श्रीलंका में, खास तौर पर उत्तरी और पूर्वी श्रीलंका में, तमिलों ने लगभग उसी समय डेरा डाला था, जब सिंघली यहां आकर आबाद हुए. लगभग 200 वर्ष पूर्व ब्रिटिश उपनिवेशकाल में तमिलों के आगमन का दूसरा दौर शुरू हुआ. उन्हें रबर, चाय और कॉ़फी के बागानों में काम करने के लिए तमिलनाडु के तिरुची, मदुरई, तंजावुर आदि स्थानों से यहां लाकर बसाया गया था. ये लोग देश के मध्य में स्थित पहाड़ी क्षेत्रों और इधर-उधर छिटपुट बसे हुए हैं. मध्य श्रीलंका में रहने वाले तमिल, श्रीलंका के इस तमिल मुद्दे से सीधे तौर पर नहीं जुड़े हुए हैं. ये अलग राज्य या राजनैतिक स्वतंत्रता की बात नहीं करते. इन्हें यहां भारतीय मूल के लोगों के नाम से संबोधित किया जाता है. ये आज भी कैंडी क्षेत्र में रहते हैं. श्रीलंका का पूर्वी प्रांत तमिल बहुल क्षेत्र है. यहां के बड़े शहरों में बट्टिकलोवा, त्रिंकोमाली आदि शहरों के नाम शामिल हैं.
सिंहली भाषा थोपने और रोज़गार छीनने से शुरू हुआ तमिल संघर्ष
उत्तरी श्रीलंका के तमिल यहां उसी समय से आबाद हैं, जब से सिंहली लोग आकर बसे थे. दरअसल श्रीलंका के शुरुआती बौद्धों में तमिल बौद्ध भी शामिल थे. गौरतलब है कि तिरुची और मदुरई में बौद्ध पुनरुत्थान हुआ था. लिहाज़ा बौद्धों में तमिल भी शामिल थे. यही वजह है कि सिंघली साहित्य पर तमिल के संगम साहित्य का प्रभाव है. दरअसल संगम साहित्य दुनिया के प्राचीनतम साहित्यों में से एक है. उसमें जाफना के एक कवि का ज़िक्र मिलता है. इस क्षेत्र पर सबसे पहले पुर्तगालियों ने अपना कब्जा जमाया. उसके बाद डच आए और फिर अंग्रेजों का क़ब्ज़ा हुआ. अंग्रेजों के शासनकाल में भी जाफना के लोगों को बहुत हद तक आज़ादी थी. जाफना के लोगों का कहना है कि वे भी यहां के मूल निवासी हैं और उन्हें अपनी इस पहचान पर गर्व है. इस लिहाज़ से उन्हें समानता का अधिकार है. उपनिवेशवाद के दौर में अंग्रेजों ने तमिल कार्मिकों के लिए शिक्षा का इन्तजाम तो किया, लेकिन बहुत थोड़ा. उन्होंने शिक्षा की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया. यही हाल दक्षिण अफ्रीका के तमिलों के साथ भी हुआ. यहां बहुत सारे ईसाई मिशनरी स्कूल खुले और तमिलों से बहुत सारे बैरिस्टर और पढ़े-लिखे लोग निकले. यहां के लोग आम तौर पर ग़रीब थे.
श्रीलंका को फरवरी 1948 में आज़ादी मिल गई. ब्रिटिश काल में अधिकतर सरकारी नौकरियां उत्तरी श्रीलंका के तमिलों के पास थीं, क्योंकि वे अंग्रेजी जानते थे. चाहे पोस्ट ऑफिस और रेलवे की नौकरियां हों या वकील और सरकारी एजेंट्स हों, हर जगह तमिलों की बहुलता थी, उनमें सिंहली कम थे. आज़ादी के बाद से तमिल समस्या की शुरुआत हुई. 1948 में आज़ादी मिलने के 48 घंटे बाद यह फैसला लिया गया कि सभी सरकारी काम सिंहली भाषा में होंगे यानि सरकारी नौकरी हासिल करने के लिए सिंहली भाषा जानना अनिवार्य हो गया. जाफना के लोग सिंहली भाषा का एक शब्द भी नहीं जानते थे. बाद में भी इस तरफ के छात्र परीक्षा में नाकाम होने लगे. नतीजतन सरकारी नौकरियों की प्रतिस्पर्धा में उनकी संख्या कम से कम होने लगी. सिंहली भाषा किसी के लिए नौकरी की जमानत बन गई. यही तमिल समस्या का सबसे प्रमुख कारण है.
