इसमें कोई शक़ नहीं है कि फिलहाल देश में सबसे बड़ा मुद्दा समलैंगिकता है. समलैंगिक संबंधों को वैध-अवैध करार देने की इस बहस के मायने बहुत बड़े हैं. यह मुद्दा केवल हमारे देश के क़ानून का नहीं है, इसका असर देश की संस्कृति और तौर-तरीक़ों पर पड़ने वाला है. इस मुद्दे को केवल क़ानूनी दांव-पेंचों में उलझाकर देखना बहुत बड़ी भूल साबित हो सकती है.
यह हमारी संस्कृति और धर्म से भी जुड़ा है. इसलिए स़िर्फ क़ानूनी ही नहीं सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टिकोणों की भी अनदेखी नहीं होनी चाहिए. इन्हीं दृष्टिकोणों से जनता और मीडिया को वाक़ि़फ कराने के लिए विभिन्न धर्मों के धर्मगुरु वर्ल्ड फेलोशिप ऑफ रिलिजंस के बैनर तले इकट्ठा हुए. भारत के बड़े धर्मों के धर्मगुरुओं ने इस मौके पर उपस्थित होकर मीडिया के माध्यम से अपना मत स्पष्ट रखा है. उन्होंने कहा कि इस मुद्दे को और इसके परिणामों को समझे बिना इसका समर्थन सही नहीं होगा. इस मुद्दे को व्यक्तिगत आज़ादी से जोड़ना ग़लत है. जो बिना समझे इसके साथ हैं, उन्हें इसके पहलुओं से पहले यह समझना ज़रूरी है कि आख़िर ट्रांस-सैक्सुअल्स और होमो-सैक्सुअल्स के बीच का अंतर क्या है. ट्रांस-सैक्सुअल्स वे लोग हैं जो अलग शारीरिक प्रवृत्ति और दोहरी सैक्सुअलटी वाले होते हैं, जबकि होमोसैक्सुअल वैसे लोग हैं, जो पुरुष या महिला के तौर पर पैदा होते हैं. साथ ही सेक्सुअलिटी की पवित्रता बनाई रखनी चाहिए, क्योंकि इसका संबंध ब्रह्म से है, यह ऐसी प्रक्रिया है जिससे जीवन की उत्पति होती है, और इस पावन प्रक्रिया को महज़ मनोरंजन और ख़ुद की इच्छा पूरा करने का एक साधन मात्र बना देना इसके महत्व को घटाना होगा. इस मौके पर हिंदू, बौद्ध, जैन, क्रिश्चियन धर्मों के प्रतिनिधियों ने अपने विचार रखे और यह साफ किया कि वे क्यों समलैंगिकता को वैध ठहराने के फैसले का विरोध कर रहे हैं. इस अवसर पर पुरुषोत्तम मुलोली (समन्वयक, जैक इंडिया), डॉ. के के अग्रवाल (अध्यक्ष, हार्ट केयर फाउंडेशन ऑफ इंडिया) और एन के नौटियाल (प्रमुख, महाराष्ट्र हिंदू अकादमी) भी उपस्थित थे. इन धर्मगुरुओं को अन्य धर्मों जैसे इस्लाम, यहूदी, पारसी, सिख आदि धर्मों के प्रतिनिधियों का भी समर्थन मिला है.
