जेल में बंद किसी भी आपराधिक छवि के बिहारी नेता की इतनी चर्चा मीडिया में शायद ही कभी हुई हो जितनी मोहम्मद शहाबुद्दीन की होती रही है. ग्यारह साल की लम्बी अवधि में जब तक शहाबुद्दीन जेल में रहे मीडिया की बड़ी खबर रहे. इसलिए शहाबुद्दीन पर बात आगे बढ़ाने से पहले बात मीडिया की कर ली जाए. बात मीडिया की करना इसलिए भी जरूरी है कि पिछले तीन महीने में मीडिया शहाबुद्दीन मामले में बुरी तरह गच्चा खा गया. इस हत्या में शहाबुद्दीन का नाम अप्रत्यक्ष रूप से खूब उछला था. कुछ ही दिनों में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मामले की जांच सीबीआई को सौंपने घोषणा कर दी. सरकार के इस फैसले को मीडिया के सम्मिलित अभियान का असर माना गया. तब यह मीडिया ही था जिसने ऐसा समा बांधा कि जैसे पुलिस सीवान जेल में बंद शहाबुद्दीन के गिरेबान तक हाथ पहुंचा चुकी हो. इसी बीच शहाबुद्दीन को सीवान जेल से भागलपुर जेल शिफ्ट कर दिया गया. इस मामले को ऐसे देखा-दिखाया गया जैसे शहाबुद्दीन सीवान के अमन-चैन के लिए खतरा हों, लेकिन तब किसी को इसका आभास तक नहीं था कि शहाबुद्दीन का भागलपुर शिफ्ट किया जाना, उन अनेक कारणों में से एक महत्वपूर्ण कारण था जिसके वजह से आज शहाबुद्दीन जेल से जमानत पा कर रिहा हो चुके हैं. तब मीडिया या तो अति उत्साह में था या उसे इस बात का आभास तक न था कि शहाबुद्दीन का भागलपुर शिफ्ट किया जाना, आने वाले दिनों में उनके लिए बड़ी राहत लेकर आने वाला था और हुआ भी वैसा ही. शहाबुद्दीन 10 सितम्बर को जमानत पर रिहा कर दिए गए.
अब यहां शहाबुद्दीन की रिहाई के किस्से के पीछे का किस्सा जान लेना जरूरी है. तभी यह स्पष्ट हो सकेगा कि मीडियाई शोर का कितना बड़ा लाभ शहाबुद्दीन को मिल गया. गौर से देखें तो यह रिहाई के किस्से से ज्यादा रिहाई की रणनीति जैसी मालूम पड़ती है. दिलचस्प तो यह है कि इस रणनीति से पर्दा तब उठा जब पटना हाईकोर्ट ने जमानत का आदेश पारित किया और इस पर उनके वकील यदुवंश गिरी ने बहस की. यदुवंश गिरी ने जमानत के लिए जो तर्क अदालत में पेश किये उसी आधार पर, तेजाब हत्याकांड के गवाह राजीव रौशन की हत्या मामले में न्यायमूर्ति जितेंद्र मोहन शर्मा की पीठ ने जमानत दे दी. यदुवंश गिरी ने अदालत में जमानत के लिए जो आधार पेश किया वह गौर करने लायक है. गिरि ने कहा जिस समय घटना हुई ( राजीव रौशन की हत्या) के समय मेरे मुवक्किल (शहाबुद्दीन) जेल में थे. इस मामले में हाईकोर्ट ने इसी वर्ष 3 फरवरी को जमानत अर्जी खारिज करते हुए नौ महीने में ट्रायल प्रक्रिया पूरी करने का आदेश विशेष अदालत को दिया था. लेकिन राज्य सरकार ने 20 मई को सीवान जेल से अगले छह माह के लिए शहाबुद्दीन को विशेष केंद्रीय कारागार भागलपुर भेज दिया. ऐसे में उन्हें तारीख पर कोर्ट में हाजिर नहीं किया जा सकता था और ट्रायल प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ी. इसके अलावा इस मामले में विशेष कोर्ट ने कोई संज्ञान तक नहीं लिया और फिर हुआ यूं कि शहाबुद्दीन को इस मामले में जमानत मिल गई.
अब फिर जरा हम शहाबुद्दीन बनाम मीडिया के मामले पर लौटते हैं. तब यह स्पष्ट हो जायेगा कि पत्रकार राजदेव रंजन की हत्या के बाद शहाबुद्दीन को भागलपुर जेल शिफ्ट किए जाने को सीवान में अमन के खतरे से जोड़ कर देखने का मीडियाई नजरिया कैसे गच्चा खाने वाला साबित हुआ. फिर से याद रहे कि तब शहाबुद्दीन को भागलपुर शिफ्ट करने को सिर्फ इस नजरिए से देखा गया था कि वहां की जेल में रहते हुए शहाबुद्दीन जांच प्रक्रिया को बाधित कर सकते हैं. गौर करने की बात है कि तब शहाबुद्दीन को भागलपुर शिफ्ट करने के फैसले पर सुशील मोदी समेत तमाम विपक्षी नेताओं में ऐसी खामोशी छायी थी, जैसे वह इस फैसले से संतुष्ट हों, लेकिन जमानत के पीछे की इस रणनीति पर अब स्वाभाविक है कि कानून के जानकार बारीकी से गौर करेने लगे हैं. वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने शहाबुद्दीन की जमानत के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाने का जो फैसला किया है, हो सकता है कि इन्हीं पहलुओं पर गौर करने के बाद यह फैसला लिया हो.
