कोई भी शासन करे, उसे समझ लेना चाहिए कि समस्याओं को टालना ख़तरनाक होता है. तेलंगाना एक ऐसी ही समस्या है. इससे पहले जब भाजपा ने छत्तीसग़ढ, झारखंड और उत्तरांचल बनाए थे, तभी लगने लगा था कि राज्यों के बंटवारे की मांग उठेगी और मज़बूती से उठेगी. तेलंगाना के निर्माण का आश्वासन गृहमंत्री चिदंबरम ने चंद्रशेखर राव के आमरण अनशन के दबाव में दिया था, तब उन्हें नहीं लगा होगा कि आंध्र में बंटवारे के ख़िला़फ भी आंदोलन खड़ा हो जाएगा. लेकिन चिदंबरम या सरकार यह तो समझ ही रही होगी कि उत्तर प्रदेश और बंगाल को बांटने की मांग भी उठ खड़ी होगी. अब सरकार परेशानी में है, पर यह परेशानी उसकी अपनी समझ के कारण पैदा हुई है.
छोटे राज्यों के निर्माण के पीछे का मुख्य तर्क है कि इसमें राज्य का विकास होगा और राज्य में भूख, बीमारी में कमी आएगी और रोज़गार के अवसर ब़ढेंगे. हरियाणा ने इस आशा को ब़ढाया भी. वहां का शासन ज़्यादा सक्षम हुआ, प्रशासन ने कार्यक्रम पूरे करने में ताक़त लगाई, लेकिन दूसरे प्रदेशों में यह काम नहीं हो पाया. झारखंड इसका जीवित उदाहरण है, जहां देश में सबसे ज़्यादा अकूत प्राकृतिक संपदा है, जहां के प्राकृतिक संसाधनों को बाहर ले जाकर हवाई जहाज से लेकर परमाणु ईंधन तक बनाया जा रहा है, लेकिन झारखंड में रहने वालों के पास न घर है और न रोटी. अब तो यहां की लड़कियां देश के देह बाज़ारों में बड़ी संख्या में दिखाई दे रही हैं. ऐसा राजनीतिज्ञ तलाशना चिराग लेकर सुई तलाशने जैसा हो गया है, जो ईमानदार हो और जिसे सब ईमानदार मानते भी हों. उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ भी विकसित नहीं हो पाए.
राज्य चाहे बड़े हों या छोटे, सवाल विकास की सही दिशा और उसकी गति का है. सही दिशा, सही प्राथमिकता और गति की रफ़्तार जब गड़बड़ाती है तो राज्य चाहे बड़ा हो या छोटा, न केवल परेशानी में पड़ता है, बल्कि लोगों की निराशा और गुस्से का शिकार भी हो जाता है. पर दुष्परिणाम यह होता है कि लोग दिग्भ्रमित हो जाते हैं. अभी झारखंड को याद कीजिए. 81 सदस्यीय विधानसभा में सबसे ज़्यादा सीटें भाजपा को मिलीं, लेकिन मिलीं केवल बीस. सरकार बनाने के लिए इकतालिस सीटें चाहिए. और अगर मान लें कि विधानसभा में केवल 41 सीटें ही होतीं, तो भी कोई दल सरकार नहीं बना पाता, क्योंकि बीस से ज़्यादा किसी को सीटें मिली ही नहीं. झारखंड में भूख है, पर विकास नहीं है. और वहां के मतदाता भी किसी एक को बहुमत देकर सरकार बनाने लायक नहीं समझते. परेशानी इससे बड़ी थी, कोई दो दल मिलकर भी वहां सरकार नहीं बना सकते थे. सरकार बनाने के लिए कम से कम तीन या ज़्यादा दलों का सहयोग मिलना ज़रूरी था. और झारखंड में यही हुआ. वहां चार दलों ने मिलकर राज्यपाल को 42 विधायकों के समर्थन की सूची सौंपी. केवल सरकार का बन जाना ही स्थायी सरकार की गारंटी नहीं है. देखने वाली बात तो यह होगी कि कौन सा दल कितने दिनों तक अलिखित विशेषाधिकार का इस्तेमाल नहीं करता है. किसी भी दल के तोलमोल की स्थिति में आते ही सरकार की परेशानी बढ़ना तय है.

सौ रुपये किलो दाल देश में कितने लोग खाते होंगे. चीनी कड़वी हो गई है, लाखों लोगों ने चाय पीना बंद कर दिया है. आटा, चावल एक साथ खाने वाले लोगों की संख्या कम हो रही है. मध्यम वर्ग के निचले तबके ने बाज़ार उठने के बाद बची या फेंकी हुई सब्जी खाना शुरू कर दिया है, क्योंकि सब्जी उनकी पहुंच में नहीं है.

