नरेंद्र मोदी ने 282 जैसी संख्या के साथ बड़ा बहुमत हासिल किया है, जैसे 1971 में इंदिरा गांधी ने हासिल किया था. लेकिन, यहां एक बड़ा अंतर यह है कि इंदिरा गांधी अपनी नीतियों को लेकर स्पष्ट थीं या कम से कम उनके आसपास के लोग नीतियों को लेकर स्पष्ट थे. श्री मोदी के साथ ऐसा नहीं है. वह ज़्यादातर नौकरशाहों पर निर्भर रहते हैं और फिर उनके पास ऐसे एक्सपर्ट नौकरशाह भी नहीं हैं, जैसे इंदिरा गांधी के पास पीएन हक्सर जैसे नौकरशाह थे. यहां गुजरात के कुछ नौकरशाह लाए गए हैं, जो उनकी तऱफ से काम कर रहे हैं. लोकतंत्र के लिए यह खतरनाक है. आपके पास ऐसे लोग होने चाहिए, जो आपको बेहतर सुझाव दे सकें. बाद में जब इंदिरा गांधी कुछ ऐसा करना चाहती थीं, जो पीएन हक्सर के मुताबिक उचित नहीं था, तब हक्सर उनसे अलग हो गए. इसके बाद इंदिरा गांधी की हार हुई. 1980 में हालांकि वह विपक्ष की ग़लतियों की वजह से फिर सत्ता में आईं.
बिहार चुनाव अब नज़दीक हैं. अब यह बिल्कुल सा़फ हो गया है कि जदयू और राजद एक गठबंधन के रूप में कांग्रेस और दूसरी ग़ैर-भाजपा पाटियों के साथ मिलकर चुनाव लड़ेंगे. भाजपा ने जीतन राम मांझी को अपने ग्रुप में शामिल कर लिया है, इसलिए लड़ाई की रूपरेखा अब सा़फ हो चुकी है. भाजपा में जो कमजोरी नज़र आ रही है, वह है मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार का चेहरा. उसके नेता सुशील मोदी के पास न तो जातीय आधार है और न ही वह कोई प्रेरणादायक व्यक्तित्व के मालिक हैं. हां, यह ज़रूर है कि नीतीश के डिप्टी के तौर पर उन्होंने अच्छा काम किया है, लेकिन वह चुनावी जंग के लिए पर्याप्त नहीं होगा. यह भाजपा की कमजोरी है. जहां तक जदयू-राजद की चुनावी रणनीति का सवाल है, तो वह सही दिशा में जा रही है. अब मतदाताओं को फैसला करना है कि उन्हें किस तऱफ जाना है. इस पर कोई विवाद नहीं है कि नीतीश कुमार का प्रदर्शन शानदार रहा है. यहां तक नीतीश से गठबंधन टूटने से पहले भाजपा भी उस प्रदर्शन पर गर्व करती थी. बेशक, अब सुशील मोदी उनके बारे में तरह-तरह की बातें कर रहे हैं, लेकिन वह जनता के दिमाग से नीतीश के कामों को निकाल नहीं सकते. बिहार में अक्टूबर में चुनाव होने की संभावना है, इसलिए अब समय बहुत कम है. दोनों पक्ष सही रणनीति के साथ मैदान में उतरेंगे. बिहार को एक स्थिर और अच्छी सरकार की ज़रूरत है, क्योंकि उसकी अपनी समस्याएं हैं. ग़रीबी स्तर ऊंचा है, वहां की कृषि आत्मनिर्भर नहीं है. इसलिए उसे सभी प्रकार की मदद की ज़रूरत है.
इस बार दूसरे मुद्दे के दरअसल दो पहलू हैं. पहला यह कि आडवाणी जी ने आपातकाल की 40वीं वर्षगांठ पर एक बयान दिया कि वह निश्ंचित नहीं हैं कि आपातकाल दोबारा नहीं लगेगा. दरअसल, उन्होंने कहा कि जो ताक़तें लोकतंत्र विरोधी हैं, वही लोकतांत्रिक ताक़तों पर बढ़त बनाए हुए हैं, जो आपातकाल लागू करने की स्थितियां बनाता है. यह एक स्वयंसिद्ध बयान है, जो मोदी सरकार के ऊपर हमला नहीं है, जैसा कि कांग्रेस इससे नतीजा निकलने की कोशिश कर रही है. लेकिन, इसमें तथ्य यह है कि एक साल से अधिक समय से सत्ता में रहते हुए ऐसे संकेत नहीं मिले हैं कि लोकतंत्र को मजबूती मिली हो. सबसे पहली बात यह कि यहां गोपनीयता बरती जा रही है. लोकतंत्र और गोपनीयता एक साथ नहीं चल सकते. चीज़ों पर जितनी अधिक खुली चर्चा होगी, लोकतंत्र के लिए उतना ही अच्छा होगा. उच्चस्तरीय पदों जैसे सीबीआई के निदेशक, सीवीसी, सूचना आयुक्त की नियुक्तियों को कौन कहे, सरकारी क्षेत्र के बैंकों के प्रमुख जैसी नियुक्तियों की जानकारी भी बहुत कम या अप्रत्यक्ष रूप से बाहर आ रही है. वित्त मंत्री ने खुद अपनी नीति न बताकर इस स्थिति को और अधिक अस्पष्ट कर दिया. हमें मालूम है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की हालत ठीक नहीं है, लेकिन इन बैंकों की अपनी एक प्रणाली मौजूद थी. अब आप यह कह रहे हैं कि इसमें बाहर से बेहतरीन लोगों को लाएंगे. लेकिन, बाहर से मतलब कहां से? क्या हम यह सोच रहे हैं कि निजी क्षेत्र के बैंकर्स सरकारी क्षेत्र के बैंकों के मामूली वेतन पर काम करना पसंद करेंगे? यह मुमकिन नहीं है. या आप उन्हें निजी क्षेत्र के बैंकों के बराबर वेतन देने जा रहे हैं? यह भी मुमकिन नहीं है. असल समस्या यह है कि हमारे पास कोई वैकल्पिक मॉडल ही नहीं है.
