मोदी सरकार द्वारा लागू किए गए भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के विरोध के संदर्भ में बीते दो अप्रैल को दिल्ली के कंस्टीट्यूशन क्लब में जनसंगठनों और विभिन्न राजनीतिक दलों की एक बैठक हुई, जिसमें निर्णय लिया गया कि देश में हर स्तर पर सभी संगठन मिलकर विरोध प्रदर्शन करेंगे. बैठक ़खत्म होने के अगले ही दिन सरकार एक बार फिर भूमि अधिग्रहण अध्यादेश ले आई. बैठक में प्रस्ताव पारित किया गया था कि यदि सरकार दोबारा अध्यादेश लेकर आती है, तो छह अप्रैल को देश भर में अध्यादेश की प्रतियां जलाकर सांकेतिक तौर पर विरोध किया जाएगा. दिल्ली के जंतर-मंतर पर पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार नए अध्यादेश की प्रतियां जलाई गईं, जिसमें तक़रीबन 40-50 लोगों ने हिस्सा लिया. कार्यक्रम में जनसंगठनों और वामदलों के कार्यकर्ता तो मौजूद थे, लेकिन उन अन्य राजनीतिक दलों के नुमाइंदे या कार्यकर्ता नज़र नहीं आए, जिन्होंने दो अप्रैल की बैठक में क़दम से कदम मिलाकर चलने का वादा किया था.
उदाहरण के लिए, जनता दल (यू) का कार्यालय जंतर-मंतर पर ही है. पार्टी कार्यालय के ठीक सामने अध्यादेश की प्रतियां जलाने का कार्यक्रम हुआ, लेकिन जद (यू) का कोई नुमाइंदा वहां मौजूद नहीं था. कंस्टीट्यूशन क्लब में जनसंगठनों के साथ संवाद कार्यक्रम में राज्यसभा सांसद केसी त्यागी ने कहा था कि उनकी पार्टी संसद से सड़क तक भूमि अधिग्रहण के मसले पर आंदोलनकारियों के साथ है, लेकिन उनके अपनी पार्टी के ऐसे किसी भी कार्यक्रम में शिरकत करने की कहीं से कोई ़खबर नहीं आई. उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में किसान मोर्चा ने भूमि अधिग्रहण अध्यादेश का विरोध किया. बड़ी संख्या में किसानों ने हजरतगंज स्थित गांधी प्रतिमा पर एकत्र होकर केंद्र सरकार द्वारा लागू भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के ़िखला़फ प्रदर्शन किया और उसे वापस लेने की मांग की. इसी तरह लखीमपुर खीरी एवं बनारस में विरोध प्रदर्शन आयोजित हुए. मध्य प्रदेश के सीधी, मझौली, सिंगरौली, ग्वालियर एवं छिंदवाड़ा में जगह-जगह प्रदर्शन हुए. राजस्थान के भीलवाड़ा में राजस्थान किसान कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने मौन जुलूस निकाला और मुख्यमंत्री को संबोधित ज्ञापन जिलाधिकारी को सौंपा.
दरअसल, लीडरशिप इस आंदोलन में सबसे बड़ी समस्या बनकर सामने आ रही है. मध्य प्रदेश के सीधी ज़िले में भूमि अधिग्रहण के ़िखला़फ लंबे समय से सक्रिय उमेश तिवारी ने कहते हैं, हमें जब कभी देश भर में भूमि अधिग्रहण विरोधी आंदोलन के संबंध में नीतिगत विचार-विमर्श के लिए बुलाया जाता है, तो हम वहां पहुंचते हैं. वहां जो भी निर्णय होते हैं, उन पर हम लौटते ही काम करना शुरू कर देते हैं. लेकिन, अचानक उन कार्यक्रमों एवं योजनाओं में बदलाव हो जाता है. उदाहरण के लिए, हम भूमि अधिग्रहण विरोधी आंदोलन की योजनाओं के संबंध में वर्धा गए. वहां से अन्ना हजारे के नेतृत्व में पीवी राजगोपाल की एकता परिषद की पदयात्रा शुरू हुई, लेकिन अन्ना जी ने बीच में वह यात्रा स्थगित कर दी. ऐसी स्थिति में समझ में नहीं आता है कि कार्यक्रम अथवा योजना स्थगित करने के निर्णय अचानक कैसे ले लिए जाते हैं? ऐसे में किसानों और आंदोलन से जुड़े लोगों के बीच ग़लत संदेश जाता है.
