ऐसी कवयित्री जिसने स्त्री होने के संघर्ष करते हुए रचना धर्मिता नहीं छोड़ी। जगदलपुर जैसे दूरस्थ इलाके में रहकर हिन्दी की सेवा और साधना कर रहीं हैं खुदेज़ा। आइए मुलाकात करें
उनकी कविताओं से और उनकी कविताओं पर आईं टिप्पणी के अच्छे सुगठित गद्य से। साहित्य की बात इस बहाने आज प्रस्तुत है।

ब्रज श्रीवास्तव
*

खुदेज़ा खान की पांच कविताएं

1. आवाज़ें शब्द और क़लम*

वह आवाज़ें
जो नारे बनकर
निकली हैं सड़क पर
छोड़ दी जाएँ उन पर
आंसू गैस और लाठी
तो हैरानी किस बात की

वह शब्द
जो कटघरे में खड़े
दे रहे हैं अपनी
बेगुनाही का सबूत
उन्हें बेमुद्दत सज़ा
सुना दी जाए तो
हैरानी किस बात की

वह क़लम जो लिख रही है
दास्तान मज़लूमों की
उनकी नोक तोड़ दी जाए
जैसे अदालत में
जज तौड़ता है क़लम
सज़ा-ए-मौत देने के बाद
तो हैरानी किस बात की

एक तमाशे का चलना
यूं ही तय है अगर
तो चलती रहेगी
उन ताकतों के ख़िलाफ़

ये आवाज़ें, शब्द और क़लम ।

 

2 : आग

अपने अंदर की
छुपी हुई आग को
मैंने हरे पत्तों से ढंक रखा है
ये हरापन मुझे बचाए रखता है
ईंधन बनने से

जब तक हरा हूं
बचा रहूंगा

जब तक आंधी नहीं गिराती
खड़ा रहूंगा इसी तरह

अगर काटा नहीं गया तो
जीवित रहूंगा सदियों तक

और सूख गया तो
कह नहीं सकता
चूल्हे में जाऊंगा या चिता में।

 

3. एक समान

महफ़िल में, जलसों में
ध्यान नहीं दिया किसी ने
उस चेहरे पर
जो साधारण सा था

जिस पर नहीं थीं
अवसरानुकूल भाव भंगिमाएं
जो अनभिज्ञ था
नाटकीयता के प्रपंचों से

जिसमें नहीं थे
दिखावटीपन के
आकर्षक हाव-भाव

जिसने नहीं बनाया था
लफ्फ़ाज़ी को अपना स्वभाव

ये बात डाल देती है
अक्सर चिंता में
क्योंकि मेरे पास
एक ही चेहरा है
अंदर – बाहर
दोनों तरफ़ से
एक समान।

 

4. प्रेम की जगह

एक ख़ाली हाथ
सदैव तत्पर
दूसरे ख़ाली हाथ को
थामने के लिए

बहता पानी
रिक्त स्थान को
भरने के लिए आतुर

पत्र विहीन टहनियों पर
कोंपले ऊगने के लिए व्याकुल

जहाँ भी रिक्तता है
कुछ नहीं तो
हवा ही आकर
भर देती है उसे

ह्रदय भी
जब -जब ख़ाली हुआ
आपूरित कर दिया
कभी सुख ने, कभी दुख ने

निर्वात बैरी है
जीवन का

इस निर्वात को
चाहे जिससे भर लो
प्रेम की जगह
कोई नहीं ले सका।

5. चुम्बक

पृथ्वी का धुरी से
खेत का मिट्टी से
स्पर्श का अनुभूति से
देह का सुख से
इच्छा का पूर्ति से
मन का प्रेम से
प्रेम का आत्मा से
इस चुंबकीय आकर्षण से परे
अस्तित्व की कल्पना
साकार भी हो जाए तो
हासिल क्या…..