अब योजना आयोग की बात करते हैं. यह अच्छी बात है कि सरकार कहती है कि हमने योजना आयोग खत्म कर दिया. लेकिन, यह नीति आयोग क्या है? इसने अब तक क्या किया? किसी को मालूम नहीं है. यहां तक कि नीति आयोग के सदस्यों को भी यह नहीं पता कि उनके काम क्या हैं? नीति आयोग के उपाध्यक्ष श्री अरविंद पनगढ़िया देश के लिए बहुत कुछ करने की उम्मीद के साथ अमेरिका से आए थे. लेकिन जिस तरह से उन्हें अपमानित किया जा रहा है, मुझे ताज्जुब है कि अब तक उन्होंने इस्ती़फा क्यों नहीं दिया और वापस अमेरिका क्यों नहीं चले गए? एक तो उन्हें कैबिनेट रैंक नहीं दिया गया, जो योजना आयोग के उपाध्यक्ष को दिया जाता था. यहां तक कि उन्हें राज्य मंत्री तक का दर्जा देने में भी दिलचस्पी नहीं दिखाई जा रही है. सरकार उन्हें कैबिनेट सेक्रेटरी का दर्जा देना चाह रही है, जो इस स्तर के व्यक्ति के लिए अपमान से कम नहीं है. हालांकि, अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है. अभी भी इस पर मंथन जारी है. हमने नीति आयोग बना लिया है, लोग नियुक्त कर दिए हैं, लेकिन उन्हें करना क्या है, मालूम नहीं. सीवीसी की नियुक्ति एक देर से उठाया गया क़दम है. पार्टी के भीतर ही राम जेठमलानी, सुब्रह्मण्यम स्वामी इस सबसे खुश नहीं है. आरएसएस क्या सोच रहा है, मुझे नहीं मालूम, लेकिन ़खबरें आ रही हैं कि वह भी कई बातों से नाखुश है. यह नरेंद्र मोदी के एक अच्छे प्रधानमंत्री बनने के रास्ते में बड़ी रुकावट है.
नरेंद्र मोदी ने 282 जैसी संख्या के साथ बड़ा बहुमत हासिल किया है, जैसे 1971 में इंदिरा गांधी ने हासिल किया था. लेकिन, यहां एक बड़ा अंतर यह है कि इंदिरा गांधी अपनी नीतियों को लेकर स्पष्ट थीं या कम से कम उनके आसपास के लोग नीतियों को लेकर स्पष्ट थे. श्री मोदी के साथ ऐसा नहीं है. वह ज़्यादातर नौकरशाहों पर निर्भर रहते हैं और फिर उनके पास ऐसे एक्सपर्ट नौकरशाह भी नहीं हैं, जैसे इंदिरा गांधी के पास पीएन हक्सर जैसे नौकरशाह थे. यहां गुजरात के कुछ नौकरशाह लाए गए हैं, जो उनकी तऱफ से काम कर रहे हैं. लोकतंत्र के लिए यह खतरनाक है. आपके पास ऐसे लोग होने चाहिए, जो आपको बेहतर सुझाव दे सकें. बाद में जब इंदिरा गांधी कुछ ऐसा करना चाहती थीं, जो पीएन हक्सर के मुताबिक उचित नहीं था, तब हक्सर उनसे अलग हो गए. इसके बाद इंदिरा गांधी की हार हुई. 1980 में हालांकि वह विपक्ष की ग़लतियों की वजह से फिर सत्ता में आईं. मोदी को आडवाणी की इस अपेक्षाकृत नरम टिप्पणी से सीख लेनी चाहिए कि हालात ऐसे न बनाए जाएं, जिनसे लोकतंत्र की गरिमा को चोट पहुंचे.