क्या नए बनने वाले राज्यों का भविष्य भी झारखंड जैसा होगा? छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड की हालत उतनी बुरी नहीं है, पर अच्छी भी नहीं है. और अब फिलहाल तेलंगाना, जिसने आंध्र में आम लोगों के आपस में लड़ने भिड़ने की ज़मीन तैयार कर दी है. हरित प्रदेश के लिए अजीत सिंह ने कमर कस ली है और स्वयं मायावती ने मुख्यमंत्री के नाते प्रधानमंत्री को पत्र लिख दिया है कि वे उत्तर प्रदेश का विभाजन कर बुंदेलखंड और पूर्वांचल राज्य बनाने का प्रस्ताव लाएं. गोरखालैंड को लेकर दार्जिलिंग गरम है. महाराष्ट्र को विभाजित कर विदर्भ राज्य बनाने की पुरानी मांग नए सिरे से उठ रही है.
क्या है इसका हल? क्या आंध्र में तेलंगाना की तरह जैसे लोग आमने सामने खड़े हो गए, वैसे हर उस प्रदेश में जहां विभाजन की मांग उठ रही है, लोग आमने सामने खड़े होंगे? आमने सामने खड़े होने के पीछे का मुख्य कारण है रोज़ी रोटी के बढ़ने वाले अवसर बनाम रोज़ी रोटी के घटने वाले अवसर. दोनों ही बातें भ्रम हैं. जब तक बुनियादी समस्याओं की प्राथमिकता नहीं बदलती, जब तक बड़ी आबादी को विकास की प्रक्रिया में हिस्सेदारी नहीं मिलती, तब तक कुछ भी हासिल नहीं होने वाला. अब तक सरकारें समस्या को टालने का या अनदेखा करने का काम करती आई हैं, पर अब समय आ गया है कि उन्हें टालें नहीं, उनके हल के लिए गंभीर कोशिश करें. गंभीर कोशिश की शुरुआत न करने का परिणाम देश के प्रमुख प्रांतों में लोगों की आपसी लड़ाई के रूप में सामने आ सकता है. सरकार महंगाई को लेकर ज़रा भी परेशान नहीं दिखाई देती. आज सरकार अगर इस समस्या को अनदेखा करती है तो कल सारा देश परेशान हो जाएगा और निराशा में अनहोनी करने लगेगा.
सौ रुपये किलो दाल देश में कितने लोग खाते होंगे. चीनी कड़वी हो गई है, लाखों लोगों ने चाय पीना बंद कर दिया है. आटा, चावल एक साथ खाने वाले लोगों की संख्या कम हो रही है. मध्यम वर्ग के निचले तबके ने बाज़ार उठने के बाद बची या फेंकी हुई सब्जी खाना शुरू कर दिया है, क्योंकि सब्जी उनकी पहुंच में नहीं है. इसका दूसरा परिणाम बीमारियों का बढ़ना है. बच्चों में कुपोषण बढ़ रहा है, नतीजे के तौर पर मौत की दर बढ़ रही है. यह सामान्य कहानी है, पर अगर मुस्लिम समाज और दलितों को लें तो आंखें और खुल जाती हैं. दोनों वर्गों के आर्थिक रूप से कमज़ोर तबके बेरोजगारी और बीमारी के जाल में दिनोंदिन जकड़ते जा रहे हैं. सोचने पर दहशत लगती है कि यदि महंगाई से परेशान सारे लोग सड़क पर उतर आएं और लूटपाट करने लगें तो क्या होगा? क्या सरकार के पास इतनी पुलिस या फौ़ज है, जो वह महंगाई से परेशान लोगों के गुस्से का सामना कर सके? हम किसानों के क़र्ज़ के जाल में जकड़ने के कारणों की तो बात ही नहीं करते.
आज व़क्त है कि सरकार सारे राजनैतिक दलों को इन सभी सवालों पर बुलाए और उनसे इन्हें हल करने में सहयोग मांगे. राजनैतिक दलों को भी चाहिए कि वह इन समस्याओं के हल के लिए ईमानदारी से सहयोग दें. पर पहल तो सरकार को ही करनी होगी, ईमानदार पहल. हर हालत में रोज़ी रोटी, महंगाई और भ्रष्टाचार का मुद्दा एजेंडे पर सबसे पहले रखना होगा. अगर इसमें थोड़ी भी चूक होती है तो हमें देश में आपसी झगड़ों, दंगों और लूटपाट के मंज़र देखने के लिए अपने आपको तैयार रखना होगा.

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