जिस तेजी से समाज में धार्मिक चैनल बढ़े, उसी तेजी से समाज में अपराध का ग्राफ बढ़ा. आख़िर इन चैनलों पर आए हुए संत-महात्माओं ने किसे प्रेरित किया? साधुओं की भी जमातें हो गईं. एक बड़ा तबका राजनीतिक साधुओं के रूप में जाना जाने लगा, जिनमें कुछ कांग्रेस के हो गए और कुछ भारतीय जनता पार्टी के हो गए. भारतीय जनता पार्टी ने पिछले तीन-चार लोकसभा चुनावों में साधु-संतों को टिकट देकर लोकसभा पहुंचाया. इतना ही नहीं, उनमें से कुछ को मंत्री भी बनाया.
जिस तरह राजनीति की दिशा बदल रही है और राजनीति का स्तर गिर रहा है, उससे कहीं ज़्यादा समाज की दिशा बदल रही है और समाज का स्तर गिर रहा है. आज से 40 साल पहले समाज और राजनीति का एक स्तर था. आज समाज और राजनीति का बिल्कुल दूसरा स्तर है. यह एक बड़ा फ़़र्क है और बहुत डरावना है. इसका यह मतलब नहीं है कि समाज में ज़्यादातर शोहदे, लुच्चे या गुंडे हो चुके हैं, बल्कि इसका मतलब यह है कि समाज का वह हिस्सा, जो आवाज़ करता है, उसका एक बड़ा हिस्सा इसी प्रकार के विशेषणों के नज़दीक पहुंच गया है.
इसके उदाहरण तलाशने की ज़रूरत नहीं है. जबसे सैटेलाइट टीवी का आर्विभाव हुआ, जिसे हम 90 का दशक कह सकते हैं, अचानक धार्मिक चैनलों की बाढ़ आ गई. जितने भी बड़े-बड़े साधु, संत, महात्मा, मंडलेश्वर और कमंडलेश्वर थे, वे सब किसी न किसी चैनल पर आकर देश को प्रवचन देने लगे, लोगों को रास्ते पर चलने की अलग-अलग ढंग से प्रेरणा देने का काम करने लगे. ज़्यादातर साधुओं ने टेलीविजन पर आना अपना स्टेटस सिंबल मान लिया. जो टेलीविजन पर आता है, वह बड़ा साधु है और जो नहीं आता है, वह छोटा साधु है, ऐसी मान्यता साधु समाज में फैला दी गई. नतीजे के तौर पर छोटे-छोटे साधु भी पैसा इकट्ठा करके विभिन्न चैनलों में टाइम खरीदने लगे. और, जो साधु हमारे बीच में नहीं हैं, उनके शिष्य उन साधु महाराज के रिकॉर्ड किए हुए प्रवचन बड़े-बड़े चैनलों पर वक्त खरीद कर दिखा रहे हैं. शायद यह धर्म की मार्केटिंग का विद्रूप चेहरा है.
जिस तेजी से समाज में धार्मिक चैनल बढ़े, उसी तेजी से समाज में अपराध का ग्राफ बढ़ा. आख़िर इन चैनलों पर आए हुए संत-महात्माओं ने किसे प्रेरित किया? साधुओं की भी जमातें हो गईं. एक बड़ा तबका राजनीतिक साधुओं के रूप में जाना जाने लगा, जिनमें कुछ कांग्रेस के हो गए और कुछ भारतीय जनता पार्टी के हो गए. भारतीय जनता पार्टी ने पिछले तीन-चार लोकसभा चुनावों में साधु-संतों को टिकट देकर लोकसभा पहुंचाया. इतना ही नहीं, उनमें से कुछ को मंत्री भी बनाया. जो साधु लोकसभा में नहीं जा सके, उन्होंने अपनी अलग-अलग पीठें स्थापित कीं. शंकराचार्य भी मुखर हो गए, बड़े साधु भी मुखर हो गए और छोटे साधु भी मुखर हो गए, पर समाज के ऊपर इसका रंचमात्र भी प्रभाव नहीं पड़ा. बल्कि समाज में खाई बढ़ती दिखाई दी और पराकाष्ठा तो तब हो गई, जब बहुत सारे साधु जातियों के साधु हो गए. कुछ जातियों ने अपने-अपने महात्माओं को चुन लिया. जो संन्यास लेने से पहले उस जाति समुदाय से आते थे. हालांकि, यह माना जाता है कि संन्यास लेना मृत्यु के बाद दूसरा जन्म है. पर ये तो पुनर्जन्म प्राप्त करके भी जातियों के साधु बन गए. बहुत से साधुओं ने तो राजनीति में किसे बढ़ाना है, किसे गिराना है और किसे घटाना है, इसमें भी महारथ हासिल कर ली.
