सफल और मज़बूत मानवीय विकास को समझने के लिए ग़रीबी को बहुआयामी तरीक़े से समझना, उनके समग्र विकास के लिए काम करने और स्वाधीनता व समानता के सिद्धांतो का पालन करना ज़रूरी है. इसके साथ ही एक ऐसा वातावरण बनाना ज़रूरी है, जहां सबके लिए मौक़ा मुहैया हो और सृजनात्मकता को खिलने और फूलने का मौक़ा मिले.
नेहरू के समय से ही भारत इस बहुलतावादी चिंताओं को समझता है. नेहरू ने शुरुआत में ही ग़रीबी, अज्ञानता, बीमारी और असमानता को ख़त्म करने की वकालत की थी. यह सभी चिंताएं आज तक की तारीख़ तक चुनौती बनी हुई है. हालांकि राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक तौर पर भारत में हाल ही में बहुत सारे बदलाव आए हैं. ये निरंतर बदलाव इतने ताक़तवर हैं कि इनको नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. इसलिए उचित सवाल यही होगा कि उभरती सामाजिक- राजनीतिक परिस्थिति को किस तरह से बदला जाए, ताकि असमानता और ग़रीबी को मिटाया जा सके.

(देखें ग्राफ -1)
मुख्य तौर पर ग़रीबी मिटाने के लिए ये तीन प्रक्रियाएं ज़रूरी होंगी.
1. रोज़गार के मौक़ों में बढ़ोतरी के साथ ही सही मज़दूरी और राष्ट्रीय संपदा का प्रभावी बंटवारा भी ज़रूरी है. ताकि जनसामान्य के लिए आय बढ़ाई जा सके.
2. उत्पादित और उपभोग लायक वस्तुओं और
सेवाओं के दाम को स्थिर करना. साथ ही भारत के हरेक हिस्से में बाज़ार को इस तरह बनाना. ताकि आवाजाही के ख़र्च को बचाया जा सके.

3. कल्याणकारी सेवाओं जैसे आय के हस्तांतरण, सब्सिडी, उचित मूल्य की वस्तुओं के वितरण और इस तरह की तमाम सेवाओं में नियंत्रित तौर पर हस्तक्षेप  किया जा सके या सुरक्षा दायरे में लाया जा सके.

फिलहाल हम समाज के तीन प्राथमिक कारकों-सरकार, बाज़ार और नागरिक समाज-में जो नया और गतिशील संतुलन देखते हैं या उसका अध्ययन करते हैं तो यही पाते है कि शुरुआत सरकार से ही होगी. वह सरकार ही है जिसकी मुख्य भूमिका मानव विकास और समानता को सुनिश्चित करने में स्वाधीन भारत में इस भूमिका को बेहद गंभीरता से लिया और नेहरू के नेतृत्व में एक समाजवादी कार्यक्रम अपनाया. नेहरू ने एक लंबे समय तक देश की सेवा की. जिस दौरान भारी मात्रा में उद्योग और सेवाओं को मुहैया कराने के लिए जनता को केंद्र में रखा. यह माना जाता था कि उत्पादन, मूल्यों, निवेश और वैश्विक व्यापार पर केंद्रीय नियंत्रण रोज़गार मुहैया कराने, तेज़ आर्थिक विकास करने और भारत को स्वावलंबी बनाने के लिए आवश्यक है. उसके बाद के चार दशकों में भारत ने कई क्षेत्रों में काफी बढ़िया काम किया. हालांकि मानव विकास सूचकांक दक्षिण एशिया के कुछ ही देशों (जैसे श्रीलंका) के मुक़ाबले हमारी हालात हल्की बेहतर बताता है. ग़रीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों का प्रतिशत 80 के दशक के आख़िर में 55 से 39 फीसदी ही हो पाया था. 1990 के ही दौरान औसत आयु 32 से बढ़कर 55 वर्ष हुई थी और शिशु मृत्यु दर 175 प्रति 1000 से घटकर 100 हो गई थी.
