राजस्थान के क़रीब दर्ज़न भर ज़िलों को सरसों की खेती के लिए जाना जाता है. पूर्वी राजस्थान का भरतपुर ज़िला भी उन्हीं में से एक है, जहां नवंबर-दिसंबर के महीने में रेतीली धरती सरसों के पीले फूलों से ढक जाती है. स्थानीय किसानों ने सरसों के खेतों में शहद उत्पादन की तरक़ीब खोज निकाली है. यह क़दम सरसों के तेल के साथ-साथ भरतपुर की अर्थव्यवस्था का प्रमुख अंग बन रहा है. यदि इस वर्ष सर्दियों में मौसमी परिस्थितियां अनुकूल रहें और सरकार द्वारा शहद का समर्थन मूल्य घोषित कर दिया जाए तो भरतपुर देश का सबसे अधिक शहद उत्पादन करने वाला ज़िला बन जाएगा. अब तक भरतपुर को स़िर्फ

केवलादेव राष्ट्रीय पक्षी उद्यान के लिए जाना जाता था, लेकिन अब इसकी पहचान शहद उत्पादक ज़िले के रूप में भी होने लगी है. उल्लेखनीय है कि गत वर्ष भरतपुर में 1200 मीट्रिक टन शहद का रिकार्ड उत्पादन हुआ. भरतपुर में मधुमक्खी पालन व्यवसाय के फलने-फूलने का मुख्य कारण क़रीब एक लाख 70 हज़ार हेक्टेयर क्षेत्रफल में बोई जाने वाली सरसों की फसल एवं मौसमी परिस्थितियां हैं.