उसके बाद तमिलों ने समानता और शिक्षा के अधिकार के लिए संघर्ष करना शुरू किया. 1970 के दशक में सरकार ने विश्वविद्यालयों में दाखिले के लिए छात्रों को चयनित करने का मानक तैयार किया. इसका मकसद शिक्षा की दृष्टि से पिछड़े ग्रामीण क्षेत्रों के सिंहलों को उच्च शिक्षा का मौक़ा देना था. उच्च शिक्षा में तमिलों की संख्या ठीक थी. इसके तहत उच्च शिक्षा में दाखिले के लिए कट-ऑफ मार्क्स लागू किया गया, ताकि ग्रामीण क्षेत्र के सिंहलियों को भी विश्वविद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करने का मौक़ा मिल सके. इसमें भाषा और अंक प्रतिशत को आधार बनाया गया. इसका नतीजा यह हुआ कि विश्वविद्यालयों में तमिलों की संख्या कम से कम होती चली गई और यहीं से तमिलों का सशस्त्र आन्दोलन शुरू हुआ.
तमिलों का पहला शान्तिपूर्ण आन्दोलन
शुरू में उत्तरी श्रीलंका के कई तमिल नेताओं ने शान्तिपूर्ण संघर्ष शुरू किया. इसमें भूख हड़ताल, धरना-प्रदर्शन आदि तरीके अपनाए गए. इन हड़तालों का नेतृत्व ़फेडरल पार्टी के नेता एसजेवी चेलवानायकम कर रहे थे. चेलवानायकम देश में संघीय व्यवस्था (़फेडरल सिस्टम) की मांग कर रहे थे. उस समय श्रीलंका के प्रधानमंत्री एसडब्लूआरडी भंडारनायके थे, जिन्होंने ऑक्स़फोर्ड विश्वविद्यालय से वकालत की थी. वे स्वयं सिंहली थे, इसलिए इन चीजों को बखूबी समझते थे. उन्होंने चेलवानायकम से बातचीत की और समझौता किया. इस समझौते को भंडारनायके-चेलवानायकम समझौते के नाम से जाना जाता है. यदि इस समझौते को लागू रहने दिया जाता, तो तमिल समस्या पैदा ही नहीं होती. लेकिन विपक्ष ने इसे तहस-नहस कर दिया.
जैसे भारत में होता है कि कांग्रेस सत्ता में होती है तो भाजपा उसके हर काम का विरोध करती है और भाजपा सत्ता में होती है तो कांग्रेस उसके हर काम का विरोध करती है. तमिलों का मसला भी सत्ता और विपक्ष की आपसी खींचातानी का नतीजा है. पहले यूएनपी (यूनाइटेड नेशनल पार्टी) ने बौद्ध भिक्षुओं को अपने पक्ष में लेकर इस समझौते का विरोध किया था और यह समझौता लागू नहीं हो सका. उसी तरह यूएनपी के डडली सेनानायके जब प्रधानमंत्री हुए, तो उन्होंने भी चेलवानायकम के साथ एक समझौता किया, जिसे डडली-चेलवानायकम समझौते के नाम से जाना जाता है. यह भी एक बेहतर समझौता था, जिसे लागू नहीं किया जा सका, क्योंकि दूसरा पक्ष इसका विरोध कर रहा था. इस समझौते को लागू होने से रोकने के लिए उन्होंने भी बौद्ध भिक्षुओं का सहारा लिया.
जब ये दोनों समझौते लागू नहीं हुए तो निराशा का दौर शुरू हो गया. 1970 तक श्रीलंका एक अधिराज्य (डोमिनियन स्टेट) था. वर्ष 1972 में सिरिमावो भंडारनायके ने श्रीलंका को उसका अपना संविधान दिया और भारत की तरह श्रीलंका भी एक गणतंत्र बन गया. इसमें भी तमिलों को बहुत अधिकार नहीं दिया गया. उसके बाद शांतिपूर्ण विरोध, धरना, भूख हड़ताल आदि शुरू हुए. सिरिमाओ भंडारनायके की पार्टी को संसद में प्रचंड बहुमत हासिल था. विपक्ष के केवल 8-9 सांसद थे. वो कुछ भी कर सकती थीं. लिहाज़ा दो समझौतों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई. नया संविधान भी तमिलों की समस्या के समाधान की दिशा में आगे नहीं बढ़ सका.
