मीडिया को कथित तौर पर लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है. मीडियाकर्मियों की तीखी नज़र जहां सबसे अधिक गड़ती है, वह है हमारी संसद में हंगामे और हो-हल्ला का नजारा. भारतीय मीडिया, चाहे वह प्रिंट की पत्रकारिता हो या टीवी की, संसद सदस्यों की खिंचाई करने के मामले में एकजुट नज़र आता है. संसद के शोर और सांसदों के बर्ताव से हो रहे नुकसान, वह आर्थिक हो या राजनीतिक, को सामने लाने में मीडिया बड़ा तत्पर दिखता है. ऐसे में जब इन पत्रकारों में से कोई संसद में पहुंचता है, तो उससे उम्मीद होती है कि वो संसद को लेकर अपनी पुरानी आलोचना की कसौटी को ध्यान में रख कर काम करे. जाहिर तौर पर अब उसे दो खंभों का काम करना होता है. चौथा खंभा तो वह था ही, सांसद होने के बाद उसकी ज़िम्मेदारी और बढ़ जाती है. लेकिन ऐसा हो नहीं पाता. पत्रकारिता की पृष्ठभूमि से संसद में आए लोगों पर एक नज़र डालें तो दिखाई देता है कि संसद पहुंचते ही इनका अब तक का सारा कहा, बोला और लिखा हुआ एक धोखा था, छल था, कपट था.
राज्यसभा में कई सांसद हैं, जो पत्रकारिता की पृष्ठभूमि से आए हैं या मनोनीत किए गए हैं. ऐसे सांसद अब भी हमारी संसद में हैं और हमेशा से आते रहे हैं, लेकिन इन सदस्यों के आंकड़ों पर नज़र डालें, तो साफ हो जाता है कि प्रदर्शन के नाम पर ये फिसड्डी ही रहे. पायनियर के पूर्व संपादक और मालिक चंदन मित्रा पत्रकार के तौर पर भले ही दिग्गजों में गिने जाते हैं, लेकिन राज्यसभा में उनका प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा है. पिछले पांच सालों के उनके कामकाज पर बात की जाए, तो उन्होंने इस दौरान महज़ 12 सवाल पूछे. इनमें से बस दो सवाल ही तारांकित सवाल थे. वहीं बस एक बार ही उन्होंने विशेष ध्यानाकर्षण प्रस्ताव रखा. जाहिर है, चंदन मित्रा साहब को सियासी बिसात पर गोटियां बिछाने से फुर्सत मिले, तब तो वह संसद के कामकाज में शिरकत करें. हालांकि राजनीति में भी वह मिट्टी ही पलीद करते हैं. ताज़ा उदाहरण उड़ीसा का है, जहां उन्होंने भाजपा का खेल ही बिगाड़ दिया. चंदन मित्रा से भी बुरा हाल भाजपा के अरुण शौरी का है. एक ज़माने में चोटी के पत्रकार रहे अरुण शौरी के बारे में राज्यसभा वेबसाइट की मानें, तो उन्होंने आखिरी बार 1998 में सवाल पूछा था. वह भी केवल दो बार और कोई विशेष ध्यानाकर्षण प्रस्ताव भी नहीं रखा. हालांकि अरुण शौरी इसके बाद केंद्र में मंत्री भी रह चुके हैं. लेकिन सांसद के तौर पर उनका लेखा-जोखा निराश ही करता है.भाजपा के ही बलबीर पुंज भी पत्रकारिता से जुड़े रहे हैं. 2008 में वह राज्यसभा के लिए फिर से चुने गए. वह 2002-2007 के दौरान भी राज्यसभा सदस्य रह चुके थे. उस दौरान उन्होंने बस तीन विशेष ध्यानाकर्षण प्रस्ताव रखे. 2008 में सदस्य चुने जाने के बाद सांसद कोटे से मिली राशि का कोई इस्तेमाल उन्होंने अब तक नहीं किया है.
निकम्मेपन में हमारे पत्रकार बंधु दलगत भेदभाव से ऊपर हैं. पत्रकारिता से राजनीति में आए बड़े नामों में कांग्रेस के राजीव शुक्ला भी हैं. राजीव शुक्ला ने 2002 से अब तक 12 विशेष प्रस्ताव रखे हैं. जितनी बार वह रोज़ाना टीवी पर दिख जाते हैं, उसके मुकाबले यह संख्या कैसी है, आप खुद सोच सकते हैं. हां, वैसे माननीय राजीव जी आईपीएल मैचों के दौरान सूट-बूट से लैस अधिकतर वेन्यू पर नज़र आ जाते हैं. ग़लती वैसे राजीव जी की क्या कही जाए… अब नवयौवना चीयर लीडरानियों को छोड़ कर कौन बूढ़े लीडरों के बगल में जाकर बैठे. (कौन जाए ज़ौक अब दिल्ली की गलियां छोड़ कर…)
इन सभी राज्यसभा सदस्यों में किसी ने कोई बड़ा मेंबर बिल भी पेश नहीं किया. इनके अलावा पत्रकारिता के कई बड़े नाम सीधे राजनीतिक तौर पर या मनोनीत होकर संसद में आते रहे हैं. लेकिन इस समय कोई ऐसा नाम नहीं दिखता, जो उन मानकों का उदाहरण प्रस्तुत कर सके, जिनकी मांग मीडिया करता रहा है. पिछले आठ सालों में 25 बार राज्यसभा में बड़ी बहस हुई, याद नहीं आता कि ऐसी किसी बहस के दौरान इन सदस्यों ने कोई बड़ा मुद्दा उठाया हो, या किसी सदस्य ने कोई यादगार भाषण दिया हो. समझ में नहीं आता कि मीडिया में रह कर संसद के गिरते स्तर का रोना रोने वाले ये पत्रकार आखिरकार वहां पहुंच कर अपनी धार कहां भूल जाते हैं. क्या मीडिया में रहने पर की गई उनकी टिप्पणियां महज़ एक दिखावा थीं? मीडिया को सबसे पहले अपने इन धुरंधरों की नकेल कसनी होगी.
संसद पहुंच कर क्यों बेजुबान हो जाते हैं पत्रकार
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