मधुमक्खियों को मध्य अक्टूबर से जनवरी माह के अंत तक सरसों की फसल से मकरंद एवं पराग प्रचुर मात्रा में मिलता है. इन दिनों तापमान भी 20 डिग्री सेंटीगे्रड से अधिक न होने के कारण मधुमक्खियां अपना काम अधिक गति से करती हैं, जिससे उनके छत्ते एक सप्ताह में शहद से भरने लगते हैं. सरसों की फसल से प्राप्त मकरंद और पराग के ज़रिए मधुमक्खियों द्वारा उत्पादित शहद घी की तरह जमा हुआ रहता है, इसलिए उसकी विदेशों में बहुत मांग रहती है, क्योंकि वहां ब्रेड पर मक्खन के स्थान पर शहद लगाकर खाने का प्रचलन बढ़ा है. इस व्यवसाय को गति देने में सबसे महत्वपूर्ण कारक यह भी रहा कि शहद के विपणन के लिए मधुमक्खी पालकों को कहीं भी नहीं जाना पड़ता, बल्कि निर्यातक खुद मधुमक्खी पालकों से शहद खरीद कर ले जाते हैं. यहां उल्लेखनीय है कि जिस फसल अथवा वृक्षों के फूलों से मधुमक्खियां मकरकंद एकत्रित करके लाती हैं, शहद का रंग, ख़ुशबू एवं क़िस्म भी उसी के अनुरूप बन जाती है, जिसकी वजह से अलग-अलग फसलों के शहद की क़ीमत भी अलग-अलग रहती है.
इस व्यवसाय को एक और कारक आगे ब़ढाने मे उपयोगी सिद्ध हुआ है कि जिस फसल के पास मधुमक्खियों के डिब्बों को रखा जाता है, उसके उत्पादन में क़रीब 20 प्रतिशत की वृद्धि हो जाती है, क्योंकि मधुमक्खियां मकरंद एकत्रित करते समय फसलों के फूलों से पराग कण अपने पंखों व पैरों के साथ चिपका कर एक फूल से दूसरे फूल तक ले जाने में सहायक होती हैं, जिससे पर-परागण में वृद्धि होने से फसलों का उत्पादन बढ़ जाता है. मधुमक्खियों में मज़दूर मधुमक्खियां आसपास के दो किलोमीटर वर्ग क्षेत्रफल में घूम-फिरकर मकरंद एकत्रित करती है.
मधुमक्खी पालन के लिए इटालियन (एपीसमेलीफेरा) नामक मधुमक्खी उपयुक्त सिद्ध हुई है, जो इस क्षेत्र की आदर्श मौसमी परिस्थितियों में बेहतर ढंग से कार्य कर अधिक शहद का उत्पादन करती है. मधुमक्खी पालन के व्यवसाय में शहद के अलावा रायल जैली, पराग कण, मौनी विष, मौनी गोंद एवं मोम का उत्पादन भी होता है, किंतु आवश्यक संसाधन व तकनीकी सुविधाएं उपलब्ध न होने के कारण अभी तक शहद के अलावा अन्य पदार्थों का लाभ हासिल नहीं हो पाया है. जबकि उनका विक्रय मूल्य शहद से कई गुना अधिक है. इस व्यवसाय में सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि फूलों की उपलब्धता एवं ब़ढते तापमान पर नियंत्रण के लिए मधुमक्खियों को उत्तराखंड अथवा तराई क्षेत्रों में ले जाना पड़ता है, क्योंकि वे 20 डिग्री सेंटीगे्रड तापमान पर आसानी से कार्य करती हैं. यदि तापमान अधिक होता है तो उनकी मृत्यु दर तेज़ी से बढ़ सकती है. सरसों की फसल समाप्त हो जाने से फूलों की उपलब्धता भी खत्म हो जाती है, तब मधुमक्खियों को पहाड़ों पर ले जाना पड़ता है, जहां उन्हें अनेक जंगली वनस्पतियों के फूल मिल जाते हैं.
मधुमक्खी पालन के 50 डिब्बों की एक आदर्श यूनिट के लिए क़रीब एक लाख 50 हज़ार रुपये व्यय करने पड़ते हैं. एक वर्ष में ही इन डिब्बों से 2,500 किलोग्राम शहद मिल जाता है. साथ ही डिब्बों की संख्या दोगुनी हो जाती है, जिससे एक ही वर्ष में मधुमक्खी पालक की लागत वसूल हो जाती है और अगले वर्ष से उसे औसतन 2 लाख रुपये सालाना का मुना़फा मिलना शुरू हो जाता है.
आगामी सर्दियों के मौसम में यदि कोहरे की स्थिति पैदा न हुई और केंद्र सरकार ने शहद का समर्थन मूल्य घोषित करने के साथ ही राष्ट्रीय मधुमक्खी पालन बोर्ड को क्रियाशील बना दिया तो शहद उत्पादन में किसानों की रुचि बढ़ेगी और इससे काफी मुना़फा कमाया जा सकेगा. जानकारों का मानना है कि यदि शहद का समर्थन मूल्य 10 हज़ार रुपये प्रति क्विंटल भी घोषित कर दिया गया तो यह व्यवसाय इतनी त़ेजी से ब़ढेगा कि राजस्थान के सरसों उत्पादक ज़िलों में क़रीब 50-75 हज़ार युवकों को अतिरिक्त रोज़गार के अवसर मिल सकेंगे. यही नहीं, यदि सरकार अपेक्षित संसाधन उपलब्ध करा दे तो पैदावार भी 15 से 20 प्रतिशत बढ़ने की संभावना है.
उल्लेखनीय है कि मधुमक्खी पालन का व्यवसाय भरतपुर ज़िले में लुपिन ह्यूमन वेलफेयर एंड रिसर्च फाउंडेशन द्वारा क़रीब छह वर्ष पहले शुरू कराया गया था. धीरे-धीरे यह धौलपुर, अलवर, करौली एवं सवाई माधोपुर आदि ज़िलों में फैल गया. फिर तो मधुमक्खी पालन इन इलाक़ों में इतना लोकप्रिय हुआ कि इससे क़रीब तीन हज़ार युवक सहज ही किसी न किसी रूप में जुड़ गए. मधुमक्खी पालन व्यवसाय के लिए खादी ग्रामोद्योग बोर्ड से मदद दिलाने की पहल लुपिन संस्था ने की और उसने उत्पादकों द्वारा लिए गए क़र्ज़ पर क़रीब 30 प्रतिशत का अनुदान भी उपलब्ध कराया. इसके बावजूद शहद का समर्थन मूल्य घोषित न होने के कारण उत्पादकों को अ़क्सर घाटे की मार सहनी पड़ जाती है. यही नहीं, बाज़ार के उतार-चढ़ाव के चलते दामों में आई गिरावट से किसानों के हौसले कभी-कभी पस्त होने लगते हैं. ऐसे में यह व्यवसाय फलता-फूलता रहे, इसके लिए किसानों को प्रोत्साहित करने की ज़रूरत है. शहद प्रसंस्करण यूनिट  के चालू होने के बाद इस व्यवसाय में और इज़ा़फा होने की बात कही जा रही है. माना जा रहा है कि मधुमक्खी पालक शहद निर्यातकों को औने-पौने दामों में शहद बेचने के स्थान पर अब प्रसंस्करण के बाद उचित मूल्य पर उसका विक्रय कर सकेंगे. लुपिन के अधिशाषी निदेशक सीताराम गुप्ता का कहना है कि यदि राजस्थान के सरसों उत्पादक क़रीब 11 ज़िलों में यह कार्यक्रम शुरू कराया जाए तो प्रतिवर्ष लगभग 50 हज़ार युवाओं को अतिरिक्त रोज़गार मिल सकेगा. यदि राज्य सरकार मिड डे मील योजना में 10 ग्राम शहद भी उपलब्ध कराना शुरू कर दे तो इससे बच्चों को उपयोगी खनिज पदार्थ व विटामिन प्राप्त होंगे, जिससे उनका स्वास्थ्य अधिक बेहतर हो सकेगा. साथ ही राज्य के मधुमक्खी पालकों को शहद के लिए स्थानीय बाज़ार भी उपलब्ध हो सकेगा. अभी तक हमारे देश में शहद की प्रति व्यक्ति खपत 8 ग्राम से भी कम है, जबकि जर्मनी के लोग शहद की गुणवत्ता एवं उपयोगिता से परिचित होने के कारण विश्व में सर्वाधिक मात्रा में इसका उपयोग करते हैं. वहां प्रति व्यक्ति शहद की खपत क़रीब दो किलोग्राम है, जिससे जर्मनी सर्वाधिक शहद का आयात करता है. जबकि विश्व में सर्वाधिक शहद का निर्यात चीन द्वारा प्रतिवर्ष 80 हज़ार टन किया जाता है. यदि भारत में भी शहद उत्पादकों को प्रोत्साहित किया जाए तो रोजगार सृजन के साथ-साथ ग्र्रामीणों के जीवन स्तर में भी सकारात्मक परिवर्तन देखने को मिल सकते हैं.

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