चुंबक रहित संसर्ग
एकांगी
नीरस
अपूर्ण

किसी मानव की ऐसी चाह नहीं।

ख़ुदेजा


टिप्पणियां

राकेश पाठक
वाराणसी

खुदेजा खान जी की प्रस्तुत कविता पर टिप्पणी लिखने से पहले अमेरिकी लेखक डायनेे जॉनसन की उस स्त्री लेखन पर कही गयी कथन का जिक्र करना चाहूंगा* जिसमें स्त्री लेखन पर पुरुष द्वारा किए जा रहे आलोचना के संबंध में उन्होंने कही थी कि पुरुष पाठक जानते ही नहीं कि स्त्री साहित्य को कैसे पढ़ना है …? दरअसल पुरुष स्त्रियों द्वारा गढ़ी गई छवियां, रूपकों, परिस्थितियों और सार्वभौमिक अनुभूतियों के साथ गहराई से रिश्ता नहीं जोड़ पाते हैं जबकि बचपन में स्त्रियां बिना जेंडर भेदभाव किए सब कुछ पढ़ने लिखने को अभ्यस्त होती है। यही कारण है कि स्त्री पाठक किताबों को लेकर या लिखे हुए पर पूर्वाग्रह मुक्त होती हैं जबकि पुरुष पाठक पूर्वाग्रह से ग्रस्त होता है… मूलतः पुरुष को लगता है की स्त्रियां ऐसा नहीं लिखेगी जो महत्वपूर्ण हो, जो वास्तव में गंभीर हो, आवश्यक हो, नया हो और ज्ञान पूर्ण हो क्योंकि भावुकताओं से भरी स्त्रियां बस भावावेग भर लिख पाती हैं ..या बराबरी के हक ना मिल पाने की कुंठा में पुरुषोक्त समाज के खिलाफ एकरेखीय हो कर ..
मैं भी इससे इत्तेफाक रखता हूं और डायने जॉनसन के अक्षरशः कही गई बातों का समर्थन करता हूं की स्त्री की कविताएं या स्त्री का कुछ भी लिखा हुआ, पुरुष न्यायोचित तरीके से पूर्वाग्रह मुक्त होकर नहीं पढ़ पाता और न हीं आलोचना कर पाता है।

स्त्री जो कविताएं लिखती है तो उन कविताओं की भी एक अलग कहानियां होती है ..वह सिर्फ भावावेग भर नही होता..कविता के सृजन के पीछे का सच या उसका कथानक का मूलतत्व समझे बिना हम कविता की आत्मा को न तो समझ सकते हैं …ना उसके साथ न्याय ही कर सकते हैं.. होता यह है कि हम एक आलोचक के तौर पर कविताओं को पढ़ते हैं.. भाषा के स्तर पर उस कविता के गुण-अवगुणों को तौलते हैं …कथ्य और कहन पर चीर फाड़ कर देते हैं ..कई स्तरों पर यह सही भी लगता है परंतु हम उस कविता के साथ न्याय नहीं कर पाते हैं क्योंकि उन कविताओं के मूल स्वर और आत्मा को ध्यातव्य न रखकर बाह्य सतही चीजों को परख आलोचना करने लगते हैं और यही पर एक आलोचक के तौर पर या पाठकीय विवेचना में हम चूक कर जाते है…

आज की प्रस्तुत सभी कविताएं भी अपने सृजन के मूल में कई कहानियां छुपाए बैठी है चाहे आग कविता हो या चुंबक या आवाजें, शब्द और कलम.. जब हम इन कविताओं की मूल आत्मा को परखते हैं या परखने का प्रयास करते हैं तो इस कविता का स्त्री के द्वारा प्रकट किया गया स्वर बड़े ही तीव्र घनत्व के साथ हमें चौका देते है।

पहली ही कविता आवाजें, शब्द और कलम..बड़े फलक की कविता है..अगर इसे थोड़ा और विस्तार दिया जाता तो और बेहतर तरीके से अपनी संप्रेषणीयता प्रकट करती.. आवाजों से आंदोलन का आगाज हो सकता है..कई चीखों को जोड़कर एक आवाज बनाई जा सकती है..ये आवाजें फिर मुख्तसर चीख भर फिर नहीं रह जायेगी..और न ही अदालतों में मजलूमों की सिर्फ दास्तान लिखने भर रह जायेगी..ये शब्द, कलम और अखबार सरकारें बदल देती है..यही इस कविता के अंतिम पंक्ति का कथन है..

