पुराने दौर में बादशाह के फरमान को खुदा का फैसला माना जाता था. शासन के फैसले स़िर्फ एक शख्स के हाथ में होते थे. वही राज्य का पहला और आ़खिरी न्यायाधीश होता था. समय के साथ-साथ शासन चलाने का तरीक़ा बदला. फैसला कौन करे, इस निर्णय प्रक्रिया में लोग जुड़ने लगे. दुनिया के कई देशों में फैसले का अधिकार अब आम जनता के  हाथों में आ गया है, जिसे हम प्रजातंत्र कहते हैं. ऐसे कई देश हैं, जो खुद को प्रजातंत्र तो कहते हैं, लेकिन वहां जनता की हिस्सेदारी स़िर्फ काग़ज़ों और आंकड़ों तक ही सीमित है. नई सदी में भारत में जब नई पीढ़ी की बात होती है तो सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि राजनीतिक दलों, चाहे वे कांग्रेस हों या भाजपा, क्या नई पीढ़ी के पास कोई दूरदृष्टि है? या फिर यह कि क्या उनमें बड़े बदलाव लाने की क्षमता है? इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि भारत की नई पीढ़ी के  नेता अपने इर्द-गिर्द बुने आडंबर के मायाजाल को ग़लत मानते हैं और मौजूदा शीर्ष नेताओं से इनका प्रजातंत्र में विश्वास अधिक है.
विदेश राज्यमंत्री शशि थरूर से कांग्रेस नाराज़ है. वह बीजेपी के निशाने पर भी हैं. इतना ही नहीं, मीडिया भी उन पर हमला कर रहा है. वह वीजा रेगुलेशन पर अपने लेखन की वजह से फिर सु़खिर्यों में आ गए. शशि थरूर ने स़िर्फ इतना कहा कि सुरक्षा देने के नाम पर हम अपने देश में ग़लत बदलाव की पहल कर दें. 26/11 के आतंकी मुंबई में बिना वीजा के आए थे. यह बात भी सही है कि डेविड कोलमैन हेडली के मामले में यह उजागर हुआ कि वीजा रेगुलेशन की कमियों की वजह से ही वह भारत में लंबे समय तक रहने में कामयाब रहा. बहरहाल, मामला वीजा से जुड़ा था तो वैसे ही यह मुद्दा राष्ट्रीय सुरक्षा का हो गया. टेलीविज़न चैनलों को फिर से एक मुद्दा हाथ लग गया. राजनीति में मौजूद सामंती सोच के लोगों को बोलने का मौक़ा मिल गया कि सरकार का यह कैसा मंत्री है, जो सरकार के मत के खिला़फ अपना दिमाग़ दौड़ाने का दुस्साहस कर रहा है. बीजेपी भी शशि थरूर के बहाने कांग्रेस की खिंचाई करने मैदान में कूद पड़ी. विदेश मंत्री ने अपने तेवर कड़े कर लिए. मीडिया ने भी शशि थरूर को कठघरे में उतार दिया. शशि थरूर ऐसा क्यों करते हैं? कुछ लोग यह कह सकते हैं कि वे जानबूझ कर व़क्त-बेव़क्त सु़र्खियां बटोरने के लिए ऐसा करते हैं. वीजा को लेकर शशि थरूर ने कुछ लिखा तो टीवी चैनलों पर एंकर्स चीखते-चिल्लाते नज़र आने लगे. टीवी चैनलों का भी दोष नहीं है, क्योंकि राई को पहाड़ बनाना तो उनकी फितरत बन गई है. अ़फसोस की बात यह है कि शशि थरूर ने जो बात कही, अगर उस पर सार्थक बहस होती तो अच्छा होता, लेकिन बहस यह होने लगी कि शशि थरूर ने सरकार के  नीतिगत फैसले के बारे में अपने विचार सार्वजनिक क्यों किए. जिस विषय पर बहस होनी चाहिए, उस पर बहस नहीं हुई. शशि थरूर ने बस इतना ही कहा था कि वीजा नीति में बदलाव करने से पर्यटकों को परेशानी होगी. शशि थरूर ने जो कहा, उस पर बहस की जा सकती है. आ़खिर प्रजातंत्र की पहचान भी तो इसी अधिकार से होती है. किसी मुद्दे पर बहस होना ही प्रजातंत्र की पहचान है.

