gyanodayहिंदी समेत कई भारतीय भाषाओं में साहित्य विशेषांक निकालने की परंपरा रही है. कोलकाता से उत्सव के मौ़के पर जनसत्ता का साहित्य विशेषांक और नागपुर से प्रकाशित लोकमत का साहित्य विशेषांक के अलावा कई साहित्यिक पत्रिकाओं के विशेषांक निकलते रहे हैं. किसी जमाने में इंडिया टुडे सालाना साहित्य विशेषांक निकालता था. बाद में हिंदी के वरिष्ठ कवि विष्णु नागर शुक्रवार साप्ताहिक के संपादक बने, तो उन्होंने भी साहित्य विशेषांक निकाले थे, लेकिन जनसत्ता और लोकमत को छोड़कर लगभग सभी साहित्य विशेषांकों का प्रकाशन स्थगित हो चुका है. भारतीय ज्ञानपीठ की प्रतिष्ठित पत्रिका नया ज्ञानोदय भी कई साहित्य विशेषांक निकाल चुका है.
नया ज्ञानोदय की कमान संभालने के बाद हिंदी के वरिष्ठ कवि एवं लेखक लीलाधर मंडलोई के संपादन में नया ज्ञानोदय की साहित्य वार्षिकी 2015 हाल ही में बाज़ार में आई है. क़रीब तीन सौ पृष्ठों के इस विशेषांक में निराला से लेकर सविता भार्गव तक की रचनाएं शामिल हैं. इस विशेषांक को उन्नीस हिस्सों में विभक्त किया गया है. अगर कविता के तीन खंडों को एक मान लें, तो सत्रह होते हैं. पुरखों के कोठार से खंड में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी से लेकर रायकृष्ण दास, राम विलास शर्मा और हरिशंकर परसाईं. संपादक लीलाधर मंडलोई का मानना है कि ये लेखक हमारे इतिहास के कलंदर हैं. इनका अपना संघर्ष था, वीतराग था इनका. संपादक ने पाठकों को भरोसा दिया है कि नया ज्ञानोदय की पुरखों के कोठार से रचनाएं निकाल कर नए पाठकों के सामने प्रस्तुत करने की पहल जारी रहेगी. लेखक मनोज मोहन ने बेहद ही गंभीर मसले पर विचारोत्तेजक बहस आयोजित की है.
इस परिचर्चा का विषय है, उदारवाद में साहित्य-संस्कृति का वर्तमान और सहभागी हैं, अशोक वाजपेयी, कृष्ण कुमार, प्रेमपाल शर्मा, विष्णु नागर, मनीषा कुलश्रेष्ठ एवं चित्रकार अशोक भौमिक. उदारवाद के साहित्य एवं संस्कृति पर पड़ने वाले असर को लेकर तमाम लेखक और बुद्धिजीवी चिंतित नज़र आते हैं, लेकिन अशोक वाजपेयी बेहद साफ़गोई से कहते हैं, वैचारिक आंदोलन के न होने का अर्थ विचार का न होना नहीं है. वाजपेयी के मुताबिक, यह सांस्कृतिक शून्यता है, पर बाहर से किन्हीं शक्तियों ने नहीं लाद दी है. हमने स्वयं उसकी रचना में उसकी भूमिका निभाई है. उससे उबरना तब शुरू होगा, जब हम आत्माभियोग के भाव से अपनी हिस्सेदारी स्वीकार करें. ऐसे स्वीकार से नया प्रतिरोध, नए रूपाकार उभर सकते हैं. लेखिका मनीषा कुलश्रेष्ठ का मानना है कि नव-उदारवाद के पीछे विचारहीन पीढ़ी की पीढ़ी छद्म ज्ञान का मुखौटा ओढ़े खड़ी है. ऐसी ही कई दिलचस्प टिप्पणियां इस परिचर्चा में हैं, जो पाठकों को एक नई दिशा की तरफ़ सोचने के लिए मजबूर कर सकती हैं.
इस अंक में वरिष्ठ पत्रकार दिनकर कुमार ने असमिया के मशहूर गायक एवं संगीतकार भूपेन हजारिका की संक्षिप्त जीवनी लिखी है. यह हिंदी के पाठकों को भूपेन की ज़िंदगी से रूबरू कराती है. इस विशेषांक में एक और नई पहल, कह सकते हैं, शुरू हुई है कि हिंदी की अलग-अलग विधाओं की किताबों के लेखक-पाठक सर्वेक्षण प्रकाशित हैं. उपन्यासों में काशी नाथ सिंह के उपसंहार, ज्ञान चतुर्वेदी के हम न मरब और भगवान दास मोरवाल के नरक मसीहा को क्रमश: पहला, दूसरा और तीसरा स्थान मिला है. इसी तरह केदार नाथ सिंह, अशोक वाजपेयी और लीलाधर जगूड़ी के संग्रह को कविता की सूची में स्थान मिला है. अगर यह परंपरा कायम रह सकती है, तो हिंदी में बेस्ट सेलर की तरह की एक अवधारणा का विकास हो सकेगा. भीतर नैन बिसाल में नामवर सिंह और शम्सुर्रहमान फारुकी के दो लेख प्रकाशित हैं. भारतीय संस्कृति हमेशा से बहुलता की पक्षधर रही है. इस देश में कई भाषाएं, कई जातियां और कई धर्म हैं. इसके अलावा यहां कई उपजातियां एवं संस्कृतियां एक साथ सदियों से रहती और विकसित होती आई हैं. कई लोगों का मानना है कि भारत की यह बहुलतावादी संस्कृति आज ख़तरे में है. नामवर जी ने इस पर बहुत ही गंभीरता से विचार किया है.

