निराला शहर वाराणसी दुनिया भर में मशहूर है. गंगाघाट, अल्हड़पन, धार्मिकता, संगीत और ऐसी अनगिनत खूबियां यह शहर स्वयं में समेटे हुए है. राजनीति तो जैसे इस शहर की धमनियों में बहती है. स़िर्फ इतना ही नहीं, देश के कई हिस्सों से इतर यहां का हर वाशिंदा राजनीति में डूबा हुआ अपनी भावनाओं का इजहार करने को आतुर रहता है. इस बार लोकसभा चुनाव में इस सीट पर कुछ खास घटित हो रहा है. शायद पहली बार इस लोकसभा क्षेत्र में दो राजनीतिक पार्टियों के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार आमने-सामने हैं. बात हो रही है भाजपा के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी और आम आदमी पार्टी प्रमुख अरविंद केजरीवाल की. इसलिए पूरे देश के साथ-साथ दुनिया की नजर भी वाराणसी पर टिकी हुई है.
अरविंद केजरीवाल ने काफी समय पहले घोषणा की थी कि नरेंद्र मोदी देश में जहां से भी उम्मीदवार होंगे, वह वहीं से चुनाव लड़ेंगे और उन्होंने वही किया भी. जैसे ही नरेंद्र मोदी के यहां से चुनाव लड़ने की घोषणा हुई, अरविंद केजरीवाल ने भी अपनी दावेदारी पेश करने में तनिक भी देर नहीं लगाई. इसी के बाद वाराणसी सीट पर चुनाव ज़्यादा दिलचस्प हो गया है. इस सीट का परिणाम बताएगा कि अरविंद केजरीवाल जनता के बीच अपनी बात कह पाने में ज़्यादा सक्षम हुए या फिर नरेंद्र मोदी के विकास मॉडल ने जनता को अपनी तरफ़ ज़्यादा आकर्षित किया. इस सीट से कई और भी दावेदार मैदान में मौजूद हैं. बसपा ने यहां से विजय प्रकाश जायसवाल को उतारा है, वहीं मऊ के विधायक एवं कई पार्टियों की सैर कर चुके, मगर इस बार निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में नरेंद्र मोदी को टक्कर दे रहे मुख्तार अंसारी भी मुस्लिम वोटों को देखते हुए मैदान मारने का ऐलान कर रहे हैं. पिछले लोकसभा चुनाव में उन्हें भाजपा के कद्दावर नेता मुरली मनोहर जोशी ने वाराणसी से ही मात दी थी. मुख्तार अंसारी कृष्णानंद राय हत्याकांड में आरोपी भी हैं.
जिस बात ने इस सीट को सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण बनाया, वह है नरेंद्र मोदी का यहां से चुनाव लड़ना. यहां से मोदी के चुनावी समर में उतरने के बाद शहर का चुनावी पारा काफी गरमाया हुआ है. इस सीट से मोदी की उम्मीदवारी को लेकर भी काफी जद्दोजहद हुई, क्योंकि यहां पहले से पार्टी की मजबूत धुरियों में से एक मुरली मनोहर जोशी मौजूद थे. एक और बात जो जोशी को यहां से हटाकर भाजपा में साबित कर दी गई कि पार्टी में मोदी के आगे अब किसी दूसरे की बात का न कोई महत्व है और न कोई औचित्य. जोशी को हटाने के पीछे तर्क यह दिया गया कि अगर नरेंद्र मोदी यहां से चुनाव लड़ते हैं, तो वह पूर्वांचल की लगभग 30-32 सीटों को प्रभावित कर सकेंगे. मोदी के लिए एक तो जनता में माहौल है, वहीं दूसरी ओर मीडिया भी उनकी लौहपुरुष की छवि गढ़ने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहा है. हर तरफ़ उनकी विकास पुरुष वाली छवि न स़िर्फ बनाई जा रही, बल्कि मोदी खुद अपने भाषणों के दौरान भी ऐसा ही जता और समझा रहे हैं कि देश की समस्याओं का अब स़िर्फ एक ही विकल्प मौजूद है और वह है नरेंद्र मोदी.
इस सीट पर लड़ाई को और दिलचस्प बनाने का श्रेय अरविंद केजरीवाल को जाता है. वह दिल्ली विधानसभा चुनाव में शीला दीक्षित को हराकर बड़ा उलट-फेर कर चुके हैं. शायद उन पर उसी जीत का असर है कि वह नरेंद्र मोदी जैसे लोकप्रिय नेता के साथ दो-दो हाथ करने की हिम्मत जुटा पा रहे हैं. दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को अप्रत्याशित सफलता मिली थी. उसने पहली ही बार चुनाव लड़कर 28 सीटें जीतने में सफलता हासिल की थी. इसके बाद वह कांग्रेस के समर्थन से राज्य के मुख्यमंत्री भी बने, लेकिन उन्होंने जल्द ही कई मजबूरियां बताते हुए त्यागपत्र दे दिया. ऐसा कहा जा रहा है कि केजरीवाल की निगाहें प्रधानमंत्री पद पर थीं और चूंकि दिल्ली में राज्य सरकार के पास कई अधिकार नहीं होते, उन्होंने अपना पद छोड़ना ही बेहतर विकल्प समझा. हालांकि जनता उनसे इस सवाल का जवाब जानने को बेताब है कि आख़िर बिना कोई ठीकठाक ज़िम्मेदारी निभाए उन्होंने ऐसा क्यों किया?
अब इस लोकसभा सीट का परिणाम चाहे जो भी हो, लेकिन एक बात तो तय है कि मुकाबला काफी दिलचस्प होने जा रहा है. अब यह सीट चुनावी हार-जीत से ऊपर उठकर प्रतिष्ठा का प्रश्न बन चुकी है. देखना यह होगा कि इस चुनावी समर में बाजी कौन मारता है?
सवाल जीत-हार का नहीं, प्रतिष्ठा का
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