प्रभाकरन का उदय और सशस्त्र संघर्ष
जब संविधान लागू हो गया और उसका भी कोई प्रभाव नहीं पड़ा, तो प्रभाकरन और युवाओं ने सोचा कि इन शांतिपूर्ण धरना-प्रदर्शनों और हड़तालों आदि से कुछ नहीं होगा और इस तरह फिर सशस्त्र आन्दोलन शुरू हुआ. यहां यह सा़फ करना ज़रूरी है कि प्रभाकरन पहला शख्स नहीं था, जिसने सशस्त्र आन्दोलन की शुरुआत की थी. यह श्रेय उमा महेश्वरन को जाता है. अपने शुरुआती दिनों में प्रभाकरन ने भी उसके अधीन काम किया था. उमा महेश्वरन ने प्लोटे (पीपुल्स लिबरेशन ऑ़फ तमिल ईलम) की स्थापना की थी. बहरहाल प्रभाकरन वह शख्स था, जिसने जाफना के मेयर अल्फर्ड दुरईयप्पा की हत्या की थी और स्वीकार किया था कि उसी ने हत्या की है. लिट्टे द्वारा की गई यह पहली राजनैतिक हत्या थी. दुरईयप्पा किसी मंदिर के कार्यक्रम में भाग लेने जाफना आए थे. उनका सम्बन्ध सिरिमाओ भंडारनायके की पार्टी से था, जो उस समय सत्ता में थीं. यह वह समय था, जब लिट्टे की स्थापना हुई थी. प्रभाकरन, महेेश्वरन, कुट्टीमनी और दूसरे अन्य नेता थे, जिन्होंने मिलकर लिट्टे की बुनियाद डाली थी. बाद में वे अलग-अलग हो गए और अपना अलग संगठन बना लिया.
एक समय था, जब तमिल कॉज के लिए तकरीबन 16-17 समूह श्रीलंका में सक्रिय थे. इन समूहों को इंदिरा गांधी की ओर से मदद मिली थी. टेलो, ईपीआरएल जैसे सशस्त्र समूहों का प्रशिक्षण भारत में हुआ था. शुरुआत में छोटे हथियारों का कुछ हिस्सा भारत से भी आया था. बाद में उन्होंने समुद्री रास्ते का इतेमाल कर बहुत सारे हथियार दूसरे देशों से मंगवाए. उनमें यूरोप के कई देश भी शामिल थे. एक दिलचस्प बात यह है कि उनकी ट्रेनिंग में फिलिस्तीन का एक संगठन भी शामिल था. डीएफएलपी (डेमोक्रेटिक फ्रंट फॉर लिबरेशन ऑ़फ पलिस्टाइन) के जॉर्ज हबाश ने तमिल लड़ाकों के लिए बहुत सारे ट्रेनिंग कैम्पों की व्यवस्था की थी. लिट्टे की ट्रेनिंग आम तौर पर भारत के मदुरई, तेंजावूर आदि इलाकों में हुई थी. उस समय जेआर जयवर्धनेे सत्ता में नहीं थे बल्कि सिरिमावो सत्ता में थे. 1977 के चुनाव में जयवर्धनेेे प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता पर काबिज़ हुए थे. उस समय तक भारत इस समस्या के समाधान के पक्ष में था. इंदिरा गांधी इस संघर्ष में शामिल नहीं होना चाहती थीं. उस समय तमिल विद्रोहियों ने संघर्ष जारी रखने का फैसला किया. तमिल विद्रोहियों के खिलाफ श्रीलंका के समर्थन में अमेरिकन आर्म्स ग्रुप भी आ गया.
जयवर्धने ने इस संघर्ष को हल्के में लिया
भारत ने तमिलों की मदद की. तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमजी रामचंद्रन ने खुलेआम तमिलों की सहायता की. जयवर्धने को इंदिरा गांधी पसंद नहीं करती थीं. मिसेज बी (सिरिमावो भंडारनायके) के साथ उनके बहुत अच्छे सम्बन्ध थे. वे उनके पारिवारिक दोस्तों की तरह थे. नेहरू की तरह भंडारनायके ने भी अपनी पढ़ाई विदेशों में की थी. बहरहाल जयवर्धने, जो एक कुशल कूटनीतिक व्यक्ति थे, मिसेज गांधी से अच्छे सम्बन्ध बनाए रखने में नाकाम रहे. कूटनीति में व्यक्तिगत सम्बन्ध बहुत अहमियत रखते हैं. हालांकि सिरिमावो का इंदिरा गांधी के साथ मधुर सम्बन्ध था. भारत-पाकिस्तान जंग के दौरान श्रीलंका ने पाकिस्तानी प्लेन के रीफ्यूलिंग की इजाज़त दी थी, जिसे इंदिरा गांधी ने पसंद नहीं किया था. इस तरह की चीज़ों की पुनरावृत्ति न हो, इसके लिए उन्होंने सिरिमाओ से अच्छे सम्बन्ध बनाए रखे और तनाव को कम करने की कोशिश की. उससे पहले श्रीलंका, भारत के लिए एक पठारी द्वीप था, जिसका कोई महत्व नहीं था. बांग्लादेश वजूद में आ गया. उसके बाद श्रीलंका में तमिलों का संघर्ष शुरू हुआ.
