बिहार राजनीतिक रूप से देश के जागरूक राज्यों में से एक है. जयप्रकाश नारायण का आंदोलन यहीं पर हुआ था. बहुत सारे समाजवादी नेता इसी राज्य से संबंधित थे. यह भारतीय समाजवाद का गढ़ है. गया अधिवेशन में आचार्य नारायण देव ने पहली बार बोला कि लोगों की चिंता किए बिना कांग्रेस एक चुनाव जीतने वाली मशीन बनकर रह जाएगी. यह लगभग सच साबित हुआ. हालांकि, लोहिया जी फर्रुखाबाद से चुनाव लड़े थे, लेकिन उत्तर प्रदेश और बिहार समाजवाद का वास्तविक गढ़ था. समाजवादी विचारधारा के भविष्य के लिए यह चुनाव बहुत ही महत्वपूर्ण है. हमारे कुछ मित्र इस बात पर विचार-विमर्श कर रहे थे कि 2019 में नीतीश कुमार प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे.
सूचना एवं प्रसारण राज्यमंत्री ने बहुत गर्व से कहा है कि भारतीय सेना ने म्यांमार सीमा में कुछ किलोमीटर अंदर घुसकर एक अभियान को अंजाम दिया है. सेना ने जो भी किया, वह पहली बार नहीं हुआ है. कम से कम चार बार इस तरह की कार्रवाइयां पहले भी अंजाम दी जा चुकी हैं. इसलिए इसमें सीना थपथपाने वाली कोई बात नहीं है. यह सेना का एक अभियान था. एक केंद्रीय मंत्री इन सब चीजों पर बढ़-चढ़कर बातें कर रहे थे. इससे किसी का भला नहीं होगा. न तो यह अपने पड़ोसी देशों के साथ रिश्तों को सुधार सकता है और न सेना का मनोबल बढ़ा सकता है. हालांकि, ऐसा अक्सर अधिक वोट हासिल करने के लिए किया जाता है, लेकिन जनता बहुत ही तेज है और इस तरह के हथकंडों से दूर रहती हैै. इन चीजों को अपने विचार के तौर पर ही रखना चाहिए और इस पर कोई बात नहीं करनी चाहिए. इसके पहले भी रक्षा मंत्री बहुत कुछ बोल चुके हैं, जो उन्हें नहीं बोलना चाहिए था. मैं नहीं जानता कि सूचना एवं प्रसारण राज्यमंत्री को पीएमओ द्वारा इस बारे में बातें करने के लिए अधिकृत किया गया था या नहीं, लेकिन इन चीजों पर बोलने से बचा गया होता, तो वह ज़्यादा बेहतर होता.
इस सप्ताह की बड़ी खबर यह है कि नीतीश कुमार की मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवारी पर सभी लोग अंतत: राजी हो गए. यह अच्छी बात है. वह बिहार के एकमात्र चेहरे हैं, जिनकी साख है, जबकि भाजपा के पास इस तरह का कोई चेहरा नहीं है. भाजपा नेता सुशील मोदी, जो नीतीश सरकार में उप-मुख्यमंत्री थे, उनके पास न तो कोई जाति का समीकरण है (वह खुद बनिया जाति से हैं, जिनकी संख्या बहुत अधिक नहीं है) और न उनका राजनीतिक कद इतना बड़ा है कि वह पूरे बिहार के नेता बन सकें. गिरिराज सिंह भूमिहार जाति के हैं और कुछ कर सकते हैं, लेकिन वह चरमपंथी विचारधारा के पोषक हैं और अल्पसंख्यकों एवं दूसरों के खिला़फ ग़लत भाषा का प्रयोग करते रहे हैं. यह उनके लिए अच्छा नहीं होगा, लेकिन भाजपा को तो चुनाव लड़ना है.
यह अच्छी बात है, अगर धर्मनिरपेक्ष ताकतें एकजुट होकर लड़ें. चुनाव का परिणाम चाहे जो भी हो, लेकिन यह देश के राजनीतिक भविष्य और राजनीतिक आधार के लिए अच्छा होगा. इस देश में हर पांच साल पर चुनाव होता है और हमने 1977 के बाद हर तरह की सरकारों को देखा है. 1977 तक स़िर्फ कांग्रेस ने देश पर शासन किया था, लेकिन 1977 के बाद विभिन्न तरह की सरकारें आईं. यह स़िर्फ मेरी चिंता नहीं है. यह केवल राज्य का चुनाव है, लेकिन भाजपा एक साल पहले जिस तरह से व्यवहार कर रही थी कि वह अगले 10, 15 या 20 सालों तक इस देश पर राज करेगी, वह अरविंद केजरीवाल के दिल्ली विजय के बाद ध्वस्त हो चुका है. भाजपा के घमंडी स्वभाव को इस जीत ने नष्ट कर दिया है. एक बार फिर से बिहार में अमित शाह को भेजा गया है और एक बार फिर बर्मा सेना अभियान को इसी उद्देश्य के लिए इस्तेमाल करके अपना सीना थपथपाया जा रहा है. इससे सफलता नहीं मिलेगी.
