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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारत को स्वस्थ एवं निरोग बनाने के लिए एक महत्वपूर्ण योजना का शुभारम्भ किया. वाकई यह गौरव की बात है कि इसके लिए झारखंड का चयन हुआ. राज्य के 57 लाख परिवारों को इस योजना से जोड़ा गया है, पर इन लोगों का इलाज आखिर होगा कहां? पंचायतों में न तो चिकित्सक है और न ही प्रशिक्षित नर्स. डॉक्टरों की घोर कमी, अस्पतालों में बेड की कमी, सुदूरवर्ती गांवों में सड़कों का न होना और बीमार लोगों तक एम्बुलेंस या गाड़ियों का न पहुंचना ही इस बात का एहसास दिलाता है कि योजना को बिना किसी ठोस नीति के बना दिया गया है. एक बड़ी ग्रामीण आबादी एएनएम एवं सहिया दीदी (प्रशिक्षित दाई) के भरोसे ही है.

इस महत्वाकांक्षी योजना का लाभ ग्रामीण आबादी ज्यादा से ज्यादा लेना चाहेंगे, जो पैसों के अभाव में अभी तक इलाज से वंचित रहे हैं. जाहिर है, गांवों में स्पतालों की सुविधा नहीं होने के कारण वे शहरी ?अस्पतालों की ओर रुख करेंगे, जहां के अस्पतालों में पहले से ही मारामारी है. ऐसे में एक बहुत बड़ा सवाल खड़ा होता है कि मरीज इलाज कहां कराएं.

इस योजना में निजी अस्पतालों को भी भागीदारी सुनिश्चित करने को कहा गया है, पर बड़े निजी अस्पताल इस योजना से दूर ही भाग रहे हैं. वे कागजी पचड़े में नहीं पड़ना चाहते. साथ ही सरकार ने हर बीमारी की दर निर्धारित कर दी है. ऐसे में निजी अस्पतालों को भारी घाटे का भय भी सता रहा है. स्वयं राज्य के स्वास्थ्य मंत्री रामचंद्र चंद्रवंशी ने यह स्वीकार किया कि निजी अस्पताल इस योजना में खास दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं. उन्होंने बताया कि अभी तक 296 अस्पताल सूचीबद्ध किए गए हैं, जिसमें 217 सरकारी अस्पताल हैं. राजधानी रांची में बड़े निजी अस्पताल अभी तक इस योजना से दूरी बनाए हुए हैं.

न अस्पताल, न बेड, न डॉक्टर

अब इस योजना की सफलता पर इसलिए भी सवाल उठना लाजिमी है कि न तो यहां चिकित्सक है और न ही अस्पताल. सात हजार की आबादी पर अस्पतालों में औसतन एक बेड है और 19 हजार की आबादी पर एक चिकित्सक है, जबकि दिल्ली में 11 हजार की आबादी पर एक एवं बिहार में 17 हजार की आबादी पर एक चिकित्सक है. सरकारी सुविधाओं का तो घोर अभाव है. राज्य में प्राथमिक स्वास्थ्य उपकेन्द्र की आवश्यकता आबादी के अनुसार, लगभग आठ हजार होनी चाहिए. पर राज्य में सबसेन्टर है मात्र 3958, अतिरिक्त स्वास्थ्य उपकेन्द्र तो मात्र 330 ही है, जबकि 796 पीएचसी की और जरुरत है.

प्राथमिकी स्वास्थ्य केन्द्र तो राज्य में है ही नहीं, जबकि 1126 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र की जरूरत है. पूरे राज्य में 24 रेफरल अस्पताल हैं, जबकि चार मेडिकल कॉलेज अस्पताल हैं, जहां जरूरत से ज्यादा रोगी हमेशा अस्पताल में भर्ती रहते हैं. पूरे राज्य में चिकित्सकों की संख्या मात्र 2468 है, जबकि विशेषज्ञ चिकित्सकों की घोर कमी है. लगभग साढ़े तीन करोड़ की आबादी वाले राज्य में मात्र डेढ़ हजार एएनएम हैं. लैब टेक्निशियन की संख्या भी जरूरत से काफी कम है, मात्र 225 लैब टेक्निशियन हैं, जबकि फार्मासिस्टों की संख्या साढ़े तीन सौ है. जबकि राज्य में अस्वस्थ्य लोगों की संख्या अच्छी खासी है. राज्य में 77.5 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं और प्रति एक हजार पर 49 बच्चों की मृत्यु एक वर्ष पूरा करने के पहले ही हो जाती है. इसका एक कारण यह भी है कि लगभग 38 प्रतिशत गर्भवती महिलाएं एनेमिक हैं.