पुरुषोत्तम मुलोली – प्रतिनिधि, समन्वयक (जैक इंडिया)
पिछले कुछ दिनों में इस मामले से जुड़ी जो ख़बरें आ रही हैं, उनमें दो बातें मुख्य रूप से कही गई हैं. पहली बात जो कही जा रही है वह यह है कि धारा 377 का क़ानून 150 साल पहले का एक ब्रिटिश क़ानून है. यह बात पूरी तरह से सही नहीं है. हर क़ानून की तरह इस क़ानून की भी समीक्षा की गई है और कई आयोगों ने इसकी ज़रूरत को परखा है. इसे बचाए रखने की ज़रूरत भी महसूस की गई है. इस बात को मीडिया ने नज़रअंदाज़ किया है और मैं उम्मीद करता हूं कि वे इस बात को सही तरीक़े से सामने रखेंगे. दूसरी बात हो रही है- ग़ैर-अपराधीकरण की. मुझे यह समझ में नहीं आता है कि आख़िर इसका मतलब क्या है, क्योंकि जब अपराधीकरण ही नहीं हो रहा तो ग़ैर-अपराधीकरण कैसा? अजीब बात है कि इस पूरे मामले में अपराधीकरण का एक भी उदाहरण वादी की ओर से नहीं मिल पाया. धारा 377 में कहीं भी समलैंगिकता या एमएसएम की बात नहीं है. क़ानून में साफ-साफ कहा गया है – पुरुष, महिला या जानवर के साथ अप्राकृतिक संबंध. यह क़ानून कहीं भी किसी के ख़िला़फ नहीं है. मैं इस मामले पर लंबे समय से लड़ता रहा हूं, 2004 में इसी दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस मामले को ख़ारिज़ किया था और जब अपील सर्वोच्च न्यायालय में गई तो जैक इंडिया को उसमें रेस्पांडेट बनाने का आदेश न्यायालय ने दिया. मुझे दुख के साथ यह भी कहना पड़ता है कि मीडिया ने भी इस मामले में अधूरा काम किया है. 2004 में जब यह मामला ख़ारिज़ हुआ था तो किसी ने भी इस बात को नहीं दिखाया था. लेकिन आज इस मुद्दे को हाथों हाथ लिया जा रहा है. हालांकि किसी रेस्पांडेंट को मीडिया ने अपनी बहसों में नहीं बुलाया है. मेरी अपील है कि आप सभी पहलुओं को देख कर रिपोर्टिंग करें.
किसी भी सभ्यता में जब संकट आता है तो कुछ चीज़ें ज़रूर सामने आती हैं. समलैंगिकता, नशाखोरी, गैंगवार जैसे ट्रेंड उभर कर आते हैं. भारत में ये बातें विदेशी रास्ते से आ रही हैं. मेरा मानना है कि इस पूरे मामले में एक बहुत बड़ा बाज़ार शामिल है, जो इसे चला रहा है. न्यायालय में चल रही लड़ाई तो बस एक पहलू है, पूरा मामला बहुत बड़ा है. मेरी अपील है कि अगर आप भारतीय परिवार व्यवस्था में यक़ीन रखते हैं तो आप इस पूरे मामले को समझें और सोच-समझकर सही फैसला लें.
-डॉ. साध्वी साधना जी महाराज – अध्यक्ष, वर्ल्ड फेलोशिप ऑफ रिलिजंस और प्रतिनिधि (जैन धर्म)
जैन धर्म में संयम पर ख़ास ज़ोर दिया गया है और संयम खोने की स्थिति में होने वाले दुष्परिणामों का भी वर्णन किया गया है. अप्राकृतिक संबंध उसी तरह की स्थिति है. समलैंगिकता के पैरोकार हमें इतिहास के उदाहरण देते हैं, लेकिन आप ही बताएं क्या
अपवादों के आधार पर पूरे समाज के लिए नियम बनाए जाएंगे. आप ये बताएं कि जिस समलैंगिकता का समर्थन किया जा रहा है उसे आप के बच्चे या परिवार के लोग अपनाने लगें तो क्या आप उन्हें स्वीकार करेंगे. अगर आप इसके परिणामों पर ग़ौर करेंगे तो आप देखेंगे कि समलैंगिकता को वैधता देने का जो प्रयास हो रहा है, वह कितना ग़लत है. पारिवारिक व्यवस्था को मानने वाले लोग इस बात को स्वीकार नहीं कर सकते, क्योंकि यह हमारी संस्कृति को खोखला कर देगी.
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