जयवर्धने ने चीज़ों को हल्के में लिया. उन्होंने चुनाव से पहले कहा था कि जब वे सत्ता में आएंगे, तो एक ऑल पार्टी कॉन्फ्रेंस बुलाएंगे. उस समय तक सशस्त्र विद्रोहियों की संख्या 100 से अधिक नहीं थी. उनकी नीति हिट एंड रन की थी. उनके पास कोई अत्याधुनिक स्वचालित हथियार भी नहीं थे. ऑल पार्टी कॉन्फ्रेंस के जरिए उन्हें आसानी से शांत किया जा सकता था. श्रीलंका के तमिल राजनेता ए. अमृतालिंगम के साथ बातचीत कर उन्हें कुछ अधिकार देकर इस समस्या को वहीं समाप्त किया जा सकता था, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. जयवर्धने ने सोचा कि चीज़ों को तोड़-मरोड़ कर वे स्थिति को संभाल लेंगे.
यही वो समय था, जब तमिल विद्रोही संगठित और ताक़तवर हो रहे थे. वास्तव में सशस्त्र संघर्ष की शुरुआत यहीं से हुई और लिट्टे इस संघर्ष का प्रमुख नायक बन गया. इस दौर के बाद लिट्टे के लिए तमिल समस्या के समाधान का एकमात्र तरीका सशस्त्र संघर्ष रह गया. दूसरे तमिल नेता भी थे, जो इस बात में विश्वास करते थे कि समस्या के समाधान के लिए राजनैतिक तरीका महत्वपूर्ण है और इससे बहुत कुछ हासिल किया जा सकता है, लेकिन वे भी खामोश हो गए. बहरहाल लिट्टे ने एक दूसरी नीति अपनाई और उन्होंने दूसरे तमिल संगठनों के नेताओं का क़त्ल करना शुरू कर दिया.
वे चाहते थे कि तमिल मुद्दे के एकमात्र पैरोकार वही रहें, इसलिए उन्होंने दूसरे तमिल पृथकतावादी संगठनों के लोगों को मारना शुरू कर दिया. प्रभाकरन यह भूल गया कि इन संगठनों के लोग भी उसी मकसद के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जिसके लिए उसने हथियार उठाया था. उसने कोलम्बो में उमा महेश्वरन की हत्या करवा दी. यह वही उमा महेश्वरन था, जिसके अधीन कभी उसने काम किया था. लिट्टे ने अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त उदारवादी तमिल नेता अमृतालिंगम की हत्या करवाई. अमृतालिंगम श्रीलंका के विपक्ष के नेता भी थे. दरअसल वे नहीं चाहते थे कि कोई भी, चाहे वो तमिल ही क्यों न हों, उनके फैसलों पर सवाल खड़ा करें. उनके पतन का यह एक बहुत बड़ा कारण था.
अब सवाल यह उठता है कि क्या जाफना और पूर्वी प्रांत, जो तमिल बहुल क्षेत्र हैं, में लिट्टे को लोगों का समर्थन हासिल था? दरअसल ये क्षेत्र लिट्टे के कब्ज़े में थे. यहां से उन्होंने दूसरे तमाम तमिल संगठनों को भगा दिया था. उन्होंने गुरिल्ला युद्ध से शुरुआत की थी, जिसने बाद में परम्परागत युद्ध शैली का रूप ले लिया था. उन्होंने हमले शुरू कर दिए. उनके पास हथियारों का अच्छा-खासा ज़खीरा था. उनका विश्वव्यापी नेटवर्क बन गया. उन्होंने अपने जहाजों का बेड़ा बना लिया. यहां तक कि उन्होंने नौसेना तैयार कर ली थी और अपने आखिरी दिनों में तो उन्होंने एक वायुसेना भी खड़ी कर ली थी.
