के नीचे जीवन गुज़ार रहे हैं. एक सर्वे के Aमुताबिक़, 2017 में हर दो दिन में एक व्यक्ति करोड़पति से अरबपति बन रहा है. इस तरह 2017 में 101 नए अरबपति बन गए हैं. 2016 में 1% लोगों के पास 58% संपत्ति थी. लेकिन 2016-17 के बीच ऐसे लोगों की संपत्ति में 20.9 लाख करोड़ का इजाफा हुआ. यह राशि भारत सरकार के 2017-18 के बजट के बराबर है. मोदी सरकार के तमाम दावों के बावजूद देश में अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई में कोई कमी नहीं आई है.
बैंकों-उद्योगों की हालत खराब
पीएनबी घोटाले की रकम अब लगभग 30 हजार करोड़ रुपए तक पहुंच गई है. कुछ दिन पहले रीड एंड टेलर ब्रांड के मालिक एस कुमार्स भी 5 हजार करोड़ रुपए डुबोकर दिवालिया होने की कतार में शामिल हो गए हैं. एयरसेल भी बैंकों के 15 हजार 5 सौ करोड़ रुपए चुकाने में असमर्थ है और वह भी दिवालिया होने की लाइन में है. बची हुई टेलीकॉम कम्पनियां दिवालिया होने को आतुर दिख रही थीं, इसलिए सरकार ने स्पेक्ट्रम की रकम दस साल में चुकाने के बजाय 16 साल में चुकाने का समय दे दिया है. जेपी इंफ्राटेक भी दिवालिया होने को एक पांव पर खड़ी है. भूषण स्टील, एस्सार स्टील और इलेक्ट्रोस्टील स्टील्स ने बैंकों के 92 हजार करोड़ रुपए डुबो दिए हैं और तीनों कम्पनियां दिवालिया होने के लिए कोर्ट के दरवाजे पर खड़ी हैं. भूषण पावर-37,248 करोड़ और मोनेट इस्पात-8,944 करोड़ की देनदारी अलग ही है. अनिल अंबानी के रिलायंस ग्रुप पर अकेले 1 लाख 21हजार करोड़ का बैड लोन हो गया है. कहा जा रहा है कि कुल मिलाकर 10 बड़े बिजनेस समूहों पर 5 लाख करोड़ का बक़ाया कर्ज़ा है. कोलकाता की कंपनी आरपी इन्फो सिस्टम, जो चिराग ब्रांड से कंप्यूटर बनाती है, ने 10 बैंकों को करीब 500 करोड़ रुपए से ज्यादा का चूना लगा दिया है. आयकर विभाग ने 3200 करोड़ रुपए के टीडीएस घोटाले का खुलासा किया है. इस मामले में 447 कंपनियों ने अपने कर्मचारियों की सैलरी से टैक्स की रकम तो काट ली, लेकिन उसे आयकर विभाग में जमा करने की बजाय अपने कारोबार को बढ़ाने में लगा दिया. कानपुर की कम्पनी श्री लक्ष्मी कॉटसन लिमिटेड ने 16 बैंकों से 3972 करोड़ लोन लिया था और अब ये कंपनी डिफॉल्टर हो गई है. रोटोमैक ग्लोबल प्राइवेट लि. के डायरेक्टर विक्रम कोठारी ने 7 बैंकों के कंसोर्टियम से लगभग 5 हजार करोड़ रुपए का लोन लिया था, जिसे चुकाने में वे असमर्थ हैं. सिंभावली शुगर्स लिमिटेड से जुड़े 110 करोड़ के बैंक फ्रॉड मामले में सीबीआई ने पंजाब के सीएम अमरिंदर सिंह के दामाद और सिंभावली शुगर्स के डीजीएम गुरपाल सिंह के खिलाफ केस दर्ज किया है. ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स से 389.85 करोड़ रुपए के लोन की धोखाधड़ी के मामले में सीबीआई ने हीरा कारोबारी फर्म द्वारका दास सेठ इंटरनेशनल लिमिटेड पर मामला दर्ज किया है. नीरव मोदी, माल्या, वीडियोकॉन और आईसीआईसीआई का ताजा मामले भी हमारे सामने है.
वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की रिपोर्ट
वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम द्वारा जारी वार्षिक सूचकांक सूची ने मोदी सरकार के अर्थव्यवस्था की मजबूती के बारे में किए जा रहे बड़े-बड़े दावों की हवा निकाल दी है. दावोस में चल रही वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की वार्षिक बैठक से ठीक पहले एक एजेंसी ने जो सूचकांक जारी किया, उसमें भारत को दुनिया की उभरती अर्थव्यवस्थाओं में 62वें स्थान पर रखा गया, जबकि वित्तमंत्री अरुण जेटली ने पिछले दिनों दावा किया था कि 2018-19 में भारत, फ्रांस और जर्मनी को पछाड़कर दुनिया की पांच बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शामिल हो जाएगा. इस सूची के अनुसार भारत फिलहाल अपने पड़ोसी देशों- चीन और पाकिस्तान से बहुत पीछे है. फोरम द्वारा जारी सूची में चीन 26वें और पाकिस्तान 47वें स्थान पर है, जबकि भारत पिछले साल के मुकाबले दो पायदान नीचे खिसककर 62वें स्थान पर पहुंच गया है. आपको बता दें कि पिछले साल 79 विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में भारत 60वें स्थान पर था. पिछले साल पाकिस्तान 52वें स्थान पर था, जो अब पांच स्थान ऊपर उठकर 47वें स्थान पर आ गया है. यह भी जानना जरूरी है कि वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था का मूल्यांकन कुछ निश्चित मानकों के आधार पर करता है. इन मानकों में लोगों के रहने का स्तर, पर्यावरण की स्थिति और आने वाली पीढ़ियों पर क़र्ज़ के बोझ की संभावना जैसे बिंदु शामिल किए जाते हैं. इस रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया के छोटे-छोटे तमाम देश, जिनमें माली, युगांडा, घाना, यूक्रेन-सर्बिया, फिलीपींस, ईरान, मैक्सिको, मलेशिया और थाईलैंड जैसे मुल्क शामिल हैं, अर्थव्यवस्था के नाम पर हमसे मजबूत और अमीर हैं. यहां तक कि पड़ोसी मुल्क नेपाल और श्रीलंका भी इस लिहाज़ से हमसे बेहतर हैं. बहरहाल, प्रधानमन्त्री अगर गरीबों की सचमुच इतनी ही चिंता करते हैं, तो सवाल यह है कि देश की तस्वीर ऐसी क्यों बनती जा रही है. हम भी सोच रहे हैं, प्रधानमन्त्री जी जरा आप भी सोचिए…
भ्रष्टाचार और गरीबी की जड़ें और गहरी हुई हैं
भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टॉलरेंस की नीति अपनाने का दावा करने वाली मोदी सरकार के सारे दावे तीन साल में ही हवा-हवाई साबित हो गए हैं. ‘न खाऊंगा और न खाने दूंगा’ की हुंकार भरने वाले प्रधानमन्त्री भले खुद पाक-सा़फ हों, लेकिन उनकी सरकार के कृपा-पात्र पूंजीपतियों के कारनामे उजागर हो रहे हैं, उससे यह तस्वीर सा़फ हो गई है कि कुछ लोग खा भी रहे हैं और बैंकों का पैसा लेकर देश के बाहर बेरोकटोक जा भी रहे हैं. ‘ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल’ की ताज़ा रिपोर्ट में कहा गया है कि भ्रष्टाचार के मामले में भारत 2016 के मुकाबले 2 पायदान नीचे खिसक कर 81वें स्थान पर पहुंच गया है. ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने दुनिया के 180 देशों के बीच सरकार और सार्वजानिक जीवन में फैले भ्रष्टाचार के स्तर की पड़ताल की है. इसके पहले भारत भ्रष्ट देशों की रैंकिंग में 2016 में 76वें तथा 2017 में 79वें स्थान पर था. मतलब यह है कि मोदी सरकार के कार्यकाल में भी भ्रष्टाचार की जड़ें और गहरी होती जा रही हैं.
ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल द्वारा सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार को लेकर की गई गणना में भारत ने 100 में 40 अंक पाकर 81वां स्थान हासिल किया है, जबकि न्यूज़ीलैंड और डेनमार्क इस रैंकिंग में क्रमशः पहले व दूसरे स्थान पर हैं. भ्रष्टाचार के मामले में जहां सोमालिया, सूडान और सीरिया सबसे निचले पायदान पर हैं, वहीं भारत 43 के औसत अंक से भी नीचे है. इस सर्वे में एक और चौंकाने वाली बात सामने आई है. वह यह कि भारत अब भ्रष्टाचार में ही नहीं, बल्कि मीडिया के उत्पीड़न और गरीबी, अन्याय व जन अधिकारों को लेकर लड़ने वाले गैर सरकारी संगठनों को कुचलने के मामले में भी तेज़ी से तरक्की कर रहा है. सत्ता प्रतिष्ठान के विरोध करने वालों पर हमले हो रहे हैं. रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर सप्ताह औसतन एक पत्रकार या एक्टिविस्ट इन हमलों का शिकार हो रहा है.
अब हम बात करते हैं एक दूसरी रिपोर्ट की. यह रिपोर्ट प्रधानमंत्री के इस दावे को कि उनकी सरकार गरीबों को समर्पित सरकार है, पूरी तरह से खारिज करती है. गैर सरकारी संगठन ‘ऑक्सफेम’ द्वारा हाल में जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले पांच साल में भारत में अमीर और गरीब के बीच की दूरियां बढ़ी हैं. अमीर और ज़्यादा अमीर, जबकि गरीब ज़्यादा गरीब होते जा रहे हैं. प्रधानमन्त्री का ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा झूठा और छलावा साबित हो रहा है. सच्चाई यह है कि देश की कुल जीडीपी का 15% हिस्सा गिने-चुने अरबपतियों के पास है. पांच साल पहले इन धन-कुबेरों के कब्ज़े में जीडीपी का केवल 10% पैसा था. दावोस में पिछले दिनों हुई वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की बैठक के दौरान यह खुलासा हुआ था कि देश के 1% अमीरों के पास मुल्क की 73% दौलत है. साल 2017 में देश में 101 नए अरबपति बने हैं. यानी मुट्ठी भर लोग देश की दौलत से अपनी तिजोरियां भर रहे हैं, तो दूसरी ओर लाखों गरीब, बेरोज़गार और मज़बूर किसान भूखमरी और क़र्ज़ के बोझ से आत्महत्या कर रहे हैं. आखिर ये कैसा हिंदुस्तान हम बना रहे हैं, प्रधानमन्त्री जी!
बेरोज़गारी का दंश
हर साल दो करोड़ लोगों को रोज़गार देने का वायदा करने वाली मोदी सरकार इस मोर्चे पर भी पूरी तरह विफल रही है. श्रम मंत्रालय के आकड़े भी बताते है कि भारत में बेरोज़गारी इस समय पिछले पांच वर्षों के उच्च स्तर पर है. इस समय देश की 11 फीसदी आबादी पूरी तरह बेरोजगार है. नोटबंदी और जीएसटी के बाद बेरोज़गारी में 7% तक की बढ़ोतरी हुई हैं. इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन की हाल ही में आई रिपोर्ट में भी दावा किया गया है कि भारत में 2016 से 2018 के बीच बेरोज़गारी तेज़ी से बढ़ी है. एक अनुमान के मुताबिक़, रोज़गार के अवसरों में यह गिरावट आगे भी जारी रहेगी. इसी तरह अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का मानना है कि जीएसटी जैसे आर्थिक सुधारों के लागू होने के बाद भी देश में रोजगार के अवसर बढ़े नहीं हैं.