प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बड़ी धूमधाम के साथ डिजिटल इंडिया कार्यक्रम की शुरुआत की. असल में मनमोहन सिंह सरकार ने ऑप्टिकल फाइबर नेटवर्क के साथ पूरे देश को कनेक्ट करने के लिए क़दम उठाए थे और अब यह उसी का एक विस्तार है, जिसे एक फैंसी नाम डिजिटल इंडिया दिया गया है. प्रधानमंत्री ने कहा है कि वर्ष 2019 तक 2,50,000 गांवों को इससे जोड़ दिया जाएगा. तकनीक का हमेशा स्वागत हुआ है, जैसा हमने इंटरनेट और सेल फोन आदि के मामले में देखा है. लेकिन सवाल यह नहीं है, बल्कि सवाल यह है कि प्राथमिकताएं क्या हैं? यह सरकार 13-14 महीने पहले सत्ता में आई. महंगाई अभी भी एक समस्या है. हम रोज छोटी-छोटी ऐसी राजनीतिक खबरें पढ़ रहे हैं, जो बताती हैं कि राजनीतिक प्रबंधन अभी भी अयोग्य है.
दिल्ली सरकार की तरह हाल है. दिल्ली पूर्ण राज्य भी नहीं है. यह एक केंद्र शासित प्रदेश है. लेकिन हर रोज यहां लेफ्टिनेंट गवर्नर, जो केंद्रीय सरकार के प्रतिनिधि हैं और जनता द्वारा निर्वाचित दिल्ली के मुख्यमंत्री के बीच बहस जारी है. यह लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है. भाजपा और आरएसएस के भीतर से भी लोगों ने कहना शुरू कर दिया है कि केवल तीन-चार लोगों को ही पता होता है कि क्या हो रहा है. मैं समझता हूं कि इसमें थोड़ा परिवर्तन आवश्यक है. भारत जैसे विशाल देश में यदि किसी चीज को सफल करना है, जहां विकास जैसा काम बहुत धीमी गति से होता है, अगर उसे तीन या चार लोगों के बंद समूह में रखा जाता है, तो अपेक्षित परिणाम नहीं आएगा. अभी यहां देखना है कि डिजिटल इंडिया क्या करता है, लेकिन ब्रॉडबैंड नेटवर्क की गति यहां बहुत धीमी है. कांग्रेस के समय राष्ट्रीय ब्रॉडबैंड नेटवर्क लिमिटेड नामक एक कंपनी लाई गई थी. वास्तव में उसका क्या उद्देश्य था, कहां तक उस पर काम हुआ, इसके बारे में हमें कोई जानकारी नहीं है. जब तक आपको हाई स्पीड ब्रॉडबैंड नहीं मिलता, तब तक उपयोगकर्ताओं के बीच कोई उत्साह नहीं होगा. धीमी गति वाले लोग पहले से ही खराब नेटवर्क का उपयोग कर रहे हैं. ग्रामीण क्षेत्रों में अलग समस्या है. वहां बिजली नहीं है. यदि एक दिन में बिजली कुछ घंटे भी न रहे, तो कैसे ये उपकरण या तकनीक काम करेंगे? इसलिए प्राथमिकता तो बिजली है. सही बात है कि प्रधानमंत्री ने कहा है कि बिजली को लेकर बड़ा कार्यक्रम है और इस कमी को दूर किया जाएगा. लेकिन, यहां हो उल्टा रहा है. मैं समझता हूं कि यही वक्त है, जब प्रधानमंत्री साप्ताहिक बैठक करके बिजली और अन्य बुनियादी ढांचा क्षेत्रों की प्रगति पर बात करें, रिपोर्ट लें.
एक अन्य कहानी है ललितगेट (ललित मोदी प्रकरण) की. राजस्थान में सबको मालूम है कि 2003-2008 में, जब वसुंधरा राजे मुख्यमंत्री थीं, तब सरकार के अधिकारी भूमि सौदों से जुड़े मामलों में ललित मोदी से आदेश लेते थे. तब यह एक बहुत बड़ा घोटाला था, लेकिन उस समय भाजपा या आरएसएस ने कोई कार्रवाई नहीं की और न अशोक गहलोत सरकार ने सत्ता में आने के बाद कोई कार्रवाई की. खैर, राजे अब दोबारा सत्ता में आई हैं. उनके और ललित मोदी के बीच अब तल्खी है. यह तल्खी किस बात को लेकर है, नहीं मालूम और ललित मोदी क्या खेल खेलना चाहते हैं, इसका भी पता नहीं है. मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले ललित मोदी निजी तौर पर लोगों से कहते रहे हैं कि उनकी सारी समस्याएं कांग्रेस, शशि थरूर और सोनिया गांधी की वजह से हैं. अब भाजपा सत्ता में है, तो उनकी मुसीबतों का खात्मा हो जाना चाहिए, लेकिन अब वे हर रोज किसी न किसी भाजपा नेता का नाम लेकर पार्टी को मुसीबत में डाल रहे हैं. मैं क्रिकेट प्रशासन से जुड़ा रहा हूं. मैं जानता हूं कि उनकी भूमिका कैसी थी, अच्छी, बुरी या सबसे अलग. लेकिन यह समझ में नहीं आ रहा है कि क्या वह कोई हिसाब बराबर करने की कोशिश कर रहे हैं? ललित मोदी भारत में अपनी सभी कंपनियों से इस्ती़फा दे चुके हैं, क्योंकि उनके पिता एक भारतीय व्यापारी हैं, जो सरकार के खिला़फ नहीं उतर सकते और वह भारतीय कॉरपोरेट मानदंडों के अनुसार अपनी कंपनियां चलाते हैं. इसलिए वह इस राजनीति और क्रिकेट में उलझना नहीं चाहते. लेकिन वास्तव में लंदन से ललित मोदी करना क्या चाहते हैं? उनका उद्देश्य क्या है? खैर, उनका उद्देश्य जो भी हो, लेकिन मैं नहीं समझता कि भारतीय मीडिया बहुत बुद्धिमानी भरा काम कर रहा है. उन्हें ज़रूरत से अधिक महत्व देकर आप भारतीय राजनेताओं की छवि खराब कर रहे हैं. सुषमा स्वराज ने क्या किया? उन्होंने ललित मोदी को अपनी पत्नी को देखने के लिए पुर्तगाल जाने में मदद की. इसके बाद मोदी लंदन वापस आ गए. बात यही खत्म हो जाती है. अब सुषमा स्वराज को क्या करना चाहिए था, नहीं करना चाहिए था, उनकी ईमानदारी आदि एक सवाल है, लेकिन यह सब इतना बड़ा मुद्दा नहीं था, जिसे इतना खींचा जाए.