प्रजातंत्र की एक और खासियत है कि यह जनता और सरकार की दूरियों को खत्म करता है. इसके  लिए ज़रूरी है कि सरकार के  पास ऐसे माध्यम हों, जिनसे दूरियां खत्म हो सके. इंटरनेट ऐसा ही माध्यम है. यह टीवी की तरह नहीं है, जो स़िर्फ नेताओं के भाषण सुना सकती है. शशि थरूर की तरह भारत सरकार को भी ऐसी नीतियां बनानी चाहिए, जिससे सरकार एवं जनता के  बीच संवाद स्थापित हो और दोनों ही अपनी बातों को सा़फ-सा़फ रख सकें.

शशि थरूर से सोशल नेटवर्क टि्‌वटर पर पांच लाख से भी ज़्यादा लोग जुड़े हैं. इसका मतलब यह है कि वह किसी भी व़क्त और कहीं से भी एक साथ पांच लाख लोगों तक अपनी राय पहुंचा सकते हैं. आज ऐसे कितने नेता हैं, जो दो महीने की तैयारी करके भी अपनी रैली में पांच लाख लोगों को इकट्ठा कर सकते हैं? इंटरनेट ने लोगों को जिस तरह से आपस में जोड़ा है, उसका इस्तेमाल सरकार चलाने में कैसे हो, यही समझने की ज़रूरत है.  शशि थरूर का ज़ुर्म क्या है? क्या थरूर को भारतीय राजनीति और इससे जुड़े पर्दा सिस्टम के  बारे में जानकारी नहीं है? क्या वह यह नहीं जानते कि सरकारी फैसले बंद कमरे में किए जाते हैं और जिसके बारे में जनता को व़क्त से पहले और ज़रूरत से ज़्यादा बताने का रिवाज़ भारत में नहीं है. क्या उन्हें पता नहीं है कि देश की राजनीतिक पार्टियों के अंदर वैचारिक मतभेद की जगह नहीं है. भारतीय दलगत राजनीति स्वतंत्र विचार बर्दाश्त नहीं करती. शशि थरूर ने इन्हीं रिवाज़ों को ललकारा है, उनके खिला़फ आवाज़ उठाई है. एक विशेष मुद्दे पर उन्होंने अपनी बेबाक राय रखी, भले ही वह राय अपने वरिष्ठ मंत्री के खिला़फ ही क्यों न हो. यह बात अलग है कि शशि थरूर को उनके वरिष्ठ मंत्री एस एम कृष्णा ने सरकारी तौर तरीक़ा बता दिया कि उन्हें अपनी राय मंत्रालय के बंद कमरे के अंदर ही देनी चाहिए.
राजनीतिक दलों की समस्या यह है कि समय के  साथ वे खुद को बदलने की तक़ली़फ नहीं उठाते हैं. हमारी सरकार और सरकार चलाने वाले नेताओं को नए ज़माने की मीडिया और उसकी ताक़त को समझने की ज़रूरत है. हमारे देश में नेता मीडिया को स़िर्फ पार्टी की अंदरूनी खबर को लीक करने और अपने प्रतिद्वंद्वियों को सबक सिखाने का एक ज़रिया भर समझते हैं. थरूर पढ़े-लिखे हैं और नए ज़माने की सोच रखते हैं. वह नेता के साथ-साथ एक सुलझे हुए राजनायिक हैं. शशि थरूर को प्रजातंत्र की समझ और विश्वास ज़्यादा है. सरकार की नीति तय करने में वह जनता की भी भागीदारी को महत्व देते हैं. कुछ दिन पहले वह मुंबई यूनिवर्सिटी के छात्रों के बीच थे. वहां उन्होंने यह कहकर सबको चौंका दिया कि विदेश नीति में देश के नौजवानों की भागीदारी की ज़रूरत है. उन्होंने कहा कि छात्रों को इस काम में आगे आना चाहिए और पत्र एवं मेल के ज़रिए विदेश मंत्रालय को अपनी राय पहुंचानी चाहिए. प्रजातंत्र को अगर बचाना है तो शशि थरूर जैसे नेताओं का मज़बूत होना ज़रूरी है. भारत में प्रजातांत्रिक विकास तभी होगा, जब सरकारी नीति देश की जनता की आशा एवं अपेक्षाओं के मुताबिक़ हो. उनकी भागीदारी हो. इंटरनेट का इस्तेमाल करके अगर कोई नेता या मंत्री यह काम करने की शुरुआत करता है तो उसे मा़फी मांगने की ज़रूरत नहीं है. कम से कम देश का एक तो मंत्री ऐसा है, जो जनता से सीधे बात करने की हिम्मत रखता है. शशि थरूर की आवाज़ को बंद करने का मतलब प्रजातांत्रिक विकास का गला घोटने के  बराबर है.