ग़ौरतलब है कि अन्ना हजारे को जंतर-मंतर पर 23-24 फरवरी को हुए आंदोलन का चेहरा बनाया गया था. वर्धा तक अन्ना हजारे उससे जुड़े रहे, लेकिन राजनीतिक दलों के साथ हुए संवाद के कार्यक्रम का वह (अन्ना) हिस्सा नहीं थे. अन्ना के संबंध में जब मेधा पाटकर से पूछा गया, तो उन्होंने कोई सा़फ-सा़फ जवाब नहीं दिया. गोविंदाचार्य के भूमि अधिग्रहण विरोधी आंदोलन से जुड़ने की वजह से ही अन्ना के साथ अन्य राजनीतिक दल काम नहीं करना चाहते हैं. कंस्टीट्यूशन क्लब में भी इस आंदोलन को सेक्युलर बनाए रखने की बात भी कई बार कही गई थी. यदि अन्ना इस आंदोलन से अब भी जुड़े होते, तो छह अप्रैल को अध्यादेश की प्रतियां जलाकर विरोध करने का कार्यक्रम रालेगण सिद्धी में भी आयोजित होता, लेकिन ऐसी कोई सूचना नहीं आई. यही नहीं, दो अप्रैल को ही अन्ना समर्थकों की एक बैठक दिल्ली के आईटीओ स्थित एनडी तिवारी भवन में आयोजित न हुई होती, जिसे अन्ना ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिये संबोधित किया था.
दूसरी बात यह है कि आंदोलन से संबद्ध सभी संगठनों के बीच घोर संवादहीनता (कम्युनिकेशन गैप) है. कोई भी संदेश लोगों तक सही तरीके से नहीं पहुंच पा रहा है. देश भर में जिन जगहों पर भी अध्यादेश की प्रतियां जलाने के कार्यक्रम आयोजित हुए, वहां किसान नदारद रहे. ऐसे में आशंका पैदा होती है और सवाल भी उठता है कि जिन लोगों के नेतृत्व में भूमि अधिग्रहण विरोधी लड़ाई लड़ी जा रही है, उनकी पहुंच किसानों तक है या नहीं? किसान भी प्रकृति की मार से परेशान हैं. उनके सामने फिलहाल बारिश और ओले की वजह से हुए नुक़सान की चिंता ज़्यादा है. उनके पास इसके अलावा फिलहाल किसी और बारे में सोचने का न तो समय है और न वे किसी आंदोलन में शामिल होना चाहते हैं. और, जब तक किसान सीधे तौर पर इस आंदोलन से नहीं जुड़ेगा, तब तक इसमें तेजी नहीं आएगी और न सरकार अपने क़दम पीछे खीचेंगी. इसके लिए किसानों एवं जनसंगठनों को अपनी पहचान और अपनी पसंद-नापसंदगी से आगे बढ़कर ईमानदारी से एक साथ आवाज़ उठानी होगी. यदि ऐसा नहीं हुआ, तो सांप निकल जाएगा और किसान लकीर पीटते रह जाएंगे.
वाम मोर्चा ने कसी कमर
मोदी सरकार के नए भूमि अधिग्रहण अध्यादेश और आलू किसानों की मौत पर ममता सरकार के ़िखला़फ वाम मोर्चा ने सात अप्रैल को कोलकाता में महाजुलूस निकाला. वाम मोर्चा के चेयरमैन विमान बोस के नेतृत्व में महाजाति सदन से शुरू हुए इस महाजुलूस में माकपा, भाकपा, आरएसपी, सीपीआई एवं फॉरवर्ड ब्लॉक के सहित सभी घटक दलों ने हिस्सा लिया. वाम मोर्चा नेताओं ने कहा कि सरकार ने पहले तो लोकसभा में ग़लत तरीके से भूमि अधिग्रहण संशोधन बिल पास कराया और उसके बाद वह दोबारा अध्यादेश लेकर आई. उन्होंने सोनिया गांधी के नेतृत्व में चल रहे भूमि अधिग्रहण विरोधी आंदोलन का भी समर्थन किया.
