बोधि प्रकाशन जयपुर से ‘त्रिपथ’ के नाम से तीन कवियों का कविता संकलन पिछले दिनों प्रकाशित हुआ है, जिसका संपादन और कविता चयन ब्रज श्रीवास्तव ने किया है, संपादक का कौशल सँग्रह में झांकता है। इस त्रिपथ (तीन पथ) के नाम से ख्यात संग्रह में तीन युवा कवि आनंद सौरभ उपाध्याय की 30, पद्मनाभ की 31 और मिथिलेश राय की 30 कविताएं सम्मिलित हैं । संग्रह में तीन खंड हैं, प्रत्येक खंड में कवि का आत्मकथ्य व प्रत्येक कवि पर संपादक की टिप्पणी भी लिखी गई है।
पहला खंड आनंद सौरभ उपाध्याय पर केंद्रित है। कवि खुद के बारे में लिखते हैं ‘आसपास की समस्याएं जिंदगी के रंग समाज में व्याप्त अंधविश्वास, भौतिकवादी दौड़, राजनीतिक उथल-पुथल मेरी कविताओं के लिए प्रेरक स्थिति पैदा करती हैं।’ ब्रज श्रीवास्तव ने आनंद सौरभ के बारे में लिखा है, ‘वह वस्तु तथा राजनीतिक और सामाजिक चिताओं के संभावनाशील कवि हैं ।'(पृष्ठ 15) आनंद स्वरूप की कविताएं अलग-अलग शिल्प में विभिन्न विषयों पर केंद्रित हैँ। उनकी कविताओं को हम कुछ शीर्षकों में बाँटकर बात करें तो सुविधा होगी।
कविता सदा ही मनुष्य की भावना और विचारों की कलात्मक अभिव्यक्ति मानी गयी है। कविता के बारे में आनंद की दो कविताएं हैं -कवि के हाथ की चाय (पृष्ठ 36 )और समीक्षक (पृष्ठ 44)
विचार और दर्शन प्रधान कविताओं के शीर्षक हैं, दुख ही जन्मा(17) तेरी मिट्टी (25) धारणा (33) मौन (35) बुराई (39)फ़िक्र (41) सच का संघर्ष (42) धुंधली याद (42-43) इंतजार (47) और मर्यादाहीन ।(48) मन में धीमे से प्रवेश पाती बुराई के बारे में कविता ‘बुराई’ का अंश दृष्टव्य है-आखिर/आकर बैठ गई/अंतर्मन में/कोई लगाव नहीं/कोई चाह नहीं/फिर भी/बचते बचाते/आ ही जाती/बुराई/और मैं/बुरा हो जाता…
कवि को वर्तमान व्यवस्था से जब क्षोभ होता है तो वह अपनी कविताओं में यह साफ प्रकट करते हैं । ऐसी कविताओं में कटी पतंग (18) कंधे (21) अपराधी (25) फटकार (27 )घटिया निर्माण (29) काला सच (30) मजबूरी का कारगर (45) कविताएं उनके क्षोभ को प्रकट करती हैं । सत्ताधीश व अहलकार को उसका हिस्सा दे के निर्माण करने वाला ठेकेदार भला गुणवत्तापूर्ण निर्माण कैसे करेगा,’घटिया निर्माण’ कविता देखिए-हिस्सों में सबका ख्याल/उछलकर शराफत की पगड़ी/वो रचते हैँ झूठ का संसार/और बनाते हैं हर बार/बूंद-बूंद टपकती छतें/छत के गिरने तक !