इंदिरा गांधी ने श्रीलंका में तमिलों का समर्थन किया था
यह नहीं भूलना चाहिए कि उनकी सबसे भयानक, सबसे गलत और सबसे घृणित कार्रवाई राजीव गांधी की हत्या थी. दरअसल राजीव गांधी की हत्या ने उनके पतन को सुनिश्चित कर दिया. बहरहाल, एक बार और था़ेडा पीछे चलते हैं. यह तो सा़फ हो गया कि इंदिरा गांधी ने श्रीलंका में तमिलों का समर्थन किया था. 1984 में उनकी हत्या के बाद उनके पुत्र राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने. राजीव गांधी ने भी तमिलों की सहायता की. उन्होंने न सिर्फ पुरानी नीतियों को जारी रखा, बल्कि श्रीलंका के साथ एक संधि भी की थी, जिसके तहत उन्होंने भारतीय शांति सेना (आईपीकेएफ) को श्रीलंका भेजा था. दरअसल आईपीकेएफ की भूमिका एक शांति सेना की थी, लेकिन इसने लिट्टे को नाराज कर दिया. इसके बाद उनपर बम फेंके गए, गोलियां चलाई गईं. कई तरह के छल-कपट से उनको मारा गया. उसी दौरान श्रीलंका की नौसेना ने समुद्र से लिट्टे के 12 लड़ाकों को गिरफ्तार कर लिया. उन्हें जाफना में रखा गया. लिट्टे उनकी रिहाई की मांग कर रहे थे लेकिन श्रीलंका सरकार उन्हें कोलम्बो लाकर जांच करना चाहती थी. इस बीच किसी ने उन बंधकों तक साइनाइड पहुंचा दी, जिसे खाकर उन सभी ने आत्महत्या कर लिया. इस घटना के बाद लिट्टे ने आईपीकेएफ पर प्रत्यक्ष हमले शुरू कर दिए.
प्रभाकरन को छोड़ने के लिए भारतीय सैन्य अधिकारियों को नई दिल्ली से मिला फरमान
बहरहाल, यह एक सीमित संघर्ष था. लिट्टे को शिकायत थी कि भारत से उन्हें पूरा समर्थन नहीं मिला, जिसकी वो उम्मीद लगाए बैठे थे. आईपीकेएफ के श्रीलंका में आगमन के बाद सभी सशस्त्र संगठनों ने आईपीकेएफ को अपने हथियार सौंप दिए, लेकिन लिट्टे ने केवल पुराने हथियार समर्पित किए और अत्याधुनिक हथियार अपने पास ही रखे. इसके बाद उन्होंने आईपीकेएफ के खिलाफ ही मोर्चा खोल दिया और यहीं से आईपीकेएफ के खिलाफ लिट्टे की जंग शुरू हो गई. हालांकि, लिट्टे के लिए यह एक भयंकर युद्ध था, जबकि भारतीय शांति सेना के लिए यह एक सीमित लड़ाई थी.
जिस तरह भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ ऑल आउट वार किया था, वैसी लड़ाई यहां होती तो आईपीकेएफ ने लिट्टे का काम तमाम कर दिया होता. बहरहाल, यह लड़ाई आईपीकेएफ नहीं जीत सकी. उसी दौरान एक घटना घटी, जब आईपीकेएफ ने प्रभाकरन को घेर लिया था. उस कार्रवाई में या तो वो मारा जाता या फिर गिरफ्तार कर लिया जाता, लेकिन भारतीय सैन्य अधिकारियों को नई दिल्ली से फरमान आया कि प्रभाकरन के इर्द-गिर्द बनाया गया घेरा तोड़ दिया जाए. इस तरह प्रभाकरन गिरफ्तार नहीं हो सका. उस समय राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे. भारतीय सेना ने भारी हथियारों का प्रयोग नहीं किया. यदि भारी हथियारों का प्रयोग किया होता, तो आईपीकेएफ ने वो जंग जीत ली होती.
उस दौरान प्रभाकरन न केवल उत्तरी और पूर्वी श्रीलंका में लोकप्रिय था, बल्कि वो मध्य श्रीलंका के केंडी क्षेत्र में रहने वाले भारतीय मूल के लोगों का भी हीरो बन गया था. यहां के तमिलों ने लिट्टे का समर्थन किया. तमिलों पर उसका प्रभाव इतना सुदृढ़ था कि आज भी ऐसे बहुत सारे तमिल हैं, जो ये मानते हैं कि प्रभाकरन जिंदा है, लेकिन यह सच नहीं है. यदि ऐसा होता तो श्रीलंका सरकार ने अपनी सेनाओं के बैरक नहीं हटाए होते. जाफना से श्रीलंका की सेना पूरी तरह से हट गई है. आज कोई भी उत्तरी श्रीलंका में बिना किसी खौफ के आ-जा सकता है. यदि प्रभाकरन जिंदा होता तो यह संभव नहीं होता.