यह अब जानी-मानी बात है कि भारत कम सकल घरेलू उत्पाद(जीडीपी) के कुचक्र से निकल गया है और अब तो इसकी विकास दर सात फीसदी (मंदी के इस दौर में) के आसपास आंकी जा रही है. ऊंची जीडीपी हाल ही में आया हुआ एक रुझान है और यूपीए सरकार ने एक निश्चित समय के लिए सात से आठ फीसदी तक बरकरार रखने की बात दोहराई है. हालांकि यह तो भविष्य ही बताएगा कि लक्षित विकास दर पाया गया और स्थायी हो सका या नहीं?
एक गतिशील और नया नेतृत्व

उदारीकरण के पहले के कमज़ोर शासन का दोष आमतैार पर गहरे तक जड़ जमाए भ्रष्टाचार, नौकरशाही के नकारापन, लालफीताशाही और लाइसेंस-कोटा राज की वजह से प्रतियोगिता और नवीनता की कमी को बताया जाता है. हालांकि, ग़रीबी उन्मूलन और समानता लाने में जो सबसे बड़ा बाधक तत्व बताया जाता है, वह ट्रिकल-डाउन (ऊपर से नीचे की ओर आना) का सिद्धांत माना जाता है. हालांकि पंचायतों का विचार 1970 के दशक के आख़िरी दौैर में कुछ राज्यों में आ गया था. प. बंगाल और कर्नाटक जैसे कुछ राज्यों में ग्रामीण विकास परियोजनाओं को रफ़्तार देने के लिए पंचायत प्रतिनिधियों को फंड के साथ-साथ कुछ अधिकार भी दिए गए. वैसे तो 22 दिसंबर 1992 के पहले तक यह संभव नहीं था कि पंचायतों को संवैधानिक दर्जा मिला हो. इसी दिन कांग्रेस सरकार ने संविधान का 73वां संशोधन पारित किया था, जिसकी वजह से पंचायतों को न केवल संवैधानिक रुतबा मिला बल्कि इससे शासन की प्रक्रिया और विचारधारा में ही मूलभूत बदलाव ला दिया. इसने ट्रिकल-डाउन सिद्धांत की जगह बॉटम-अप (समाज के सबसे निचले तबके से ऊपरवाले तबके की ओर विकास का रुख़) सिद्धांत को बढ़ावा दिया. इसके साथ ही ज़मीनी स्तर पर लोगों की भागीदीरी को भी अहम बनाया गया. गांव के स्तर पर स्थानीय प्रशासन को पंचायती राज व्यवस्था के माध्यम से और शहरी इलाक़ों में नगर-निगमों और परिषदों की स्थापना (74वां संविधान संशोधन) को एक अलग और रेडिकल राजनैतिक प्रयास माना गया. इनके मा़र्फत सत्ता और संसाधनों को देश के बिल्कुल दूर-दराज़ के गांवों में रहने वाले लाखों ग़रीबों तक पहुंचाने का साधन माना गया. यह सचमुच ग़रीबों के लिए उम्मीद की एक किरण थी. यह भी उम्मीद की गई कि बढ़ती पारदर्शिता भ्रष्टाचार पर लगाम लगाएगी, सरकार और आम आदमी के बीच सूचनाओं का प्रवाह दोनों तऱफ से बढ़ेगा, स्थानीय स्कूलों और स्वास्थ्य केंद्रों में सरकारी कर्मचारियों का ग़ैरहाज़िर होना कम होगा, क्योंकि स्थानीय लोग ही उसका निरीक्षण करेंगे और सरकारी कार्यक्रमों में भागीदारी से उनका चिंतन भी बेहतर होगा. सबसे बढ़कर यह है कि सरकारी नीतियां स्थानीय लोगों की निगरानी से बेहतरीन हो सकेंगी चूंकि वे प्रतिनिधि स्थानीय हालात को बेहतर समझ सकते हैं. अंतिम तौर पर यह कि स्थानीय लोग विकास परियोजनाओं में अपनी मिल्कियत समझ सकेंगे ताकि वे स्थायी लाभ दे सकें.