आनंद उपाध्याय प्रकृति से बहुत प्रेम करते हैं, वे जानते हैं कि प्रकृति और पर्यावरण का असंतुलन मनुष्य ने खुद पैदा किया है, जिसके परिणाम स्वरुप कभी बाढ़, कभी अति वर्षा तो कभी अकाल की हालत दरपेश होती है। प्रकृति से संबंधित आनंद की कविताएं बाढ़ (24)बाढ़ पीड़ित (38) और तरक्की (32) हैं।
आनंद सौरभ को कभी-कभी धार्मिक पाखंड और धार्मिक विद्वेष से क्षोभ होता है । कवि अपना ईश्वर ‘दुख से उपजा ईश्वर ‘ बताते हैं। धर्म से जुड़े हुए उनके विचार रचनागत रूप में पाठकों के सामने कविता के रूप में अमूमन आते हैं और उनकी इस तरह की कविताएं धर्मांधता (26) मेरे ईश्वर का जन्म (31) हमको देखने को मिलती है,एक अंश देखिए-ईश्वर का जन्म तो/मेरे दुखों के बाद हुआ/विषम परिस्थिति में
पुस्तकों के प्रति कवि को बहुत प्रेम है, वे कहते हैं कि किताबें अपना काम करना बंद नही करतीं,जबकि मनुष्य उनकी बेकदरी करता है। उन्होंने किताबें 1 व 2 शीर्षक से कविताएं लिखी हैं! (पृष्ठ 22 और 23) एक अंश देखिए-एक तुम हो कि/घर की साफ सफाई में/निकालते रहे उन किताबों को ही/जिन्हें पढ़कर सभ्य/हुए तुम/इतने सभ्य?/कि थोड़े लालच में रद्दी के भाव/बेच दिया/उन्हें।
स्त्रियों के बारे में उनकी लिखी कविता दुश्मन स्त्रियां (पृष्ठ 37) है । आनंद दूसरे कवियों से हटके कुछ अनूठे विषयों पर भी कविता लिखते हैं और इस तरह की उनकी कविता पाठक को प्रभावित करती है- पहिए की बात ( 19) संस्कार की हवा (पृष्ठ 40) आनंद स्वरूप की ऐसी ही कविताएं हैं। इस संग्रह के दूसरे हिस्से में पद्मनाभ पाराशर की कविताएं हैं आत्मकथ्य में पद्मनाम ने लिखा है ‘कविता के विषय और बिम्ब आपके आसपास ही बिखरे पड़े होते हैं, आवश्यकता होती है केवल संवेदना के गहरे तल पर पहुंचकर उन्हें महसूस करने की उनसे जुड़ने की।’ (51)संकलन के संपादक ब्रज श्रीवास्तव ने पद्मनाभ के बारे में लिखा है ‘प्रेम, स्त्री और सत्ता इस कविता के केंद्रीय पद कहे जा सकते हैं।'(53)
पद्मनाभ के भी कुछ अपने प्रिय विषय हैं, उनके अपने कुछ अनूठे विचार हैं । व्यवस्था के विरोध में वे चुप नहीं रहते , अपनी कविता के मार्फ़त, अपने रोष और असंतुष्टि को प्रकट करते हैं । उनकी कविता यह दौर तुम्हारे साथ है (पृष्ठ 56) कानून (पृष्ठ 62) कारण बताओ नोटिस (पृष्ठ 73) मुकदमा और वृक्ष (पृष्ठ 74) व्यवस्था (पृष्ठ 83) कला के प्रशंसक (पृष्ठ 86) ऐसी ही कविताएं हैं।’यह दौर तुम्हारे साथ हूं’ का अंश देखिए-अगर तुम गाय हो/तो मुद्दा बना देंगे/अगर तुम बैल हो/तो तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता/अगर तुम शेर हो/तो पिंजरा तैयार है/अगर तुम गूँगे हो/तो ये अच्छी बात है/यह दौर तुम्हारे साथ है।
अपने दार्शनिक विचारों को अनूठे ढंग से प्रकट करने वाले पद्मनाभ की कविताओं में एक तंज, एक रोष और क्षोभ दिखाई देता है। वे अनेक जगह अपने मौलिक विचार प्रकट करते हैं। उनकी कविता अपवित्र ( 64) सभ्यता के इतिहास की यात्रा पर चलना चाहते हो (प्रश्न 67) गर्भनाल (72) पहली मौत (75) में पत्थर हूं (पृष्ठ 81 ) मृत्यु मेरी प्रेयसी में (पृष्ठ 87) ऐसी कविताएं हैं। ‘मृत्यु’ कविता का अंश देखिए-जहां है कोई मुझसे चाहता है/मेरा शरीर एवं मुझसे जुड़े लाभ/पर वह स्वीकार करती/मुझे नि:शरीर/समेटती मुझे राख से/चाहती केवल मेरी आत्मा/उसकी यही आत्मीयता मुझे प्रिय है!
