पिछली बार आपने क्रिसमस कार्ड कब पढ़ा था? यह मौसमी उत्सव एक पेचीदे सवाल को जन्म देता है कि कौन सी चीज़ दुनिया में सबसे पहले आई? धरती पर शांति अथवा मनुष्यों में सद्भावना? पाकिस्तान की यात्रा करने वाला कोई भी भारतीय इस बात की तस्दीक करेगा कि वहां उसकी ख़ातिरदारी बढ़िया तरीक़े से होती है. हम सभी भावुक इंसान हैं और जबसे भारत-पाकिस्तान की सभी समस्याओं को एक शानदार डिनर पर ही सुलझाने की मुहिम चली है, तबसे क्रिकेट इनकी शत्रुता के लिए एक आदर्श पिच बन गया है. लेकिन भारतीयों एवं पाकिस्तानियों के बीच गर्मजोशी भरे माहौल को भारत और पाकिस्तान के बीच शांति में तब्दील नहीं किया गया है. इन दोनों देशों के बीच संबंधों की शुरुआत इनके जन्म के छह सप्ताह के भीतर ही कश्मीर मसले पर जंग से हुई. इसकी वजह यह है कि इन दोनों मुल्कों की नींव राष्ट्रवाद की विरोधी अवधारणाओं पर पड़ी थी.
पाकिस्तान द्विराष्ट्रवादी सिद्धांत का ही नतीजा है. यह मसला भौगोलिक नहीं है. इसका आधार यह है कि हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग मुल्कों के बाशिंदे हैं. मोहम्मद अली जिन्ना ने लाखों बार दोहराया कि हिंदुओं के अत्याचार की वजह से उनके साथ रहना मुसलमानों की मजबूरी थी. जब मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने इस बात पर ज़ोर दिया कि बहुविश्वासी धर्मनिरपेक्ष राज्य का अस्तित्व मुमकिन ही नहीं, बल्कि ज़रूरी भी है तो जिन्ना ने उनका माख़ौल उड़ाया था.
इसी आधार पर हर पाकिस्तानी कश्मीर घाटी को पाकिस्तान का वाजिब अंग मानता है. उसका यह भी मानना है कि कश्मीर में भारतीय शासन वहां के लोगों पर क्रूर अत्याचार के कारण ही है.
भारत ने पाकिस्तान की असलियत को क़बूल लिया है. अ़फग़ानिस्तान की मुख़ाल़फत के बावजूद भारत ने संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान की सदस्यता का समर्थन किया, लेकिन भारतीय विचारधारा यह क़बूल नहीं कर सकती कि दो धर्मों के आधार पर दो मुल्क होने चाहिए. इसका संविधान और छह दशकों का लोकतांत्रिक तज़ुर्बा भी यही कहता है. भारतीय विचारधारा कश्मीर को भारत का अविभाज्य हिस्सा और पाकिस्तानी विचारधारा उसे पाकिस्तान का हिस्सा मानती है. पाकिस्तान एक इस्लामिक मुल्क है और यदि कोई उसे हिंदू बहुल जम्मू देने की पेशकश करे तो वह स्वीकार नहीं करना चाहेगा. उसका संविधान ग़ैर मुसलमानों को राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री बनाने से मना करता है.
कश्मीरियों ने पूरे मसले में त्रिराष्ट्रीय सिद्धांत को शामिल कर एक नया टि्वस्ट पैदा कर दिया है. कश्मीरी आज़ादी की अवधारणा का सूत्रधार कोई मुसलमान नहीं था. 1947 में महाराजा हरि सिंह ने एक अलग राज्य की उम्मीद से ही भारत या पाकिस्तान दोनों में से किसी राज्य में विलय की संधि पर दस्तख़त करने में विलंब किया था. व़क्त के साथ-साथ और ख़ासकर घाटी से कश्मीरी पंडितों के पलायन के बाद आज़ादी की मांग कश्मीरियों के बजाय कश्मीरी मुसलमानों का मुद्दा बन गई है. वह कौन सा उपाय है, जिससे ऐसी परस्पर विरोधी आकांक्षाओं या विलय की समस्याओं को सुलझाया जा सकता है? सद्भावना चाहने वाले आशावादी लोगों को इन समस्याओं को स्पष्ट तौर पर सामने लाना चाहिए. मौजूदा नतीजों को देखते हुए इन तीनों में से एक को अपनी हठधर्मी विचाराधारा छोड़नी चाहिए.