नामवर सिंह ने कहा कि जिस दौर से हम ग़ुजर रहे हैं, उस दौर में ख़तरा स्वयं संस्कृति पर है और आप जानते हैं कि संस्कृति एकवचन शब्द नहीं है, संस्कृतियां होती हैं और इसलिए संस्कृति हमेशा बहुवचन होती है. सभ्यताएं दो-चार होंगी, लेकिन संस्कृतियां सैकड़ों होती हैं. इसलिए ऐसे दौर में, जहां संस्कृति की बहुलता को संकट हो और तमाम संस्कृतियों की बहुलता पर पटेला चलाते हुए समतल करने का प्रयास किया जा रहा हो, उस सांस्कृतिक बहुलता को नष्ट होते हुए देखकर स्वभावतय: चिंता होती है. इसके अलावा गालिब पर मीर की शायरी के प्रभाव को परखते हुए शम्सुर्रहमान फारुकी का बेहद विचारोत्तेजक लेख प्रकाशित है.

नामवर सिंह ने कहा कि जिस दौर से हम ग़ुजर रहे हैं, उस दौर में ख़तरा स्वयं संस्कृति पर है और आप जानते हैं कि संस्कृति एकवचन शब्द नहीं है, संस्कृतियां होती हैं और इसलिए संस्कृति हमेशा बहुवचन होती है. सभ्यताएं दो-चार होंगी, लेकिन संस्कृतियां सैकड़ों होती हैं. इसलिए ऐसे दौर में, जहां संस्कृति की बहुलता को संकट हो और तमाम संस्कृतियों की बहुलता पर पटेला चलाते हुए समतल करने का प्रयास किया जा रहा हो, उस सांस्कृतिक बहुलता को नष्ट होते हुए देखकर स्वभावतय: चिंता होती है. इसके अलावा गालिब पर मीर की शायरी के प्रभाव को परखते हुए शम्सुर्रहमान फारुकी का बेहद विचारोत्तेजक लेख प्रकाशित है. पत्र लेखन किसी जमाने में साहित्य की एक विधा के रूप में स्थापित था, लेकिन तकनीक के विकास ने साहित्य की इस विधा को लगभग ख़त्म-सा कर दिया है. पहले साहित्यकारों के बीच पत्रों में गंभीर विमर्श हुआ करते थे. अब उसकी जगह फेसबुक आदि ने ले ली है. लेकिन, फेसबुक आदि पर वह आत्मीयता नहीं महसूस की जा सकती है, जो पत्रों से महसूस होती थी. वर्चुअल दुनिया में आत्मीयता की बात करना ही बेमानी है. इस अंक में कई महत्वपूर्ण शख्सियतों के बीच पत्र व्यवहार प्रकाशित है. जवाहर लाल नेहरू और बर्नाड शॉ, मिर्जा गालिब के कई पत्र, अली सरदार जाफरी के बेगम सुल्ताना के नाम खत, फैज का अपनी पत्नी के नाम खत के अलावा मुक्तिबोध, केदार नाथ अग्रवाल और हरिशंकर परसाईं के भी कई दिलचस्प पत्र संकलित हैं.
अपने एक पत्र में मुक्तिबोध ने लिखा है, उम्र ज्यों-ज्यों बढ़ती जाती है, सफेद होती है, त्यों-त्यों ख़तरों से डरती है. मुक्तिबोध ने तब लिखा था, आज की कविता उलझी परिस्थितियों की ओर या उसके भीतर पाई जाने वाली ग्रंथिल मन:स्थितियों की कविता है. इसलिए शायद उसमें से उलझाव हटाना होगा. जैसे सड़क साफ़ होती है, वैसी ही वह हो. चक्करदार गलियों में चलने वालों को भी चक्कर नहीं आने चाहिए और मकान मिल जाना चाहिए. उन्होंने अपने पत्र में कविता के शिल्प में असावधानी की ओर भी इशारा किया था. कुल मिलाकर अगर हम देखें, तो भारतीय ज्ञानपीठ के सत्तर साल पूरे होने के मौ़के पर नया ज्ञानोदय की इस साहित्य वार्षिकी में पाठकों के लिए ढेर सारी पठनीय और सहेजने योग्य सामग्री है. इस आयोजन के लिए संपादक लीलाधर मंडलोई साधुवाद के पात्र हैं.

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