चीन, पाकिस्तान और भारत ने की थी श्रीलंका की मदद
प्रभाकरन 2009 में राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे के शासनकाल में मारा गया था. उसकी शिकस्त में महिंदा राजपक्षे के भाई गोताबया राजपक्षे की बड़ी और महत्वपूर्ण भूमिका थी. गोताबया राजपक्षे एक निर्दयी डिफेंस सेक्रेटरी थे. उन्होंने बड़ी होशियारी से उस युद्ध की नीति बनाई और उसे संचालित किया. उन्हें इस काम के लिए चीन, पाकिस्तान और भारत का समर्थन मिला. उस वक्त भारत में कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए की सरकार थी, जिसकी चेयरपर्सन सोनिया गांधी थीं. उन्होंने खुले दिल से राजपक्षे का समर्थन किया. ज़ाहिर है लिट्टे ने उनके पति राजीव गांधी की हत्या की थी. लिहाज़ा उनके दिल में लिट्टे के लिए कोई हमदर्दी नहीं थी. लिट्टे के खिलाफ अंतिम लड़ाई में भारत ने समुद्र को पूरी तरह से घेर लिया था. भारत ने लिट्टे के खिलाफ खुफिया सूचनाएं भी श्रीलंका को दीं. भारत ने लिट्टे के जहाजों को पहचानने में भी श्रीलंका की मदद की, जिसे बाद में श्रीलंका ने निशाना बनाया.
भारत ने लिट्टे को हथियार सप्लाई के सारे रास्ते बंद कर दिए थे. गौरतलब है कि श्रीलंका की नेवी बहुत सशक्त नहीं थी. भारत के समर्थन के बिना श्रीलंका का यह जंग जीतना आसान नहीं होता. जानकारों का मानना है कि लिट्टे की नौसैनिक क्षमता श्रीलंका से काफी बेहतर थी. लिट्टे ने समुद्र में डबल इंजन के गन-बोटों के जरिए भी गुरिल्ले हमले किए थे. जहां तक हथियारों का सवाल है, तो वो बड़े जहाजों से आते थे. उनका मुकाबला करने के लिए श्रीलंका सरकार ने स्पेन से तेज़ रफ़्तार गन-बोट मंगवाए. चीन ने भी इस मामले में श्रीलंका सरकार की मदद की. पाकिस्तान ने भी मदद की. भारत ने श्रीलंका की राडार प्रणाली का समर्थन किया. अंतिम लड़ाई के दौरान भारत असमंजस की स्थिति में था. यहां पाकिस्तान अपनी भूमिका निभा रहा था, चीन अपनी भूमिका निभा रहा था. भारत की दुविधा यह थी कि यदि उसने श्रीलंका सरकार को समर्थन नहीं दिया, तो क्षेत्रीय सत्ता संतुलन बिगड़ जाएगा. आखिर में उन्होंने श्रीलंका सरकार को समर्थन देने का फैसला किया. राजीव गांधी की हत्या ने भी इस फैसले को आसान बना दिया था.
सरकार तमिलों को कुछ भी देने के लिए तैयार नहीं है
प्रभाकरन के खात्मे के बाद सशस्त्र संघर्ष तो खत्म हो गया, लेकिन जो समस्याएं हैं, वो ज्यों की त्यों बरक़रार हैं. जिन समस्याओं को लेकर चेलानायकन और दूसरे लोगों ने संघर्ष किया था, उन समस्याओं का समाधान नहीं हुआ है. जो बेरोजगारी पहले थी, वो अब भी है. शिक्षा की कमी, जो पहले थी, वो अब भी है. राजनीतिक स्वतंत्रता का अभाव, जो पहले था, वो अब भी है. श्रीलंका के संघीय ढांचे में स्वायत्तता की मांग अब भी है. ये स्वायत्तता की मांग अलगाववादी नहीं है, बल्कि सत्ता में हिस्सेदारी की स्वायत्तता है. जिस तरह भारत के संघीय ढांचे में राज्यों को सत्ता में हिस्सेदारी मिली है, वैसी हिस्सेदारी की मांग है.
लेकिन समस्या यह है कि जब सत्ता में हिस्सेदारी की बात होती है, तो सिंहली और श्रीलंका सरकार इसे अलगाववादी मांग समझने लगते हैं. सरकार तमिलों को कुछ भी देने के लिए तैयार नहीं है. श्रीलंका में कुल 9 प्रोविंसियल काउंसिल हैं. इन काउंसिलों का पुलिस पर नियंत्रण नहीं है, जमीन पर इनका नियंत्रण नहीं है, अदालतें इनके अधिकार क्षेत्र से बाहर हैं. सरकार इन्हें इस तरह का अधिकार देने से डरती है. सरकार सोचती है कि ऐसा करने से ये भारतीय राज्य तमिलनाडु के करीब हो जाएंगे और एक बार फिर ग्रेटर तमिल लैंड की बात शुरू हो जाएगी. इस विचार से दिल्ली को भी खतरा हो सकता है. जाफना के लोगों के पास समान जन अधिकार (पीपुल्स राइट्स) नहीं हैं.