दूसरी कविता आग को देखिए..कितनी सहजता से कितना कुछ व्यक्त कर दे रही है..सही बात है कि जब तक पेड़ हरा होता है तब तक ही जीवित रहता है..यह हरापन उसे मिटने से रोकता है..नष्ट होने से पहले सुखना जरूरी है..इसे प्रतीक के तौर पर मानवीय संवदेना से भी जोड़कर देख सकते है..व्यक्ति की जीवटता उसे जिंदा रहने में है..जिंदा रहने का मतलब उसके अंदर के संवेदना का जिंदा रहना है..मानवीयता से भरा रहना है..मनुष्य तब समाप्त होता है जब उसके अंदर का हरापन करुणा और संवदेना के रूप में समाप्त हो जाता है..
एक और कविता जो मुझे अच्छी लगी वह है चुंबक..यह मनुष्य के अंदर के उस प्रश्न का प्रश्न रूप में उत्तर है..जो मनुष्य के जीवन के निरसता, अपूर्णता को चुंबकीय संसर्ग से जोड़कर मनुष्य के सृजन तक ले जाती है..
खुदेजा जी को बधाई और शुभकामनाएं..इनकी और भी कविताएं पढ़नी है..इनके अंदर की मौलकिता पूरी तरह से इन कुछ कविताओं में व्यक्त नहीं हुआ है..इनकी बौद्धिकता इनसे बहुत ज्यादा उम्मीद जताती है इसलिए कुछ और कविताएं पढ़ने की इच्छा है जैसा कि पूर्व में साकिबा में पढ़ता रहा हूं..
सादर
राकेश पाठक

सोनू यशराज
(जयपुर)

प्रिय खुदेजा जी की कविताएं हमारे आसपास बिखरे सिमटे विषयों को नफासत से उठाती हैं और अपनी कविता के अंत में समाज को हिला कर जगा देने ,व्यक्ति के अंतस में खलबली पैदा करते एक नश्तर छोड़ देती हैं ।चुम्बक ,आग, प्रेम की जगह कविताओं को पढ़ते हुए कवि के भीतर की आंच और तपन महसूस की जा सकती है । उन्हें खूब बधाई और असीम शुभकामनाएं

 

.
वनिता वाजपेई

किसी रचनाकार की रचनाओं से गुजरना उसको जानने और समझने का एक माध्यम होता है
खुदैजा जी को पढ़ते हुए ऐसा ही लगा उनके व्यक्तित्व की तरह सादगी और मासूमियत से भरी रचनाओं में मनुष्यता के प्रति आग्रह है,

*एक चेहरा
अंदर बाहर
एक समान*

आग का बिम्ब हरेपन के बीच झांक रहा है, कई मजबूत सवाल हैं इस रचना में

आवाज़ें कलम और ताकत
नष्ट होती मनुष्यता के बीच बस यही एक उम्मीद की तरह हैं।
खुदैजा जी शब्दों के इस्तेमाल में
मितव्ययिता बरतती हैं जो उनकी परिपक्वता का परिचायक है।

मां ब्रम्हचारणी की आराधना के बीच उन जैसे रचनाकार का चुनाव बड़ा मोंजु है

उन्हें ढ़ेर सारी शुभकामनाएं

 

नीलिमा करैया
(होशंगाबाद)

नवदुर्गा के दूसरे दिन खुदेजा जी का स्वागत है।
सभी कविताएँ बहुत अच्छी हैं।
यह निश्चित और संकल्पित है कि जहाँ भी और जब भी कहीं कविता के संदर्भित अनुरूप अन्याय होगा तो आवाजें भी उठेंगी। शब्द के प्रति कलम भी चलेगी।
अपने अंदर की आग को हमें अपनी कोमलता के हरे पत्तों से दबा के रखना चाहिए जीवन के लिए दोनों ही जरूरी हैं। पता नहीं कब किन स्थितियों में किसकी जरूरत पड़े।
वही चेहरा बेहतर होता है जो अंदर और बाहर से एक जैसा ही हो।
निर्वात को भरा चाहे जिससे भर लिया जाए पर्यायवाची 100% सही है प्रेम का अपना ही अलग महत्व है।
लेकिन फिर भी यहां हमारे विचार थोड़े भिन्न हैं। हमारा अनुभव कहता है कि मनुष्य का ठिकाना नहीं है कि कब विचार बदल जाए और प्रेम की जगह ईर्ष्या नफरत और घृणा जगह बना ले ।
वैसे ईश्वर से प्रार्थना है कि कभी किसी के साथ ऐसा हो नहीं।
चुंबकीय अस्तित्व का महत्व असीम है।
छोटी किंतु महत्वपूर्ण कविताओं के लिए को पढ़वाने के लिए ब्रज जी का शुक्रिया।