सड़क पर उतरीं ममता
नए भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के ़िखला़फ तृणमूल कांग्रेस ने अपनी प्रमुख और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के नेतृत्व में आठ अप्रैल को कोलकाता के मौलाली मोड़ से गांधी मूर्ति तक जुलूस निकाला. कोलकाता नगर निगम और प्रदेश में निकाय चुनाव से ठीक पहले तृणमूल कांग्रेस की इस धिक्कार रैली को निगम चुनावों से भी जोड़कर देखा जा रहा है. सिंगुर में टाटा के लिए हुए भूमि अधिग्रहण के ़िखला़फ आंदोलन करके ही ममता बनर्जी राज्य की सत्ता पर काबिज हुई थीं. इसलिए वह इस मुद्दे को किसी भी क़ीमत पर नहीं छोड़ना चाहती हैं. तृणमूल कांग्रेस के सांसद पहले ही संसद में भूमि अधिग्रहण अध्यादेश का विरोध करते रहे हैं. रैली में शामिल हुए लोगों ने काली पट्टी बांधकर विरोध जताया. रैली से ठीक पहले राज्य के शिक्षा मंत्री एवं तृणमूल कांग्रेस के प्रदेश महासचिव पार्थ चटर्जी ने मीडिया को बताया कि भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को उनकी पार्टी स्वीकार नहीं करेगी. उन्होंने कहा कि जैसे ही अध्यादेश के ़िखला़फ ममता बनर्जी के नेतृत्व में सड़क पर उतरने का ऐलान किया गया, पार्टी मुख्यालय में सीबीआई का फोन आ गया. लेकिन, सीबीआई के नाम पर हमें डराया नहीं जा सकता.
दरअसल, पश्चिम बंगाल में आलू की बंपर पैदावार हुई है, लेकिन उसका सही दाम न मिलने की वजह से किसान आत्महत्या कर रहे हैं. जबकि प्रदेश सरकार इसे सही कारण नहीं मानती. किसानों के हितों की बात करने वाली तृणमूल कांग्रेस भूमि अधिग्रहण का विरोध कर रही है, लेकिन आलू किसानों पर लाठीचार्ज करा रही है. पिछले महीने से लेकर अब तक प्रदेश के 10 से ज़्यादा किसानों द्वारा आत्महत्या किए जाने की ़खबरें आ चुकी हैं. ममता बनर्जी ने रैली को संबोधित करते हुए कहा कि केंद्र सरकार न तो अच्छी है और न विश्वसनीय. सरकार को भूमि अधिग्रहण अध्यादेश वापस लेना चाहिए. उन्होंने कहा कि यदि कोई केंद्र सरकार के ़िखला़फ आवाज़ उठाता है, तो उसकी आवाज़ दबा दी जाती है. उसे सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय और एनआईए द्वारा धमकियां दी जाती हैं. पिछली बार जब केंद्र सरकार अध्यादेश लाई थी, तब ममता बनर्जी ने कहा था कि नरेंद्र मोदी के शासनकाल में परिस्थितियां आपातकाल से भी बदतर हैं. उनकी सरकार किसी भी स्थिति में यह अध्यादेश अपने राज्य में लागू नहीं करेंगी. अध्यादेश को उन्होंने काला क़ानून और किसानों के साथ अन्याय बताते हुए इसका विरोध करने की बात कही थी.
आंदोलन किसी पार्टी के विरोध में नहीं: अन्ना
समाजसेवी अन्ना हजारे ने सात अप्रैल को ब्लॉग लिखकर बताया कि उनका भूमि अधिग्रहण बिल आंदोलन किसी पार्टी या पक्ष के विरोध में नहीं है. यह आंदोलन व्यवस्था परिवर्तन और किसानों की भलाई के लिए है. उन्होंने लिखा कि प्रकृति और मानवता का दोहन (शोषण) करके किया गया विकास शाश्वत विकास नहीं होगा. ऐसे विकास से कभी न कभी विनाश होगा. सरकार भूमि अधिग्रहण क़ानून बदल कर किसानों की ज़मीन बड़े पैमाने पर लेकर उस पर उद्योग लगाने की सोच रही है. ऐसा समझ में आया है कि 63,974 किलोमीटर रेलवे लाइन के दोनों तऱफ की एक-एक किलोमीटर ज़मीन, 92,851 किलोमीटर लंबे राष्ट्रीय राजमार्ग के दोनों तऱफ एक-एक किलोमीटर ज़मीन और 1,31,899 किलोमीटर लंबे राज्य महामार्गों के किनारे की ज़मीन अधिग्रहीत करके उन पर औद्योगिक कॉरिडोर बनाने की बात सरकार सोच रही है.