इस तरह की कई पंचायतों के उदाहरण हैं, जो इनमें से एक या दो उद्देश्यों में सफल रही हैं लेकिन जब पूर्ण लक्ष्य की बात हो तो सभी पंचायतें उम्मीद पर खरी नहीं उतरी हैं. ज़ाहिर तौर पर जनहित के जज़्बे की कमी और भ्रष्टाचार के जाल के कारण ही ये पंचायतें ग़रीबी और सामाजिक बहिष्कार मिटाने में असफल रही हैं. लेकिन जिस सबसे बड़े मुद्दे से इन्हें निपटना है वह नगरपालिका या पंचायत स्तर पर नेतृत्व की कमी का है. इन स्तरों पर नेतृत्व अधिकांशतः दिशाहीन और अपनी भूमिका, नियमों और स्थानीय नौकरशाही की तुलना में अपनी अहमियत को समझ पाने में असफल रहा है.
अब उत्तर प्रदेश में लागू की गई मध्याह्न भोजन(मिड-डे मील) योजना को ही लें. यह योजना सर्वोच्च न्यायालय के बार-बार याद दिलाने के बाद ही आधिकारिक तयशुदा तारीख़ के काफी दिनों बाद लागू की जा सकी. लखनऊ के पड़ोसी ज़िले सीतापुर में मिसरीपुर गांव के मुखिया इस योजना को लागू करने के तरीक़ों और उपायों के बारे में जानकारी की शिकायत करते हैं- उदाहरण के लिए हमारे गांव के तीन स्कूलों को बर्तनों के लिए 1200 रुपये दिए गए हैं, लेकिन मसालों, ईंंधन और तेल के बारे में क्या प्रावधान हैं? हमें नहीं पता कि यह कितने दिनों पर मिलेंगे. हमें अचानक ही एक ऐसी योजना लागू करने को कहा गया है जिसके बारे में हम कुछ नहीं जानते. सरकार ने इस मामले में हमें भरोसे में नहीं लिया. (एजुकेशन वर्ल्ड, 2004).
गांव और पंचायत स्तर की प्रशासनिक और लेखे-जोखे की व्यवस्था नाकारा सी हैं और अक्षमता, दुरुपयोग और ग़ैर-पारदर्शी अंदाज़ के शासन को बढ़ावा देते हैं. हाल की व्यवस्था में जो आर्थिक सुधारों, सार्वजनिक समूहों (केंद्रीय और राज्य दोनों स्तर पर) का आकार घटाने ने ज़ाहिर तौैर पर ज़मीनी स्तर पर सेवाएं मुहैया कराने वालों को प्रभावित किया है. जनप्रतिनिधियों को स्थानांतरित नहीं करने की नीति ने घरेलू और ग्रामीण स्तर पर सेवाओं को प्रभावित किया है, जैसे- प्राथमिक और शुरुआती शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं और बाल-पोषण जैसी सेवाओं को. कुछ इलाक़ों में तो सरकार और उसके अमले में ज़रूरी से अधिक अधिकारी है जबकि कुछ अहम इलाक़ों में अधिकारियों की घोर कमी है, ख़ासकर गांवों के इलाक़ों में पर्याप्त शिक्षक और डॉक्टरों की कमी तो साफ-साफ दिखती है. इन सेवाओं के जनता तक पहुंचाने की व्यवस्था में तभी सुधार हो सकता है जब हम अपने आधारभूत ढांचे में पर्याप्त बदलाव करें और कुशल व प्रशिक्षित कर्मचारियों को निचले और छोटे स्तरों पर तैनात करें. इसी वजह से शासन के तीसरे स्तर (पढ़ें स्थानीय) पर ज़मीनी स्तर के कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करने की ज़रूरत है. सबसे ग़रीब वर्ग के लिए योजनाओं को लागू करने में एक अजीब तरह का अस्थायी नज़रिया और उदासीन रवैया अपनाया जाता है. सेवा प्रदान करने के तरीक़े में चौतऱफा सुधार से ही इस तरह की योजनाओं को लागू करने में गंभीरता लाई जा सकती है.  ज़मीनी स्तर के शासन की असफलता का सबसे नाटकीय उदाहरण सिविल सोसायटी का ज़मीनी विकास कार्यों में कोई रुचि नहीं दिखाना है. ग़ौरतलब है कि पंचायत व्यवस्था सिविल सोसायटी के विकास योजनाओं को बनाने और लागू करने में भागीदारी के लिए सबसे सही जगह थी. भारत में विकास की पूरी प्रक्रिया में ग़ैर-सरकारी संगठनों की बाढ़ आना दरअसल बाज़ार के उदारीकरण का नतीज़ा है, जिसकी वजह से देश में ख़ासी मात्रा में सामाजिक पूंजी के आने के साथ ही एक ऐसी संस्कृति भी विकसित हुई, जो अंतरराष्ट्रीय विकास संगठनों जैसे संयुक्त राष्ट्र वग़ैरह की देन थी.