पहलाज निहलानी सेंसर बोर्ड के चेयरमैन बने हैं. चेयरमैन ज़रूरी नहीं कि खुद हर एक फिल्म को देखे, लेकिन यहां भी विवाद शुरू हो गया है. फिल्म निर्माता कुछ नए मोरल कोड को लेकर शिकायत करने जा रहे हैं. हर पांच साल में सरकार बदलती है, न कि देश और क़ानून. क़ानून या संविधान की आधारभूत संरचना नहीं बदलती. यही लोकतंत्र की खूबसूरती है, चाहे अमेरिका में हो या ब्रिटेन में या भारत में. लोकतंत्र की अच्छाई यह है कि सरकारें आती-जाती रहती हैं, लेकिन बुनियादी ढांचा नहीं बदलता. सेंसर बोर्ड को एक महत्वपूर्ण संस्था कैसे बनाया जा सकता है? एक मुक्त समाज में लोग अच्छी-बुरी या बहुत बुरी फिल्में बना सकते हैं. आपका काम सर्टिफिकेट जारी करना है. बोर्ड यूनिवर्सल या यू/ए या एडल्ट सर्टिफिकेट दे. आप किसी चीज पर फैसला देने की कोशिश क्यों करते हैं? यह सब एक परिपक्व सरकार के लिए सही नहीं है.
पिछले दिनों सुषमा स्वराज और वसुंधरा राजे को लेकर सरकार को शर्मिंदगी उठानी पड़ी. जिन लोगों को इस मामले की जानकारी है, वे जानते हैं कि ललित मोदी ने क्या किया है? उनका बीसीसीआई के लिए क्या योगदान रहा है और उन्होंने बीसीसीआई और खुद को कितना ऩुकसान पहुंचाया, सब जानते हैं. आ़िखर एक जाने-माने औद्योगिक परिवार से आने वाले एक आदमी को लंदन में इतनी शर्मिंदगी क्यों उठानी पड़ रही है? ललित मोदी प्रवर्तन निदेशालय से नहीं भाग रहे हैं और न फेरा या फेमा से छिपते फिर रहे हैं. भारत में आप किसी को टार्चर नहीं कर सकते. आज अगर मुंबई पुलिस यह कहती है कि दाऊद इब्राहिम ललित मोदी से कोई हिसाब चुकता करना चाहते हैं, तो सरकार में, खासकर आईबी और रॉ को इसकी सारी जानकारी होगी. अगर आप ललित मोदी को मानवीय आधार पर कोई छूट देते हैं, तो इसमें बुराई क्या है? उन्हें 15 दिनों के लिए पत्नी के साथ जाने की अनुमति दें, लेकिन यह सब पारदर्शी तरीके से होना चाहिए था. ललित मोदी को भारतीय उच्चायुक्त के यहां आवेदन करना चाहिए था, जिस पर उन्हें पुर्तगाल जाने की अनुमति मिलती और अगर वह वहां से फरार भी हो जाते, तो वापस लाया जा सकता था. लेकिन, जिस तरीके से यहां काम हुआ, उससे आपने खुद की आलोचना को निमंत्रण दे दिया. वसुंधरा और ललित मोदी का संबंध 30-35 साल पुराना है. हर किसी को मालूम है. अपने पहले मुख्यमंत्रित्व काल में वसुंधरा राजे ने खुले तौर पर ललित मोदी के लिए लैंड यूज चेंज में मदद की, जिसकी राजस्थान में सख्त आलोचना हुई. राजस्थान में इस सबके बारे में सबको पता है.
अब यह भी पता चल रहा है कि मॉरिशस रूट से पैसा वसुंधरा राजे के बेटे की कंपनी में निवेश किया गया है. यह सब वरिष्ठ राजनेताओं के लिए सही नहीं है. वसुंधरा राजे एक बार फिर पांच साल के लिए मुख्यमंत्री बनी हैं. वह ऐसे कामों में उलझने के बजाय राजस्थान को आगे ले जा सकती हें. वह चंद्र बाबू नायडू की तरह राजस्थान में भी आईटी सिटी बना सकती हैं. राजस्थान में यह सेक्टर काफी फल-फूल सकता है. मुझे लगता है कि भाजपा को एक बेहतर प्रबंधन की ज़रूरत है. उसका प्रबंधन बिखर रहा है. प्रधानमंत्री खुद तो ठीक हैं, लेकिन उनके आसपास के लोग उस क्षमता के नहीं हैं. पार्टी के मुख्यमंत्री भी ऐसा कुछ नहीं कर रहे हैं, जैसा उन्हें करना चाहिए. मुझे लगता है कि छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री अपने मानकों के मुताबिक अच्छा काम कर रहे हैं. उनके ़िखला़फ बहुत ज़्यादा आलोचना नहीं है. लेकिन, पूरे तौर पर नई सोच को लाने की ज़रूरत है, नए प्रतिमान गढ़ने की ज़रूरत है, अन्यथा सरकार पुराने ढर्रे पर ही चलती रहेगी. उम्मीद करते हैं कि कुछ बेहतर होगा.