ऐसा सोचने वाले बहुत से लोग हैं कि आखिर जो शहाबुद्दीन निर्मम हत्या और फिरौती समेत पचासों मामलों के संगीन आरोपी होने के साथ हत्या के दो मामलों में सजायाफ्ता तक हों वह आम लोगों के एक खास हिस्से, उनकी पार्टी राजद, विपक्ष और यहां तक कि मीडिया के लिए इतना महत्वपूर्ण क्यों हैं? उनका महत्व 10 सितम्बर को भी तब दिखा जब वह जेल से बाहर आए. सैकड़ों गाड़ियों का काफिला, हाजरों खास व आम लोगों द्वारा उनका स्वागत और मीडिया की लगातार कवरेज इस बात की गवाही है कि शहाबुद्दीन सबके लिए महत्वपूर्ण हैं, भले जिस रूप में हों. दरअसल शहाबुद्दीन एक प्रतीक हैं. विपक्ष के लिए सियासी आक्रमण का. राजद के लिए वोट बैंक का और मीडिया के लिए टीआरपी का. भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह 2015 विधानसभा चुनाव के दौरान शहाबुद्दीन पर अपराध और कुशासन के प्रतीक के रूप में जब हमला कर रहे थे तो वह इसी बहाने वोटों के साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की रणनीति पर काम कर रहे थे. यही काम बिहार से उनकी पार्टी के नेता गिरिराज सिंह अब भी कर रहे हैं. अगर शहाबुद्दीन भाजपा के लिए अपराध के मुखौटे के पीछे साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का प्रतीक हैं तो दूसरी तरफ राजद के लिए शहाबुद्दीन वोटों के लिए एक खास सम्प्रदाय के नुमाइंदे के प्रतीक बन जाते हैं. राजद के लिए वह कितने महत्वपूर्ण हैं इसकी दो मिसालें काफी हैं. कोई तीन महीने पहले जब राजद ने संगठन की सर्वोच्च कार्यसमिति का गठन किया तो जेल के अंदर रहने के बावजूद शहाबुद्दीन उस समिति के सदस्य मनोनीत किए गए और दूसरी मिसाल सोशल मीडिया में वायरल हुआ वह वीडियो है जिसमें बिहार के एक मंत्री कारावास के अंदर उनसे विमर्श करते हुए दिखते हैं. रही बात शहाबुद्दीन के समर्थकों में उनके महत्व की तो भागलपुर से सीवान तक उनके स्वागत में उमड़ी भीड़ और फूटे पटाखों के दौरान मना जश्न इसकी गवाही है. यही कारण है कि अपनी इसी ताकत के भरोसे शहाबुद्दीन जिस पहले व्यक्ति पर प्ररोक्ष रूप से हमला कर रहे हैं वह कोई विपक्षी दल नहीं बल्कि खुद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं. लालू प्रसाद को अपना आजीवन नेता घोषित करते हुए वह नीतीश को नेता मानना तो दूर उन्हें परिस्थितियों का मुख्यमंत्री बता कर खुद अपना और राजद के वर्चस्व को सिद्ध करना चाहते हैं. ऐसे में जब यह बाहुबली और आपराधिक छवि का नेता पक्ष, विपक्ष और अपने समर्थकों के लिए महत्वपूर्ण हो तो स्वाभाविक तौर पर मीडिया उसे अनदेखा नहीं कर सकता.
अब कानून और कारावास के शिकंजों से बचे रहना शहाबुद्दीन की प्राथमिकता होगी. पर साथ ही सीवान में बिखर चुके अपने संगठन को सहेजने में वह लगेंगे. लेकिन अब जो माहौल उनके सामने होगा वह 12 वर्ष पूर्व के माहौल से एक दम अलग होगा. पहले की तरह रॉबिनहुड की छवि भाजपा उन्हें रचने की आजादी नहीं देगी, बल्कि वह शहाबुद्दीन पर अपने साम्प्रदायिक हथियारों से निशाना बनाना बेहतर मानेगी. सीवान में ओमप्रकाश यादव ने इसी हथियार से शहाबुद्दीन के साम्राज्य को बिखरने का नुस्खा अपनाया था. तब पहली बार ओमप्रकाश यादव ने शहाबुद्दीन के किले को निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में फतह किया था. लेकिन दूसरी बार उन्होंने जदयू का दामन थामने के बजाए भाजपा में शामिल होना उचित माना था. तब उनको पता था कि साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की बहुत संभावना जदयू में नहीं थी. दूसरी बार ओमप्रकाश शहाबुद्दीन की पत्नी हिना शहाब को हरा कर इस नुस्खे के महत्व को जान चुके हैं. याद रहे कि शहाबुद्दीन ने कभी साम्प्रदायिक राजनीति नहीं की. अपने राजनीतिक जीवन में मुस्लिम मुद्दे पर शहाबुद्दीन ने कभी मुंह नहीं खोला. सीवान में दो बार एमएलए और अनेक बार एमपी बनने का उनका यही नुस्खा था, लेकिन अब उन्हें मुस्लिम छवि रचनी पड़ सकती है. वह उनके लिए सेफ साइड भी होगा. राजद में मुस्लिम कद्दावर नेता की नितांत कमी भी है. मुस्लिम छवि के साथ वह सीवान की सरहदों से निकल कर बिहार भर में अपना मैदान बनाने का मौका भी तलाशने का रास्ता चुन सकते हैं. दूसरी तरफ राजद के लिए, शहाबुद्दीन का मुस्लिम चेहरा बनके उभरना बेहतर भी है, क्योंकि पिछले कुछ सालों में हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने बिहार में अपना पैर पसारना शुरू कर दिया है. शहाबुद्दीन ओवैसी इफैक्ट को रोकने में कारगर साबित हो सकते हैं.