जाहिर है कि इनके बच्चे भी कुपोषित ही होंगे. गांवों में अधिकांश प्रसव गांव की दाई द्वारा कराए जाते हैं, क्योंकि गांव एवं प्रखंड स्तर पर सुरक्षित प्रसव की कोई व्यवस्था नहीं है. 22 प्रतिशत प्रसव ही अस्पतालों में होते हैं. झारखण्ड में कुष्ठ, टीबी, मलेरिया, डायरिया, कालाजार के रोगी बहुतायत की संख्या में है. अब ये लोग इस योजना का लाभ लेने के लिए अस्पतालों की ओर दौड़ेंगे, अस्पतालों में, सिनेमाघरों जैसी लंबी कतारें लगेंगी, ऐसे में अपना इलाज कराना बीमार लोगों के लिए मुश्किल भरा काम होगा. राज्य के सबसे बड़े अस्पताल रिम्स तक में सुविधाओं का घोर अभाव है. रिम्स में हमेशा लिफ्ट खराब रहने के कारण गर्भवती महिलाओं को सीढ़ियों से चढ़ना होता है. बेड के अभाव में रिम्स के गलियारे व सीढ़ियों पर मरीज को सुलाकर इलाज करवाया जाता है. एंबुलेंस का घोर अभाव है. इस अस्पताल के सुपर स्पेशियलिटी वार्ड में कुव्यवस्था का आलम यह है कि राजद सुप्रीमों लालू प्रसाद को जब जेल से इस वार्ड में शिफ्ट किया गया तो दुर्गंध के कारण वे इसमें नहीं रह सके. अस्पताल प्रबंधन से उन्होंने अनुरोध किया कि उन्हें यहां से हटाकर पेईंग वार्ड में शिफ्ट कर दिया जाए.

आखिरकार लालू प्रसाद को पेईंग वार्ड में शिफ्ट किया गया. इस योजना के लागू होते ही रांची के सदर अस्पताल में महिला मरीजों की भीड़ उमड़ पड़ी. 150 से अधिक गर्भवती महिलाएं कतार में लगी थीं, पर डॉक्टर गायब हो गए. जब महिलाओं को कहीं बैठने की जगह नहीं मिली तो वे सदर अस्पताल की सड़कों पर बैठ गईं. अब थोड़ा इस योजना का दुष्परिणाम भी देखिए. जमशेदपुर के एमजीएम अस्पताल में डॉक्टरों की लापरवाही के कारण डायरिया से पीड़ित भक्तु रविदास की मौत हो गई.

आपातकालीन सेवा में तैनात डॉक्टर पीके साहू ने उसे आयुष्मान योजना का कार्ड बनाकर लाने को कहा. उसका बेटा कार्ड के लिए लाईन में 6 घंटे तक लगा रहा, पर कार्ड नहीं बन पाया. इस बीच भक्तू रविदास की मौत हो गई. जबकि निजी अस्पताल तो कार्डधारी का भी इलाज करने से कतरा रहे हैं. यहां मरीजों को इस योजना के तहत लाभ नहीं मिल रहा है. जबकि केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्‌डा का कहना है कि अगर कोई अस्पताल कार्डधारी का इलाज आयुष्मान योजना के तहत नहीं करता है तो इस पर कड़ी कार्रवाई होगी और अस्पताल का निबंधन रद्द कर दिया जाएगा.

सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा

अब अगर सरकारी अस्पतालों का हाल देखे तो केवल अराजकता ही अराजकता नजर आएगी. राज्य के सबसे बड़े अस्पताल रिम्स के एनआइसीयू (नियोनटाल इंटेसिव केयर यूनिट) में एक नवजात का शव लगभग 30 घंटे तक पड़ा रहा. जब शव से दुर्गंध आने लगी तब मरीजों के अभिभावक ने अधीक्षक से शिकायत की. तब जा कर शव हटाया गया. रिम्स के ओटी में अचानक पानी की कमी होने के कारण ऑपरेशन रोकना पड़ा. बिजली हमेशा गायब हो जाती है. इसके कारण वेंटिलेटर तक काम नहीं करता. रिम्स की व्यवस्था में सुधार को लेकर उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दाखिल की गई है और न्यायालय ने इस संबंध में राज्य सरकार से जवाब देने को कहा है.