राजनीति भी पद्मनाभ के निशाने से हटी नहीं है, जब उन्हें राजनैतिक विचार और सत्ताधीश की कार्यवाहियों से क्षोभ होता है, तो वह आग उगलती कविता लिखते हैं। ऐसी कविताओं में सत्तानामा (57) आयरन कर्टेन (76 ) जंगल का नोटिस (77) और न्यू नॉर्मल (80) इस तरह के रोष को प्रकट करती हुई कविताएं हैं। सत्तानामा का अंश देखिए-आगे उसने भी भरोसा नहीं किया/किसी पर, सिवाय खुद के/न ही खुद/भरोसेमंद बना किसी के लिए/इसी ‘अ” भरोसे के भरोसे /वह एक/ताक़तवर राजा बना रहा!
अपनी प्राचीन परंपरा से मोह रखते हुए कवि ने बड़ी सशक्त कविता ‘बूढ़ा गांव ‘ कविता लिखी है (पृष्ठ 85) , इसका अंश देखिए-
मेरा गांव /जब भी अपने गांव से लौट कर आता हूं /स्मृतियों य और विस्मृतियों से भर जाता हूं/ कितना जवान था वो
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शायद वो समझ गया है कि/ वह अब अकेला ठूंठ सा ही रहने वाला है / किसी अनचाहे बुजुर्ग की तरह/ और गांव तो अब केवल एक जगह बन गया है /अपने यौवन की यादों को समेटे हुए/ जर्जर बुढ़ापे में सांस लेते हुए/ अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा में/ जिसकी किसी को खबर तक नहीं होगी/
प्रेम पर भी पद्मनाभ पाराशर ने डूब के कविता लिखी है, मुझे हर पल तैयार रहना पड़ता है ( 55) मृत्यु मेरी प्रेयसी (पृष्ठ 87 ) उनकी प्रेम संबंधी कविताएं हैं’ तुम मुझे प्रेम करते हो/गणित लगाते हो/मैं अंधी होकर प्रेम करती हूं!
आम आदमी के दुख दर्द को प्रकट करते पद्मनाभ अपनी करुणा और सारे तर्क आम आदमी के पक्ष में ही खड़े करते हैं, तमाम लीफ आम मजदूर को काम नही डेरे बल्कि उसे हक की लड़ाई, धर्म की रक्षा और जाति के नाम पर बरगला कर अपने जुलूस में शामिल कर लेते हैँ। उनकी ‘आम आदमी’ से जुड़ी कविताएं हैं -हौसला (57) झंडे (66) पूंजीवाद (69) काश मैं तुमसे दोस्ती कर पाता (प्रश्न 90)। झंडे का यह अंश देखें-सुबह सुबह/मजदूर निकला/काम की तलाश में/रोटी की आस में
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पहले चौराहे पर/कुछ लोग लाल झंडे लिए खड़े थे/हमारे साथ चल /हम तेरे हक की लड़ाई लड़ रहे हैं
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अगले चौराहे पर/कुछ लोग भगवा लिए खड़े थे/ वे बोले/हम धर्म रक्षक हैं/तेरे धर्म की रक्षा करेंगे
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उस से अगले चौराहे पर/कुछ औऱ लोग/भीम-भीम लिखे झंडों के साथ खड़े थे/वे बोले/तू दलित है इसलिए शोषित है/हम तेरे सामाजिक हिट को साधेंगे
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जब लौटा थका हारा/तब उसके पास पैसे तो नही थे/पर भोजन के चार पांच पैकेट जरूर थे!