अफ़सोस की बात यह है कि इतने साधु-संतों के विचार टेलीविजन द्वारा समाज में सुबह-शाम फैलाए जाने के बाद भी बलात्कार की घटनाओं में लगातार वृद्धि देखी जा रही है. सख्त क़ानून ने बलात्कारियों के मन में कोई डर नहीं पैदा किया और इन साधु-संतों ने बलात्कार की भावना रखने वाले लोगों के मन को बदलने में अपना कोई रोल अदा नहीं किया. अब एक धर्म के लोग दूसरे धर्म से बदला लेने या उसे नीचा दिखाने के लिए वैसे ही औरतों को निशाना बना रहे हैं, जैसे पुराने जमाने में कोई बादशाह या कोई राजा अपनी सत्ता का दबदबा दिखाने के लिए अपने सिपाहियों से सामूहिक बलात्कार कराता था या वे सेनाएं दूसरे देश के लोगों का मन तोड़ने के लिए सामूहिक बलात्कार किया करती थीं. आख़िर क्या कारण है कि इतने सारे साधु-संतों के रहते हुए एक सत्तर साल की औरत के साथ सामूहिक बलात्कार होता है और इन साधु-संतों का कोई भी असर समाज के उस वर्ग पर नहीं होता, जो अपनी हवस मिटाने, दूसरे समाज का मनोबल तोड़ने और उन्हें शर्मशार करने के लिए बलात्कार या औरत के ऊपर जुल्म करने को सबसे ज़्यादा असरदार तरीका मानता है.
बहुत सारी घटनाएं बाहर नहीं आ पातीं. दबे-कुचले वर्गों के साथ उसी वर्ग के लोग दबंगई करते हैं. उसी समाज के लोग औरतों, लड़कियों या बच्चियों का अपहरण करके उनके साथ बलात्कार करते हैं और उसके बाद उनकी जान भी ले लेते हैं, ताकि कोई सुबूत न रहे. यह सब क़ानून से कैसे रुकेगा, नहीं पता. यह सब साधु-संतों के प्रवचनों से भी कैसे रुकेगा, नहीं पता. क्योंकि, कई बड़े साधु-संत तो स्वयं इसी तरह के आरोपों में जेल में बंद हैं. दरअसल, समाज का विश्वास हर जगह से टूटता जा रहा है. राजनीति से उसका विश्वास लगभग उठ गया है. थोड़ा-बहुत न्यायपालिका में बचा है, पर उसके भी टूटने में बहुत वक्त नहीं लगने वाला. लेकिन सामाजिक नेता, जिनमें से अधिकांश जातियों के नेताओं में बदल गए हैं, उनका भी कोई असर न अपनी जाति पर है और न देश के बाकी हिस्से पर. समाज पर तो बिल्कुल नहीं.
अब सवाल यह है कि इसके बारे में सोचेगा कौन? यह यक्ष प्रश्न है और इसका उत्तर हमें भी नहीं मालूम. लेकिन, हम यह ज़रूर देख रहे हैं कि स्थितियां बहुत तेजी से खराब हो रही हैं और जो प्रतिस्पर्धा राजनीति में है कि अपने साथ चल रहे व्यक्ति की पीठ में छुरा घोंपो, उसे लंगड़ी मारो, वहीं प्रतिस्पर्धा और वहीं मानसिकता अब संतों में आ गई है. तब समाज की दशा भला कैसे सुधरेगी? धर्मग्रंथों में कहा गया है कि जब-जब पाप का घड़ा भरता है, तब-तब कोई अवतार या पैगंबर आता है और समाज को सुधारता है. इसका मतलब अभी पाप का घड़ा भरा नहीं है. अभी हमें ऐसी और भी घटनाएं देखने को मिलेंगी, जिससे वे लोग, जो यह सब नापसंद करते हैं और जिनकी संख्या ज़्यादा है, लेकिन खामोश रहते हैं, वे उठकर खड़े हो जाएं. याद आता है और उस पर अब भरोसा भी होता है कि:-
आसमां पर है खुदा और जमीं पर हम,
आजकल वह इस तरफ़ देखता है कम.