बाकि के 8 प्रोविंस में इस तरह की पॉलिटिकल ऑटोनोमी के लिए कोई मांग नहीं है. केवल उत्तरी क्षेत्र यानि जाफना के लोग सत्ता में भागीदारी की मांग करते हैं. शेष 8 प्रोविंस में दो मुख्य सिंहली पार्टियांं हैं, वही चुनाव लड़ती हैं और प्रांतीय काउंसिल पर उन्हीं का क़ब्ज़ा रहता है. उन्हें सारा अधिकार नहीं चाहिए. सभी उच्च सरकारी पदों पर सिंहली ही विराजमान हैं. दरअसल ये समस्याएं नॉर्दर्न-ईस्ट की समस्याएं हैं. इसी समस्या के समाधान के लिए राजीव गांधी के दौर में भारत-श्रीलंका पैक्ट हुआ था, जिसके फलस्वरूप प्रांतीय काउंसिल वजूद में आई थी. यहां यह भी बताना ज़रूरी है कि भारत ने दो प्रांत बनाए जाने पर जोर दिया था. जयवर्धने ने नौ प्रांत इसलिए बनाए, ताकि पूर्वी क्षेत्र को उत्तरी क्षेत्र से अलग रखा जाए. श्रीलंका के 9 प्रांत हैं, जाफना (नॉर्दर्न), कुरुनेगाला (नॉर्थ वेस्टर्न), कोलंबो (वेस्टर्न), अनुराधापुरा (नॉर्थ सेंट्रल), केंडी (सेंट्रल), रतनपुरा (सबरागामुवा), त्रिंकोमाली (इस्टर्न), बदुला(उवा) और गाले (सदर्न).
पूर्वी प्रांत का त्रिंकोमाली एक प्राकृतिक बंदरगाह है. यह सामरिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है. द्वितीय विश्व युद्ध के समय ब्रिटिश ने इस जगह का इस्तेमाल तेल स्टोर करने के लिए किया था. उन्होंने यहां बड़े तेल के 99 टैंक बनवाए थे. इसे टैंक फार्म कहते हैं. भारत इस टैंक फार्म में दिलचस्पी रखता है. चीन को ये पसंद नहीं है. भारत त्रिंकोमाली बंदरगाह और टैंक फार्म के संचालन की मांग करता रहा है. राजीव गांधी के समय हुए भारत-श्रीलंका समझौते में भी इसका ज़िक्र था.
तमिल नेशनलिज्म एक बार फिर चर्चा में
नॉर्दर्न में प्रमुख राजनैतिक दल टीएनए (तमिल नेशनल अलायंस) है. यह चार पार्टियों का अलायंस है. इनका प्रतिनिधित्व संसद में भी है. मौजूदा संसद में इनके 17 सांसद हैं. जाफना के सीएम सीवी विघ्नेश्वरम हैं. वे पूर्व में श्रीलंका के अपील कोर्ट के चीफ जस्टिस रह चुके हैं. जब जाफना में चुनाव की बात आई तो महिंदा राजपक्षे चाहते थे कि यहां कोई उदारवादी व्यक्ति सीएम बने, क्योंकि इसे संभालना काफी मुश्किल काम था. लिहाज़ा उन्हें विघ्नेश्वरम इस काम के लिए सही लगे. वे कोई
राजनेता नहीं थे. समय बिताने के लिए वे तमिल साहित्य पर लेक्चर दिया करते थे. उन्हें सीएम के लिए चुना गया और लोगों ने उनका समर्थन किया. अब वे तमिल नेशनलिज्म की बात करने लगे हैं. अब वे भी संघीय व्यवस्था की मांग करने लगे हैं. श्रीलंका के सबसे बड़े बुद्धिस्ट मोन्क को महानायक कहते हैं. हालिया दिनों में इनकी राजनैतिक ताक़त बहुत बढ़ी है. इसके मद्देनज़र सीवी विघ्नेश्वरम ने मौजूदा महानायके तिब्बातुवावे श्री सुमंगला तेरा से मुलाक़ात कर संघीय व्यवस्था पर बातचीत की और उन्हें बताया कि संघीय व्यवस्था कोई गलत शब्द नहीं है, भारत में इसे अपनाया गया है.