पर्यावरण से जुड़ी कविताओं में पेड़ का विश्वासघात (पृष्ठ 78) भी उल्लेखनीय है। क्लासिक ग्रंथ या शास्त्रीय पुस्तक से अनुराग प्रकट करती और उसके प्रति निष्ठा बताती कविता काश मुझे पढ़ लिया होता(59) उन्होंने लिखी है, तो स्त्री की संवेदना उसके दुख दर्द और अनुभूतियों को प्रकट करती उनकी कविता देह(60) स्त्रियों ने रची है सभ्यता यह (पृष्ठ 82) पठनीय है। कविता के बारे में कवि बहुत गम्भीर हैं, इस विषय मे ‘नहीं लिखी कोई कविता'(58) जैसी कविता में वे कविता और उसके सृजन के बारे में लिखते हैं, – कई दिनों से नहीं लिखी कोई कविता/ ऐसा नहीं है कि मेरी लेखनी की आग बुझ गई है/ या कि मेरे विषय चुक चुके हैं/ अथवा मेरी संवेदना समाप्ति की ओर है
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मुझे एहसास होने लगा कि/
मेरा लिखा किसी अखबार में छपेगा /और फिर अंततः अपनी नियति को/कोस रहा होगा/ किसी रद्दी के कूड़े दान में (58)
कुछ विशिष्ट विषयों पर कविता रचने का जुनून पद्मनाभ पाराशर को भी है, और इस तरह की उनकी कविताओं में विलोम (प्रश्न 65) पहली मौत (पृष्ठ 75) भूगोल की भयावहता (प्रश्न 89 )को याद किया जा सकता है। कवि विचार और दर्शन के अच्छे कवि हैं।
इस संग्रह के तीसरे खंड के कवि हैं मिथिलेश राय, उन्होंने आत्मकथ्य में लिखा है ‘मैं भूख, गरीबी, शोषण, अत्याचार ,जाति, नस्ल भेद पर कविता लिखते हुए प्रेम और सुंदरी को परे हटाकर नहीं देखता, क्योंकि दोनों ही जीवन के जरुरी हिस्से हैं।( पृष्ठ 96) मिथिलेश की कविताओं में के बारे में संपादक ब्रज श्रीवास्तव ने लिखा है ‘मिथिलेश की कविता में विषयों और अनुभवों की विविधता है, इसलिए उनके पास कविता के भरे पूरे संसार का एक प्रतिदर्श है।( पृष्ठ 97 )
मिथिलेश के सरोकार समाज के सब पक्षों से हैं, सारे संसार से हैं। गांव और पुरानी परंपरा के बारे में जब कविता लिखते हैं, तो अपनी आत्मीयता उड़ेलT देते हैं, उनकी ऐसी कविताओं में गमछा (107) तुम (109) नदी (113) ओ मेरी मिट्टी (122) और कोयल (122 ) । किताबों के महत्व बारे में मिथिलेश भी सुपरिचित हैं , उनकी कविता किताब (प्रश्न 114) में वे किताब को सम्बोधित हो कर कहते हैँ- तुम्हीं ने सिखाया हर मुश्किल /समय की बारहखड़ी पढ़ना/ और कसकर थामें रहना धैर्य की डोर/
सिखाया तुम्हीं ने खूब और उदासी के बीच सुनना
आहट उम्मीद की
तुम ही से सीखा बार-बार
उठना गिरकर
जीवन जीना भी सिखाया
तुम्हीं ने ओ मेरी किताब
धर्म व ईश्वरीय सत्ता पर उनकी कविता ईश्वर 1 व 2 (पृष्ठ 118 -119) इस दृष्टि से पठनीय हैं !
वर्गीय चेतना और किसान व मजदूर के अपने अनुभव, अपने संकट और पीड़ाओं को अनुभव करते हुए कवि ने धन (पृष्ठ 101) वह (112) कंधा (112) विवशता (117 ) नए साल में (125) और चालाकी (पृष्ठ 104) कविता इस दृष्टि से ध्यान देने योग्य हैं, –
उठो /ए ईश्वर /तुम कब तक लड़ते रहोगे /अपनी ही धर्म ध्वजा के खातिर (ईश्वर 1)
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सभी ने रखा केवल अपने ही/ अनुयायियों का ख्याल/ उन्हें ही किया उपकृत /केवल उन्हीं के सुख-दुख का/ लिया जिम्मा/
हर ईश्वर के अनुयाई /भरते रहे आपस में /अपने ईश्वर के लिए वे बने रहे/ एक दूसरे की जान के दुश्मन!