ख़ास हुआ बाज़ार बाज़ार के उदारीकरण के पीछे का कारण अगर देखें, तो पाएंगे कि समाजवाद के ऊंचाई पर रहने के दौर में भी यह बात हमेशा महसूस की जाती रही कि ग़रीबों को शायद विकास में हिस्सा नहीं मिल पा रहा है. व्यवस्था के असफल होने के पीछे उत्पादन और निवेश पर नौकरशाही का शिकंजा कसे रहना बताया गया. आख़िरकार 1991 में जब भारतीय अर्थव्यवस्था के सामने भुगतान का गहरा संकट आया तो सरकार ने ऐतिहासिक उदारीकरण की शुरुआत की. हालांकि, राज्यों और अलग इलाक़ों के बीच सामाजिक-आर्थिक असमानता भी काफी बढ़ी, भले ही इसके लिए शुरुआती स्थितियां और स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं के नई स्थितियों के मुताबिक ढलने को ज़िम्मेदार समझा गया. उस समय से आज की तारीख़ तक सुधार जारी हैं. इसका ध्येय दरअसल उद्योगों को और सक्षम, अधिक प्रतियोगी बनाना है, ताकि संसाधनों का प्रभावी इस्तेमाल कर उच्च स्तर पर लागत वसूल की जा सके. इस प्रक्रिया से करों के मार्फत अधिक सार्वजनिक राजस्व वसूल किया जा सकता है, और इनका इस्तेमाल सामाजिक निवेश में हो सकता है. यह बात दीगर है कि देश की 50 फीसदी जनता अब भी निर्बल और लाचार है. सामाजिक निवेश के बाद भी ग़रीबों को पर्याप्त गुणवत्ता और मात्रा वाले निवेश को महसूस करने में कठिनाई होती है. ग़रीबों का 75 फीसदी हिस्सा गांवों में रहता है और उनमें से अधिकतर खेती और उससे जुड़े कामों पर निर्भर रहते हैं. उदारीकरण को ग़रीब-विरोधी और अमीर-समर्थक मानने का बड़ा कारण इस प्रक्रिया से गांवों और खेती को बाहर रखना है. स्थायी तौर पर ग़रीबी को हटाने में बाज़ार की भूमिका अहम है. इसके समाधान के लिए यही बचता है कि हरेक दावेदार को बराबर का मौक़ा मुहैया कराया जाए और उन मूलभूत मुद्दों का समाधान किया जाए, जो मुक्त बाज़ार की भावना को ही बाधित करते हैं. सरकार और निजी क्षेत्र को एक साथ मिलकर यह तय करना होगा कि वे सारे खिलाड़ियों को एकसमान मौक़ा दें, भागीदारी को बढ़ावा दें, प्रतियोगिता का सम्मान करें और जोखिम से सुरक्षा दें. सबसे अहम बात यह है कि संसाधनों का स्थायी इस्तेमाल तय करें. इस वजह से सरकार अपना काम तभी बेहतर ढंग से कर सकती है, जब वह उत्पादन का जिम्मा मुक्त बाज़ार को दे, जिसने हमेशा नए प्रयोग किए हैं, और वह अपने मुख्य कर्तव्य को पूरा करे. यानी, न्याय, समानता और नागरिकों को सुरक्षा देते हुए उनको राष्ट्रीय एकता के भाव से भर दे (देखें ग्राफ-2). आख़िर लोकशाही में एक सरकार के और सरोकार हो भी क्या सकते हैं? अंत में, बात बस इतनी ही कि किसी भी समाज के समग्र विकास के लिए उसके हरेक अंग को अपने कर्तव्य पूरे करने होंगे और अधिकारों के लिए आवाज़ उठानी ही होगी.

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