अन्ना ने कहा कि सरकार देश में औद्योगिक क्षेत्र का विस्तार न करे, ऐसा हम नहीं चाहते हैं, लेकिन औद्योगिक क्षेत्र बढ़ाने से ही देश का सही विकास होगा, यह सोच ठीक नहीं है. सरकार को औद्योगिक और कृषि क्षेत्र के बीच संतुलन रखना चाहिए. जितना औद्योगिक क्षेत्र पर पैसा खर्च होता है, उतना ही कृषि क्षेत्र पर भी खर्च किया जाना चाहिए. रा़ेजगार सृजन के लिए प्रकृति के दोहन की ज़रूरत नहीं. उन्होंने कहा कि 1500 लोगों के हाथों को काम देने के लिए कंपनी स्थापित करने में कृषि से कई गुना ज़्यादा खर्च आता है, प्रकृति का दोहन होता है और प्रदूषण भी बढ़ता है. स़िर्फ उद्योगों से देश का भविष्य बदल जाएगा, यह सोच सही नहीं है.
उन्होंने कहा कि आज नहीं, लेकिन 50, 75, 100, 200 वर्षों के बाद औद्योगिकरण की वजह से समस्याएं बढ़ती जाएंगी. सौ-दो सौ वर्ष बाद उन समस्याओं का सामना हमारी आने वाली पीढ़ियों को करना होगा. इसलिए सरकार को स़िर्फ पांच साल नहीं, पांच सौ साल के बारे में सोच रखकर औद्योगिक और कृषि क्षेत्र के लिए नीतियां बनानी चाहिए. आज़ादी के 68 वर्षों बाद हमारे देश में जितनी औद्योगिक क्षेत्र में बढ़ोत्तरी हुई, उतना ही बेरोज़गारी का प्रश्न छूटता चला गया. औद्योगिकरण से जो पर्यावरणीय हृास हो रहा है, उसकी भरपाई कौन और कैसे करेगा? आज़ादी के बाद औद्योगिक क्षेत्र में जितना निवेश किया गया, यदि उतना पैदा कृषि क्षेत्र में लगता और पैदावार बढ़ाकर कृषि आधारित उद्योग लगते, तो बेरोज़गारी बहुत हद तक ़खत्म हो जाती तथा लोगों को अपने गांव में रोज़गार मिल जाता. यही नहीं, औद्योगिक क्षेत्र में रा़ेजगार से आज जो पैसा उन्हें मिलता है, उससे कहीं ज़्यादा मिलता. आज जबकि देश के सामने भूमि अधिग्रहण जैसा महत्वपूर्ण प्रश्न खड़ा है, ऐसे में कांग्रेस और भाजपा एक-दूसरे के ़िखला़फ आरोप-प्रत्यारोप में समय बिता रहे हैं. इससे पता चलता है कि देश के नव-निर्माण से ज़्यादा उन्हें सत्ता की चिंता है. बकौल अन्ना, हमारे ऊपर भी कई बार आरोप-प्रत्यारोप लगते हैं कि हमारा आंदोलन सरकार के विरोध में, पक्ष-पार्टी के विरोध में है. हमने पहले भी कई बार कहा कि हम किसी भी पक्ष, पार्टी, व्यक्ति के विरोध में आंदोलन नहीं करते. यह व्यवस्था परिवर्तन का आंदोलन है. कृषि प्रधान भारत में किसानों के साथ जो अन्याय हो रहा है, उसके विरुद्ध यह आंदोलन है. किसानों की भलाई के लिए यह आंदोलन है. ग़लत निर्णयों के चलते देश उद्योगपतियों के कब्जे में न चला जाए, इसलिए यह आंदोलन है. मुझे किसी से कभी वोट नहीं मांगना और न किसी से कुछ लेना है. जीवन में स़िर्फ सेवा करनी है. आज तक सेवा करता आया हूं और शरीर में जब तक प्राण हैं, तब तक करता रहूंगा.