पर्यावरण के बिगड़ जाने से दुखी मिथिलेश राय प्रकृति के उपादानों पर चर्चा करते हैं तो उनकी कविता चांद 1 व 2 (121) तथा बच्चा सीख रहा है (प्रश्न 124) सामने आती है।
स्त्री इस संसार की जननी है, आधी आबादी है सल। स्त्री के प्रति मिथिलेश के मन में पूरा आदर है तो उत्सुकताएं भी, उनके साहचर्य का आनंद भी उनके मन मे है। स्त्री सहित समस्त शोषितों के बारे उनकी कविता मेरी एक दोस्त (102) लड़कियां (105) चाय (110) स्त्रियों से ही जुड़ी हुई कविताएं हैं तो प्रेम पर उनकी कविता नासमझ (111 )और प्रेम (116 ) भी पठनीय है । नासमझ कविता का यह अंश देखिए- कौए ने /कोयल से जने/ उन चूजों को भी/ अपने चूजों के/ समान ही पाला-पोसा/ दुलारा अपना ही/ समझकर/ कौए से बड़ा नासमझ/ तो देखा ही नहीं कहीं/ आज तक/ फिर भी/ कभी-कभी सोचता हूं/ दुनिया रहने तक/ बना रहे प्रेम/ इसके लिए उतना बुरा तो नहीं है/ कौए की तरह/ बेवकूफ बने रहना!
समाज के अंतिम व्यक्ति के बारे में उनकी कविता बारिश में कसक (99)एक विशिष्ट प्रकार के भाव से भर देती है, तो काव्य करने के बारे में मोची का छाता ( 121) की कविता उनको समकालीन कवियों से कुछ ऊंचा खड़ा कर देती है – मोची का छाता/ एक/ भरोसे जैसा है /जैसा भी है उसका है /काम करने की सहूलियत देता हुआ/ कविता, जैसी भी है मेरी है/ इंसान की तरह जीने में मदद करती हुई!
इस संकलन में शामिल तीनों कवि अभी उदीयमान कवि हैं, उन्होंने अभी कुछ वर्षों से लिखना शुरू किया है, उन सबके कविता के मुहावरे विकसित होने के दौर में हैं। उन्हें यश मिलेगा लेकिन तब जब वे खुद की शैली को एक पहचान देंगे। निश्चित ही तीनों की कविता सहित विचार और शैली की हिंदी साहित्य में पहचान कायम होगी, यानि तब बिना नाम पढ़े भी उनकी कविता को देख पाठक को उनका नाम याद आएगा। वह पहचान कर सकेगा कि यह आनंद सौरभ की या पद्मनाभ या मिथिलेश राय की है । तीनों कवियों ने प्रचलित विषयों से हटकर कविताएं लिखी हैं और हरेक ने कुछ विशिष्ट अनुभूतियां और विषयों पर कविताएं रची हैं यह एक उल्लेखनीय बात है । अभी तक कविता के दायरे से बाहर रहे भाव, विषयों पर कविता लिखना ऐसे युवा रचनाकारों की नई दृष्टि और विशिष्ट रचना धर्मिता कहीं जा सकती है । सामान्य बोलचाल की भाषा में अपनी काव्य परंपरा को ग्रहण कर यह तीनों कवि अपने रचना कर्म की पहली झलकी से एक संकलन के रूप में पाठकों को आत्म परिचय प्रदान करते हैं और पाठक इन्हें पढ़कर उत्साह के भाव से भर जाता है, तीनों के प्रति सराहना का भाव प्रकट होता है। निश्चित ही तीनों कवि आगे जाकर अपना महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त करेंगे। यह संकलन ब्रज श्रीवास्तव की दूरदर्शिता और एक सुविचारित नीति का पहला पुष्प है, यह संकलन उनके संपादकीय हुनर के लिए भी पाठक को आश्वस्त करता है ।
पुस्तक त्रिपथ ( कविता संकलन) प्रकाशक- बोधि प्रकाशन
कवि-आनंद सौरभ उपाध्याय, पद्मनाभ पाराशर, मिथिलेश राय मूल्य- 150 पृष्ठ 128