इसी तरह वसुंधरा राजे ने एक पत्र लिखा और उन्होंने यह कहकर मूर्खता कर दी कि इस पत्र को भारत सरकार से छिपाकर रखा जाए. उन्होंने ऐसा क्यों किया? ऐसा पत्र उन्होंने क्यों लिखा, मुझे नहीं मालूम. उन्होंने यह सिफारिश की कि ललित मोदी को वहां रहने दिया जाए. तब वह मुख्यमंत्री नहीं थीं. यह मुद्दा इतना बड़ा नहीं था, लेकिन इसके परिणाम बड़े हो सकते हैं. हर कोई यह सवाल पूछ रहा है कि ललित मोदी के सुषमा की बेटी, सुषमा के पति के साथ क्या संबंध हैं? इन रिश्तों पर सवाल उठ रहे हैं. यह स्वस्थ राजनीति के लिए ठीक नहीं है. प्रधानमंत्री को हस्तक्षेप करना चाहिए और यह सब रोकना चाहिए. प्रवर्तन निदेशालय कई वर्षों से इस मामले की जांच कर रहा है. उसने अब तक क्या किया है? मोदी को वापस क्यों नहीं लाया जा सका? मोदी को वापस लाने के लिए उचित क़दम क्यों नहीं उठाए जाते? अगर दो साल पहले यह काम कर लिया गया होता, तो यह मामला उठता ही नहीं. सब कुछ संदिग्ध दिखता रहा है. प्रधानमंत्री हमेशा एक अच्छे शासन पर जोर देते हैं. इसके लिए ज़रूरी है कि हर काम में पारदर्शिता रहे. कुछ लोग सहमत हो सकते हैं, कुछ नहीं होंगे. आप यह नहीं कह सकते कि हमने मानवता के आधार पर मदद की और अब क़ानूनी बुनियाद पर उन्हें वापस लाने का प्रयास कर रहे हैं. मैं समझता हूं कि प्रधानमंत्री को राजनीतिक और आर्थिक मामलों की कैबिनेट समिति में इस सब पर चर्चा करके इस विवाद को जल्द से जल्द खत्म करना चाहिए.
संसद सत्र आने वाला है. कांग्रेस ने सा़फ कर दिया है कि यदि इन दोनों महिलाओं का इस्ती़फा नहीं होता है, तो वह संसद नहीं चलने देगी. यह अपने आप में अलोकतांत्रिक है. इस मामले का संसद की कार्यवाही से क्या संबंध हो सकता है? भाजपा ने भी पहले ऐसा किया है. कांग्रेस ने भी पहले ऐसा किया है, जब वह जॉर्ज फर्नांडीस का सामना नहीं करना चाहती थी. यानी विपक्ष में रहते हुए भाजपा ने कांग्रेस के साथ जो किया, अब वही उसे वापस मिलने वाला है. यदि जीएसटी विधेयक को पारित किया जाना है, तो ठीक है कि कांग्रेस उस बिल का विरोध उसके गुण-दोष के आधार पर करे, न कि उसे विदेश मंत्री के इस्ती़फे से जोड़े. हम संसद नहीं चलने देंगे, यह कहना मुझे लगता है कि बहुत दु:खद बात है. लोकतंत्र को फलने-फूलने का मा़ैका मिलना चाहिए, हर पक्ष की बात सुनी जानी चाहिए और सर्वसम्मति का सम्मान होना चाहिए, लेकिन पहले से यह कहना कि हम सत्र नहीं चलने देंगे, ग़लत है. मुझे नहीं मालूम कि कांग्रेस को ऐसी सलाह कौन दे रहा है. कांग्रेस भारत की एक बहुत पुरानी पार्टी है. उसने लंबे समय तक शासन किया है. उसे शासन की सीमा रेखा मालूम है.
भाजपा और नरेंद्र मोदी को उनके वैसे वादों के लिए मा़फ किया जा सकता है, जिन्हें वे पूरा नहीं कर सकते, क्योंकि उनके पास अनुभव नहीं है. संसदीय लोकतंत्र के मानकों के हिसाब से कांग्रेस को एक स्पष्ट लाइन लेनी चाहिए. इसके बाद सरकार पर निर्भर करता है कि वह संसद चलाना चाहती है या नहीं. किसी भी लोकतंत्र में संसद को चलाने की ज़िम्मेदारी सरकार की है. नियम यह है कि विपक्ष को ज़िम्मेदार होना चाहिए और सरकार को उत्तरदायी. अगर सरकार उत्तरदायी नहीं है, तो विपक्ष भी अपनी ज़िम्मेदारी की भावना खो देता है. जितनी जल्दी हम ब्रिटेन से सीखे गए संसदीय नियमों की ओर लौट जाएं, उतना ही अच्छा होगा.