बिहार राजनीतिक रूप से देश के जागरूक राज्यों में से एक है. जयप्रकाश नारायण का आंदोलन यहीं पर हुआ था. बहुत सारे समाजवादी नेता इसी राज्य से संबंधित थे. यह भारतीय समाजवाद का गढ़ है. गया अधिवेशन में आचार्य नारायण देव ने पहली बार बोला कि लोगों की चिंता किए बिना कांग्रेस एक चुनाव जीतने वाली मशीन बनकर रह जाएगी. यह लगभग सच साबित हुआ. हालांकि, लोहिया जी फर्रुखाबाद से चुनाव लड़े थे, लेकिन उत्तर प्रदेश और बिहार समाजवाद का वास्तविक गढ़ था. समाजवादी विचारधारा के भविष्य के लिए यह चुनाव बहुत ही महत्वपूर्ण है. हमारे कुछ मित्र इस बात पर विचार-विमर्श कर रहे थे कि 2019 में नीतीश कुमार प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे. हमारे कुछ सहयोगियों के व्यवहार से इस विचार को धक्का लग सकता है, लेकिन हमें खुशी है कि आ़खिरकार चीजों को सुलझा लिया गया. यहां तक कि लालू यादव भी आ़खिरकार सहमत हो गए हैं. उनका बयान बहुत ही उत्साहजनक है. उन्होंने कहा, अगर मेरी वजह से यह टूट होती है और इसकी वजह से भाजपा को अगर फायदा होता है, तो मैं कौन-सा मुंह लेकर लोगों के सामने जाऊंगा. यह अच्छी बात है कि उन्हें यह एहसास हुआ कि यह उद्देश्य व्यक्तिगत अहंकार से बड़ा है. अब तीन से चार महीनों तक सबकी निगाहें बिहार पर टिकी रहेंगी. पूरी कोशिश की जाएगी कि बिहार में एक अच्छी साख वाली सरकार आए, जो जनता के लिए काम करे और जनहितैषी कार्यक्रम चलाए. अगले पांच साल में बिहार अच्छा प्रदर्शन करेगा. पुरानी कहानी खत्म हो गई है. यहां की कृषि की स्थिति सुधर गई है. हालांकि, यह अभी भी मानसून पर निर्भर है. केंद्र ने राज्यों के फंड आवंटन की सीमा बढ़ा दी है. इसलिए किसी खास योजना का चुनाव करके राज्यों को खर्च करने की अधिक स्वतंत्रता है. आने वाले कुछ वर्षों के लिए यह अच्छा संदेश है. हमें यह उम्मीद करनी चाहिए कि सीटों का बंटवारा कोई समस्या नहीं बनेगा और वे जीतने वाले उम्मीदवार को टिकट देंगे.
मानसून की कमी एक चिंता का विषय है. दरअसल, हर साल इस तरह का पूर्वानुमान किया जाता है. कभी यह सही होता है और कभी ग़लत. देश की बेहतरी के लिए हम उम्मीद करते हैं कि मौसम का यह पूर्वानुमान ग़लत साबित हो जाए, लेकिन सरकार की तऱफ से वित्त मंत्री ने यह आश्वासन दिया है कि चिंता की कोई बात नहीं है. देश में खाद्यान्न का समुचित भंडार मौजूद है. लेकिन यह खाद्यान्न के भंडार का सवाल नहीं है, क्योंकि जब बारिश कम होती है तो यह सच है कि इसकी वजह से लोगों की ज़िंदगी खतरे में नहीं पड़ती, लेकिन सच्चाई यह भी है कि किसानों के बहुत सारे मवेशियों का ऩुकसान होता है. जब बिहार, राजस्थान और दूसरे राज्यों में सूखा पड़ता है, तो वहां हालत दयनीय हो जाती है. सरकार को ऐसे हालात से निपटने के लिए पहले से ही तैयारी कर लेनी चाहिए. यह कैसे होगा? हमारे यहां राष्ट्रीय आपदा प्राधिकरण मौजूद है, लेकिन हमें यह नहीं मालूम है कि ऐसी आपदाओं से निपटना उसके अधिकार क्षेत्र में है या नहीं. लेकिन, उसे कम मानसून के कारण उत्पन्न होने वाले हालात से निपटने के लिए विशेष अधिकार देना चाहिए. बाढ़ एक दूसरी समस्या है. एलनीनो के प्रभाव के कारण कहा जाता है कि मानसून कम होता है या असमय और कम होता है. जलवायु परिवर्तन का भी अपना अलग प्रभाव है. इसलिए मैं यह समझता हूं कि सरकार को इस पर गंभीरता से सोचना चाहिए कि कृषि मंत्रालय और प्रधानमंत्री कार्यालय को इस बात की समुचित व्यवस्था करनी चाहिए कि देश के अलग-अलग हिस्सों में अगर कुछ होता है, तो उस पर त्वरित कार्रवाई हो सके.