दिल्ली यह मानती है कि बातचीत का सबसे आसान तरीक़ा त्रिराष्ट्रीय सिद्धांत में निहित है. इसने अपने चिर-परिचित शातिर नीतियों से स्वायत्तता की आड़ में कश्मीर के लिए एक नया शिगूफा छोड़ा है. इसने कश्मीर को एक वर्चुअल नेशन के विकल्प के तौर पर पेश किया है. दिल्ली की कोशिशों के बाद इस्लामाबाद पूर्व नियोजित संकेतों से विवाद खड़ा करेगा और वहां की हक़ीक़त जाने बग़ैर कश्मीरियों को आज़ादी का एक टुकड़ा दे दिया जाएगा. क़ानूनी और संवैधानिक सशक्तिकरण के अभाव में इस तरह के समाधान भ्रामक ही होंगे. यह समाधान कई मामलों में बेहद ही खोखला साबित होगा. बहुत से पाकिस्तानी इसे समाधान के तौर पर नहीं देखते हैं. उनके मुताबिक़, कश्मीर पर पूर्ण अधिकार की दिशा में यह महज़ आंशिक जीत ही होगी.
निश्चित तौर पर आतंकी नेटवर्कों और सरकार में उनके सहयोगियों का यह घोषित मक़सद है. और, अपने इस मक़सद के लिए वे ख़ूब ख़ूनखराबा करेंगे. लश्कर-ए-तैय्यबा और उसके सहयोगी भारत के साथ शांति समझौते पर दस्तख़त करेंगे, इसकी संभावना बेहद कम है. दिल्ली में सरकार या उसके मिजाज़ में भी बदलाव हो सकता है. दिल्ली में ही पंडित नेहरू ने शेख अब्दुल्ला के साथ कई वायदे किए, लेकिन बाद में उससे पीछे हट गए. इसकी वजह यह थी कि वे सभी वायदे संघीय ढांचों की कसौटी पर असंगत ठहरते थे और उनसे भारतीय एकता को गहरा धक्का पहुंचता.
पाकिस्तान की विचारधारा को उसकी गलियों में बंदूक़ों और आत्मघाती हमलावरों द्वारा हर रोज़ चकनाचूर किया जा रहा है. समान विचारधारा भी बांग्लादेश की क्रांति, बलूचिस्तान में विद्रोह अथवा पिछले सप्ताह शिया मुसलमानों के नरसंहार को नहीं रोक सकी. इस बात का पता लगाना बेहद दिलचस्प होगा कि आज शिया मुसलमान ख़ुद को लखनऊ में ज़्यादा महफूज़ महसूस करते हैं या कराची में? पाकिस्तानी मुसलमानों ने एक अलग देश बनाया, क्योंकि वे हिंदू और सिखों के साथ नहीं रह सकते थे. आज वे अपनों के साथ भी नहीं रह पा रहे हैं. सारे सबूत हमारे सामने हैं. हालात इतने संवेदनशील हैं कि उन्हें बयां नहीं किया जा सकता है.
कश्मीर का मसला असफल सिद्धांत में निहित नहीं हो सकता है. और, वाक़ई कश्मीरी इस बात को समझते हैं कि आज़ादी का विकल्प मुमकिन नहीं है. शायद इस महाद्वीप को एक आख़िरी बार विभाजित करने की ज़रूरत है. पंजाब और बंगाल का विभाजन बेहद ही दर्दनाक था, लेकिन इससे शांति क़ायम हुई. आज छह दशक बाद भारत के किसी भी राज्य की अपेक्षा पश्चिम बंगाल में मुसलमानों की सबसे घनी आबादी है. और, धर्मनिरपेक्षता की मज़बूती ने बिहारी मुसलमानों को पंजाब की ओर पलायन के लिए मजबूर किया.
1947 में कश्मीर का विभाजन युद्ध विराम की क़ीमत पर हुआ, क्योंकि पाकिस्तान ने बातचीत की जगह जंग का विकल्प चुना. यदि पाकिस्तान घाटी पर अपना दावा वैचारिक आधार पर करता है तो वहां शांति की बहाली नामुमकिन है. यदि समस्या के समाधान के लिए कोई व्यवहारिक उम्मीद हो सकती है तो इस्लामाबाद और दिल्ली इस नए साल में एक-दूसरे पर बग़ैर उंगली उठाए आपस में हाथ मिला सकते हैं.