नवदुर्गा के दूसरे दिन देवी ब्रह्मचारिणी को प्रणाम

सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी
(लखनऊ)

नौ दिन नौ कवयित्री योजना के अन्तर्गत ख़ुदेजा जी की कविताएँ उनकी जीवन-दृष्टि को सामने लाती हैं। हमारे अनुभव, जो हर सृजन के लिए कच्चे माल का काम करते हैं, हमें दूसरों से भिन्न और विशिष्ट बनाते हैं। अनुभव का यह वैविध्य और वैशिष्ट्य ख़ुदेजा जी की आज की कविताओं से निरंतर झाँकता है। उनका भाषा-बोध भी उनकी इन काव्यात्मक मुद्राओं में झलकता है। समकाल की अतृप्तियाँ और अपूर्णताएँ भी उनके कथ्य में एक चिन्ता के साथ अनुस्यूत हैं।

मीरा गौतम (चंडीगढ़)

खुदेज़ा खान की कविताओं में लोकतांत्रिक मूल्यों की विसंगतियों पर प्रहार और विद्रोह के स्वर, तीव्र रूपों में उभर रहे हैं।

ईनमें व्यंग्य और कटाक्ष हैं।
आवाज़ दबेगी नहीं।खु़देजा की क़लम ने फ़ैसला सुनकर दिया है।

कविताओं में प्रतीकात्मकता है। जीवन को झुलसा रही आग से हरे पत्तों के पैरहन से बचने- बचाने का जतन वह जानती हैं।

वह आख़िरी लमहों तक लड़ने की ताक़त अपने भीतर संगृहीत करने के जतन में मशगूल हैं।फिर चाहे जो हो ,सो

दिखावों से परे जिया जाने वाला जीवन आज के माहौल में चिंताओं का सबब है।
कवयित्री को इसकी परवाह नहीं है।
वह नीर- क्षीर विवेकी है।

लफ़्फाज़ी और अवसरवादिता के ख़िलाफ़ वह अपने वजूद को गिरवी नहीं रखती।
व्यवहार और आचरण में वह कृत्रिमता के ख़िलाफ़ हैं।उन्हें पता है कि उनका यह स्वभाव उन्हें मुश्किलों में डाल सकता है।
बिना किसी बनावट के वह कृत्रिमता के विरुद्ध अपना अघोषित युद्ध जारी रखेंगी ,यह तय है।

इन कविताओं में जीवन की उम्मीदें हैं ।खाली जगहों को हवा भर देती है और जीवन की रिक्तताओं को प्रेम से भरा जा सकता है।

तो,हृदय को केवल प्रेम से आपूरित किया जा सकता है।
हवा इसकी जगह नहीं ले सकती।
कवयित्री ने सही ढंग से जीवन को जीने का गुर बता दिया है।
जीवन में यदि चुम्बकीय आकर्षण न हों तो उसमें सन्तुलन बना नहीं रह सकता।
धरती में सन्तुलन इसलिए क़ायम है क्योंकि वह अपनी धुरी में घूमती है।

कवयित्री ख़ुदेजा विरुद्धकों में समीकरण बैठाने पर ज़ोर देती हैं।
स्त्री – पुरुष लेखन की चर्चा से दूर ये कविताएँ स्त्री की समग्र सोच की परिचायक हैं।
इन्हें किसी परिधि में बाँधकर इनके कैनवास को संकुचित नहीं किया जा सकता।

बधाई खु़देजा खान जी कि आपने अपनी कविताओं में स्त्री का सम्पूर्ण चेहरा दिखा दिया।
ये कविताएँ ‘ स्व ‘ से ‘ पर ‘ की यात्रा पर हैं।

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