जब राजधानी के अस्पतालों की यह हालत है तो जिला एवं सुदूर प्रखंडों में स्थित सरकारी अस्पतालों की स्थिति का सहज अनुमान लगाया जा सकता है. राजधानी से सटे सिमडेगा मंें एक नवजात की इसलिए मौत हो गई कि उसे एंबुलेंस उपलब्ध नहीं कराया जा सका. नवजात के पिता देव महली ने पूरी तरह से अस्पताल प्रबंधन को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया और कहा कि तीन घंटे तक इधर-उधर दौड़ते रहे, पर एंबुलेंस नहीं मिल पाई, क्योंकि किसी में तेल नहीं था तो किसी का टायर पंक्चर था. बच्चे की मौत के बाद मामले की लीपापोती के लिए बच्चे का शव सिमडेगा के कुरडेग गांव ले जाने के लिए फ्री में एंबुलेंस उपलब्ध कराई गई.

ग़रीब या निजी अस्पतालों को लाभ!

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि यह योजना गरीबों के लिए कम, सरकारी एवं निजी अस्पतालों को ज्यादा से ज्यादा लाभ पहुंचाने के लिए शुरू की गई है. इस योजना में घोटाला करने की पूरी छूट दे दी गई है. पहले ही बीपीएल परिवारों के इलाज के मामले में बहुत सारे घोटाले उजागर हो चुके हैं. एक तरह से अगर देखा जाए तो इस महत्वाकांक्षी योजना के नाम पर गरीबों को फिर से छलने का काम किया गया है. कहने को तो यह विश्व की सबसे बड़ी स्वास्थ्य बीमा योजना है, पर इस योजना के लिए जितनी राशि का आवंटन केन्द्र सरकार को करना चाहिए था, नहीं किया गया. इस योजना के लिए एक लाख करोड़ राशि की जरूरत होगी. पर आवंटित हुआ मात्र दो हजार करोड़. जाहिर है इतनी कम राशि में दस करोड़ परिवारों का इलाज मुफ्त में कैसे हो सकेगा.

दरअसल, देखा जाए तो गरीबों की आंख में धूल झोंककर उन्हें बरगलाया जा रहा है, ताकि आने वाले चुनाव में इसका राजनीतिक उपयोग किया जा सके. भाजपा ने विपक्ष की घेराबंदी का बड़ा चुनावी दांव खेला है. झारखंड में लोकसभा एवं विधानसभा चुनाव अगले साल ही होने है. ऐसे में इस योजना के माध्यम से घर-घर पहुंचने की कवायद भाजपा ने शुरू कर दी है. सरकार से लेकर पार्टी भी इस योजना को लेकर गंभीर है. दिल्ली से लेकर रांची तक आयुष्मान योजना पर फोकस है. मिशन 2019 को लेकर भाजपा इस योजना को चुनावी एजेंडा बनाएगी.

इस योजना के प्रचार-प्रसार में पार्टी नेताओं एवं कार्यकर्ताओं को भी टास्क दिए गए हैं. पार्टी का मानना है कि इस योजना को जमीनी स्तर पर भुनाने के लिए कार्यकर्ताओं की एक बड़ी फौज की जरूरत है. कार्यकर्ताओं को यह जिम्मेदारी दी गई है कि वे लाभुकों के बीच कार्ड का वितरण करें, उसे अस्पताल पहुंचाए और फिर उसे भाजपा के पक्ष में तब्दील करें. आयुष्मान योजना को लेकर पार्टी या सरकार कोई भी किसी तरह की चूक करना नहीं चाहती.

इस योजना के अलावा अन्य योजनाओं जैसे उज्ज्वला योजना, दीनदयाल शहरी आवास योजना जैसी कल्याणकारी योजनाओं को भी भुनाने का निर्देश पार्टी के वरीय नेताओं व केन्द्रीय मंत्रियों ने दिया गया है. यही कारण है कि सरकारी कार्यक्रम होने के बावजूद पार्टी से जुड़े होर्डिंग्स राजधानी में लगाए गए और इस पर पार्टी के स्लोगन की तरह यह लिखा गया कि गरीबों को स्वास्थ्य योजना का लाभ किसने दिया? सोचिए जरूर. पार्टी सरकारी लाभकारी योजनाओं को वोटों में तब्दील करने में जुट गई है. इससे पहले भी गरीबों को गरीबी के नाम पर राजनीतिक दलों ने छला, अब खुद को गरीबों की हिमायती बताने वाली भाजपा भी गरीबों के नाम पर राजनीति कर रही है.

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