श्रीलंकाई तमिलों को भारत से उम्मीद
श्रीलंका की आर्थिक स्थिति खस्ताहाल है. मौजूदा सरकार का कहना है कि पिछली राजपक्षे सरकार ने पैसे की बहुत हेराफेरी की. भ्रष्टाचार अपने ज़ोरों पर था. वहीं विदेशों से लिए गए क़र्ज़ को भी वापस करना था, इसलिए श्रीलंका आर्थिक विकास पर ध्यान केन्द्रित नहीं कर सका. जब नई सरकार आई तो उसने श्रीलंका में बहुत सारा विदेशी निवेश आकर्षित किया. लेकिन पश्चिमी ताक़तों ने मानवाधिकार के सवाल खड़े कर दिए हैं. वे लापता लोगों के बारे में सरकार से जानकारी चाहते हैं. लिहाज़ा विदेशी निवेश में यह शर्त लागू हो गई है. यहां अमेरिकी निवेश बहुत कम है. श्रीलंका ने अमेरिका से बड़े निवेश की आशा बांध रखी थी. श्रीलंका का सबसे बड़ा निवेशक चीन है और ऐसा भारत की वजह से है. चीन आधुनिक सिल्क रूट बना रहा है. इसमें वन कंट्री, वन रोड का खाका तैयार किया गया है. सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण श्रीलंका के हम्बनटोटा पोर्ट को विकसित करने का कॉन्ट्रैक्ट चीन को मिल गया है. हालांकि चीन का ब्याज दर अधिक है. हाल में अमेरिकी राजदूत ने कहा कि हम सॉफ्ट लोन देते हैं, जबकि चीन अपनी शर्तों पर नॉर्मल लोन देता है. अब श्रीलंका में आर्थिक लड़ाई भारत और चीन के बीच में है.
कपड़ा, टूरिज्म और चाय आज भी श्रीलंका की अर्थव्यवस्था के लिए रीढ़ की हड्डी हैं. यहां लोग समुद्र किनारे, जैसे हम्बनटोटा आदि जगहों पर समय बिताने आते हैं. विदेशी लोग केंडी जाते हैं. यहां के सी बीच सबसे अधिक लोकप्रिय हैं. पर्यटन ही यहां की आय के सबसे बड़े स्रोत हैं. यहां बेरोजगारी दर काफी ऊंची है. सरकार दो-तीन वर्षों में एक मिलियन नौकरियां सृजित करना चाहती है, लेकिन इसमें कई समस्याएं हैं. मानवाधिकार सम्बन्धी समस्याएं हैं. यह सरकार पूर्ववर्ती सरकारों के मुकाबले में काफी बेहतर है, लेकिन समस्या यह है कि यहां सिंहली बहुसंख्यक को संतुष्ट करना पड़ता है. जब भी सरकार अल्पसंख्यकों को कुछ अधिकार देने की बात करती है, तब उसे बहुसंख्यकों के विरोध का सामना करना पड़ता है. यहां तमिल और मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं. सिंहली बुद्धिस्ट बहुसंख्यक हैं, जिनकी संख्या तकरीबन 73 फीसदी है. तमिल और मुस्लिम राजनीतिक रूप से एकजुट हैं. मौजूदा सरकार अल्पसंख्यकों के वोट के कारण ही सत्ता में आई है. अल्पसंख्यकों ने एकमुश्त राष्ट्रपति मैत्रिपाला सिरीसेना को वोट दिया.
जहां तक व्यवस्था में भ्रष्टाचार का सवाल है, तो भारत की तरह श्रीलंका में भी भ्रष्टाचार व्याप्त है. यहां की सिंहली आबादी भी तमिलों की तरह भारत से आई है. यदि ऐतिहासिक रूप से देखें तो सिंहली मौजूदा बांग्लादेश से आए हैं. सामाजिक तौर पर अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के बीच कोई हिंसा या टकराव नहीं है. जहां तक राजनैतिक टकराव का सवाल है, तो वो अलग बात है. उत्तरी श्रीलंका के तमिल आज भी भारत से यह उम्मीद लगाए बैठे हैं कि वो इस समस्या के समाधान में उनकी मदद करेंगे. यहां के लोगों ने नरेंद्र मोदी का भव्य स्वागत किया था. लेकिन जहां तक तमिलों का सवाल है वो किसी व्यक्ति नहीं, बल्कि भारत की मदद चाहते हैं. क्रिकेट का उदाहरण इस बात को समझने के लिए काफी होगा कि जब भारत और पाकिस्तान के बीच कोई क्रिकेट मैच होता है तो श्रीलंका के तमाम तमिल भारत का समर्थन करते हैं.