शशि थरूर ने जैसे ही पार्टी और सरकार की नीतियों पर अपनी प्रतिक्रिया दी, मानो हड़कंप मच गया. कांग्रेस और दूसरे दलों को शशि थरूर का स्वागत करना चाहिए. खासकर विभिन्न दलों के युवा नेताओं को शशि का साथ देना चाहिए कि वे बेझिझक पार्टी और पार्टी लाइन के बंधन को पार कर अपनी बात रखते हैं. उस अधिकार का उपयोग करते हैं, जो हमारे संविधान ने दिए हैं. विचारों का स्वतंत्र आदान-प्रदान ही तो प्रजातंत्र का असली रूप है. अ़फसोस इस बात का है कि ज़्यादातर नेताओं और पार्टियों को लगता है कि विषयों को गुप्त रखना, पार्टी संगठन की सार्वभौमिकता, पार्टी लाइन की हद और अपनी विचारधारा को सर्वोपरि मानना ही सरकार चलाने का मूलमंत्र है. वे प्रजातंत्र को विरोध और वाद-विवाद का मंच नहीं मानते. हमारे देश के राजनीतिक दलों का विकास उस स्तर तक नहीं हो पाया है, जहां पार्टी के  अंदर और पार्टी लाइन के बाहर के  विरोध को सहज रूप में स्वीकार कर लिया जाए. विरोध को किस स्तर तक बर्दाश्त किया जाए, नई पीढ़ी के नेताओं के सामने यह एक चुनौती होगी.
इसके साथ ही हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इंटरनेट हमारे देश के गांवों तक नहीं पहुंचा है, इसलिए असली भारत में रहने वाले लोगों की बात इन साधनों द्वारा सरकार तक नहीं पहुंच सकती है. अब सरकार पंचायतों को इंटरनेट से जोड़ने की तैयारी कर रही है तो इसके  ज़रिए ग्रामीण जनता भी अपनी भूमिका निभा सकती है. इसलिए फिलहाल यह एक अच्छी शुरुआत है.
प्रजातंत्र की एक और खासियत है कि यह जनता और सरकार की दूरियों को खत्म करता है. इसके लिए ज़रूरी है कि सरकार के पास ऐसे माध्यम हों, जिनसे दूरियां खत्म हो सके. इंटरनेट ऐसा ही माध्यम है. यह टीवी की तरह नहीं है, जो स़िर्फ नेताओं के भाषण सुना सकती है. शशि थरूर की तरह भारत सरकार को भी ऐसी नीतियां बनानी चाहिए, जिससे सरकार एवं जनता के बीच संवाद स्थापित हो और दोनों ही अपनी बातों को सा़फ-सा़फ रख सकें. ऐसा करने से जनता को यह लगेगा कि देश की नीतियों को तय करने में उसकी भी भागीदारी है. इससे सरकार की विश्वसनीयता तो बढ़ेगी ही, पारदर्शिता में भी इज़ा़फा होगा. यही प्रजातंत्र को मज़बूत करने का मूलमंत्र है. इंटरनेट पर टि्‌वटर जैसी साइट्स के इस्तेमाल से हमारे अधिकारी और नेता अपनी बात लोगों तक पहुंचा सकते हैं. साथ ही लोगों की प्रतिक्रिया से भी वाक़ि़फ हो सकते हैं. ज़रूरत इस बात की है कि हमारे नेता और अधिकारी सरकारी फैसले में जनता की भागीदारी को महत्व दें. समय बदल रहा है. परिवर्तन की इस लहर का स्वागत होना चाहिए, क्योंकि यह एकमात्र रास्ता है. और, जो लोग ऐसा नहीं चाहते हैं, वे नई पीढ़ी के इस विजय रथ को हाथ पर हाथ रखकर देखते रह जाएंगे.

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